छठी के छात्र छेदी ने छत्तीस की जगह बत्तीस कहकर जैसे ही बत्तीसी दिखाई, गुरुजी ने छडी उठाई और मारने वाले ही थे की छेदी ने कहा, “खबरदार अगर मुझे मारा तो! मैं गिनती नही जानता मगर आरटीई की धाराएँ अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे गणित मे नहीं, हिंदी मे समझाना आता है।”
गुरुजी चौराहों पर खड़ी मूर्तियों की तरह जड़वत हो गए। जो कल तक बोल नही पाता था, वो आज आँखें दिखा रहा है!
शोरगुल सुनकर प्रधानाध्यापक भी उधर आ धमके। कई दिनों से उनका कार्यालय से निकलना ही नहीं हुआ था। वे हमेशा विवादों से दूर रहना पसंद करते थे। इसी कारण से उन्होंने बच्चों को पढ़ाना भी बंद कर दिया था। आते ही उन्होंने छडी को तोड़ कर बाहर फेंका और बोले, “सरकार का आदेश नही पढ़ा? प्रताड़ना का केस दर्ज हो सकता है। रिटायरमेंट नजदीक है, निलंबन की मार पड़ गई तो पेंशन के फजीते पड़ जाएँगे। बच्चे न पढ़ें न सही, पर प्रेम से पढ़ाओ। उनसे निवेदन करो। अगर कहीं शिकायत कर दी तो?”
बेचारे गुरुजी पसीने पसीने हो गए। मानो हर बूँद से प्रायश्चित टपक रहा हो! इधर छेदी “गुरुजी हाय हाय” के नारे लगाता जा रहा था और बाकी बच्चे भी उसके साथ हो लिए।
प्रधानाध्यापक ने छेदी को एक कोने मे ले जाकर कहा, “मुझसे कहो क्या चाहिए?”
छेदी बोला, “जब तक गुरुजी मुझसे माफी नही माँग लेते है, हम शाला का बहिष्कार करेंगे। बताएँ की शिकायत पेटी कहाँ है?”
समस्त स्टाफ आश्चर्यचकित था और उसमें भय का वातावरण व्याप्त हो चुका था। छात्र जान चुके थे कि उत्तीर्ण होना उनका कानूनी अधिकार है।
बड़े सर ने छेदी से कहा की मैं उनकी तरफ से माफी माँगता हूँ, पर छेदी बोला, “आप क्यों मांगोगे? जिसने किया वही माफी माँगे। मेरा अपमान हुआ है।”
आज गुरुजी के सामने बहुत बड़ा संकट था। जिस छेदी के बाप तक को उन्होंने दंड, दृढ़ता और अनुशासन से पढ़ाया था, आज उनकी ये तीनों शक्तियाँ परास्त हो चुकी थीं। वे इतने भयभीत हो चुके थे कि एकांत मे छेदी के पैर तक छूने को तैयार थे, लेकिन सार्वजनिक रूप से गुरुता के ग्राफ को गिराना नहीं चाहते थे। छड़ी के संग उनका मनोबल ही नहीं, परंपरा और प्रणाली भी टूट चुकी थी। सारी व्यवस्था नियम कानून एक्सपायर हो चुके थे। कानून क्या कहता है, अब ये बच्चों से सीखना प़ड़ेगा!
पाठ्यक्रम में अधिकारों का वर्णन था, कर्तव्यों का पता नहीं था। मालूम न था अंतिम पड़ाव पर गुरु द्रोण स्वयं चक्रव्यूह मे फँस जाएँगे!
वे प्रण कर चुके थे कि कल से बच्चे जैसा कहेंगे, वैसा ही वे करेंगे। तभी बड़े सर उनके पास आकर बोले, “मैं आपको समझा रहा हूँ। वह मान गया है और अंदर आ रहा है। उससे माफी माँग लो, समय की यही जरूरत है।”
छेदी अंदर आकर टेबल पर बैठ गया और हवा के तेज झोंके ने शर्मिन्दा होकर द्वार बंद कर दिए।
(कलम को चाहिए कि यहीं थम जाए। कई बार मौन की भाषा संवादों पर भारी पड़ जाती है।)
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यह कहानी हमें वाट्सएप पर प्राप्त हुई है। रचनाकार अज्ञात है।