फिर से छपाक-छपाक पानी में उतरने का मन है!

0
1233

एक छाता हुआ करता था जिसे बन्द करने में अक्सर उंगली दब जाया करती थी, कराहते थे फिर भी बाजार और स्कूल में लेकर चले जाते थे। संभाल कर रखते बरसों बरस जैसे कोई मीठी याद हो और फिर एक दिन फटता, जर्जर होता और खत्म हो जाता जैसे चली जाती है स्मृतियां और छोड़ जाती है दुर्दिनों में हम सबको। फिर बरसाती आई आधी अधूरी औघड़ सी, पहले सर ढंका – जैसे ढंक ली जाती है लाज या इज्जत और यह भी अक्सर तेज पानी में भिगो ही देती थी और छूट जाती थी – लाज, हया, संकोच था नहीं, फिर बरसाती ने स्वरूप बदला- शर्ट अलग, पैजामा अलग – जो दो तरह से बचाती थी। पर यह भी एक दिन खत्म हो गयी, दीन हीन बनाकर बरसात सब ले उड़ी !!! अब ना छाते हैं, ना बरसाती और ना बची है हाय! सकुचाते हुए जीवन स्मृतिविहीन और निर्लज्ज हो गया है और कम्बख्त पानी भी झड़ीनुमा गिरता नहीं कि पड़ोसी से एक कटोरी शक्कर उधार मांग लाएं या दूध के अभाव में काली चाय पीना पड़े या मोहल्ले का पानी घर में घुस आए। तुम्हारी तड़प और बेचैनी की तरह चीरता हुआ सन्न से और एक दिन सुबह उठे हतप्रभ से और उलीचते रहे मग्गा दर मग्गा यादों की पोटलियां। यह समय के निस्तार और उचटने की आपाधापी में जीवन का सारा पानी निष्कपट सा होकर बह गया। आज एक छत के नीचे बरसाती के ढेर और ग्लोबल छातों के बीच बैठा, अपनी टूटी फूटी नाव के छेद बूरने की जद्दोजहद में लगा हूँ, तो वे बारीक कंकर नहीं मिल रहे जो मुस्कानों के खिलने से बिखर जाते थे और किसी भी नदी की पाल को रोककर खड़े हो जाते थे कि रुको, सुनो और ठहरो… और ध्यान से समाधिस्थ होने की कोशिश करो। मानो कह रहे हों कि जीवन यहीं से शुरू होता है, साँसों का कारोबार इन्ही क्षतियों और कश्तियों के बीच से होकर अपने प्रारब्ध को प्राप्त होता है। यही है छाता, बरसाती और जल की वे अनंतिम बूँदें जो सब कुछ स्वाहा कर भी दावानल में तब्दील नहीं होतीं, कोई ला दे मुझे एक रंग बिरंगा छाता, नीली भक्क बरसाती – फिर से एक बार छपाक-छपाक कर मटमैले पानी में उतर जाने का बहुत मन है!

————————–

(यह सामग्री हमने श्री संदीप नाइक की फेसबुक वॉल से ली है।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here