जब मैं लगातार 22 दिन तक अपना कॉलम नहीं लिख पाया तो पाठकों ने यह जरूर सोचा होगा कि इतनी खमोशी क्यूं है भाई? तो उसका जवाब यह है कि दूसरों के गिरेबान में झांकने में मैं इतना मशगूल हो गया था कि खुद के गिरेबान का पता ही नहीं चला। और हुआ यूं कि इस बार गिरेबान ने खुद गरदन पकड़ कर अपने अंदर झांकने को मजबूर कर दिया। और जब झांका तो सारा माजरा देखने के बाद कहने को मन हुआ-
सारे जहां का दर्द मेरे जिगर में है
खुद का जिगर कहां है इसका पता नहीं
मैं सोचता हूं यह समस्या व्यक्ति की नहीं पूरे समाज की है। हम दूसरों के गिरेबान में झांकने के इतने आदी हो चुके हैं कि खुद के भीतर क्या है और किस हालत में है इस पर कभी ध्यान ही नहीं जाता। और एक दिन बहुत सारी चीजें इकट्ठी होकर जब आपसे सवाल करने लगती हैं तो आपसे जवाब देते नहीं बनता।
हम पत्रकारों या लिखने वालों की जिंदगी ऐसे ही चलती है और ऐसे ही बीतती है। कई बार सोचता हूं कि हम आखिर इतना सारा लिख लिख कर हासिल क्या कर पाते हैं? वो गालिब ने कहा था ना कि-
फिक्रे दुनिया में सर खपाता हूं,
मैं कहां और ये वबाल कहां
तो हम बस ‘फिक्रे दुनिया’ में सर खपाते रहते हैं। यह जानते हुए कि होना जाना कुछ नहीं फिर भी दीवानावार लगे रहते हैं।
मेरे विचार में हम पत्रकार दरअसल समाज के प्रूफ रीडर हैं। और हमारी सारी जिंदगी समाज की इसी प्रूफ रीडिंग में ही निकल जाती है। समाज के आचरण में कहां कौनसी मात्रा गलत लगी है, कहां कौनसा शब्द गलत इस्तेमाल हुआ है और कहां कौनसा वाक्य फिट नहीं बैठ रहा, बस यही देखते रहते हैं। अपनी खुद की किताब पढ़ने और उसे दुरुस्त करने का मौका न तो हमें मिलता है और न ही शायद हम उस मौके को कभी तलाशते हैं। और आजकल तो ऐसा होने लगा है कि हमें खुद समाज के व्याकरण का पता नहीं होता, न ही हम उसकी बारहखड़ी जानते हैं, लेकिन फिर भी उसकी प्रूफ रीडिंग करने का भरम अपने कंधों पर ढोए चले जाते हैं। और इसी चक्कर में कई बार देह के दंड भी भुगतते हैं। सो इस बार वही हुआ।
वैसे प्रूफ रीडिंग की बात करते करते मुझे अपने बचपन का एक प्रसंग याद आ गया। कहने को उस प्रसंग के संवाद बहुत मामूली थे लेकिन आज सोचता हूं कि शायद नियति ने उसी समय मेरे लिए कोई इबारत दीवार पर लिख दी थी। पिताजी शिक्षक होने के साथ ही साहित्यकार और पत्रकार भी थे। हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘वीणा’ के संपादक रहने के दौरान उन पर दोहरी जिम्मेदारी आ गई थी। दिन भर स्कूल में पढ़ाने के बाद शाम को पत्रिका का संपादन करना और देर रात घर लौटना यही दिनचर्या थी।
रात को जब वे घर आते तो साथ में कागजों का बड़ा-सा पुलिंदा भी होता। वे देर रात तक या कभी कभी तो अल सुबह तक उस पुलिंदे से जूझते रहते। एक बच्चे के लिए वह सब पहेली जैसा था। एक दिन मैंने पूछा- ‘’आप ये क्या करते हो?’’ उन्होंने कहा- ‘’इसे प्रूफ रीडिंग कहते हैं।‘’ ‘’वो क्या होता है।‘’ ‘’इसमें हम किताब छपने से पहले जो लिखा गया है, उसकी गलतियां निकाल कर उसे ठीक करते हैं। ताकि जब किताब छपे तो उसमें भाषा की कोई गलती न रहे।‘’
बात को थोड़ा थोड़ा समझने के बाद मुझे पता चला कि घर का खर्च पूरा करने के लिए पिताजी बाकी कामों के अलावा प्रूफ रीडिंग का काम भी किया करते जो देर रात तक चलता। उस समय शायद एक गलती दुरुस्त करने के दस या पंद्रह पैसे मिला करते थे। और जब मुझे यह बात पता चली कि प्रूफ की गलती ठीक करने के पैसे मिलते हैं, तो एक दिन मैंने बड़ी सहजता से पिताजी से पूछ लिया- ‘’ये लोग ज्यादा गलतियां क्यों नहीं करते?’’ पिताजी ने हंसकर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था- ‘’नहीं बेटा, गलतियां तो कम ही होनी चाहिए।‘’
इस जवाब के पीछे जो दर्शन छिपा था वो समझने की मेरी उम्र नहीं थी। आज सोचता हूं तो लगता है पूरा समाज ही एक दूसरे की प्रूफ रीडिंग में लगा है और हरेक की पहली मुराद यही है कि सामने वाले से ज्यादा से ज्यादा गलतियां हों ताकि उनसे वह कुछ अर्जित कर सके। गलतियां कम करने की बात तो शायद कोई सोचता भी नहीं।
समाज को और खुद को ना समझने की ये ही गलतियां जीवन में सारे कष्टों की जड़ है। प्रूफ रीडिंग करके गलतियां सुधारने में किसी की रुचि नहीं है। आज तो गलतियों की गलियों से होकर ही अपने लिए राजमार्ग बनाने का चलन है। ऐसे में जिंदगी की किताब के हिज्जे तो गलत होंगे ही। क्या करिएगा?