गिरीश उपाध्याय
गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर 2002 में हुए आतंकवादी हमले के आपराधिक मुकदमे को लेकर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर पिछले दिनों वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया था। वैदिक जी का सवाल जानने से पहले यह जान लें कि वह मामला क्या था। दरअसल अक्षरधाम पर 14 साल पहले हुए हमले के बाद गुजरात में बड़े पैमाने पर संदिग्ध लोगों की धरपकड़ हुई थी। कई लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन पर आपराधिक मुकदमा चलाया गया। ये लोग दस साल से भी अधिक समय तक जेल में रहे। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद अदालत ने उन पकड़े गए लोगों में से छह लोगों को बेकसूर मानते हुए उन्हें बरी कर दिया।
बरी होने के बाद इन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट मे याचिका लगाई। उनकी याचिका में उठाया गया सवाल पूरी व्यवस्था को मथ देने वाला था। उन्होंने सवाल उठाया कि गलत तरीके से की कई कार्रवाई के कारण उनके जीवन के जो दस साल बरबाद हुए हैं, उसके बदले में उन्हें सरकार उचित मुआवजा दे। उन्होंने तर्क दिया कि उनके जीवन का जो समय बीत गया वो तो नहीं लौटाया जा सकता, लेकिन बेकसूर होने के बाद भी जो प्रताड़ना उन्हें भुगतनी पड़ी, उसकी भरपाई तो होनी ही चाहिए।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका मंजूर नहीं की, लेकिन उनके द्वारा उठाया गया सवाल यूं ही दरकिनार या दफ्न नहीं किया जा सकता। वैदिक जी ने इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा था कि ‘’किसी भी बेकसूर व्यक्ति को जेल में पटके रखने से बड़ा अन्याय क्या होगा? यह तो न्याय का मजाक है। उस बेकसूर आदमी को आप कोई उचित मुआवजा देना चाहें तो भी नहीं दे सकते। उसका गया वक्त लौटाने की हिम्मत सरकार में क्या, भगवान में भी नहीं है। इसीलिए अदालतों और सरकारों को बेकसूरों के मुआवजे का कोई न कोई इंतजाम जरुर करना चाहिए।‘’
गुजरात के अक्षरधाम हमले के बेकसूरों की मांग से मिलता जुलता एक और मामला हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत के सामने आया है। इसमें भी एक ऐसा ही पेचीदा मुद्दा उठाया गया है। यदि यह याचिका रद्द नहीं हुई, तो इस पर आने वाला फैसला देश की न्यायिक प्रक्रिया की दिशा ही मोड़ देगा। इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट से आपराधिक मामलों को लेकर चलने वाली प्रक्रिया की मियाद (एक्सपायरी डेट) तय करने की मांग की गई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रंजन गोगोई और प्रफुल्ल सी. पंत की खंडपीठ इस याचिका का परीक्षण करवाने पर राजी हो गई है।
यह मामला केरल के ट्रेड यूनियन लीडर मनकुन्निल सुरेश का है, जिन पर धोखाधड़ी का एक केस पिछले 24 साल से चल रहा है। पुलिस ने इतने साल हो जाने के बावजूद कोर्ट में चार्जशीट तक पेश नहीं की है। अब सुरेश के वकील ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई है कि न्यायिक प्रक्रिया की भी कोई तय मियाद या एक्सपायरी डेट होनी चाहिए और हरेक केस का लीगल ऑडिट होना चाहिए। ऐसा होने पर सालों साल चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया से लोगों को तो राहत मिलेगी ही, न्यायालयों पर काम का बोझ भी कम होगा।
मनकुन्निल सुरेश का कहना है कि उनके विरोधियों ने 1992 में राजनीतिक हिसाब किताब बराबर करने के लिए उन्हें धोखाधड़ी के एक मामले में फंसा दिया था। तब से पुलिस इस मामले की जांच ही कर रही है। इस केस के कारण पुलिस जांच में उलझने से उनका जीवन नरक हो गया है। सुरेश के वकील विल्स मैथ्यू ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21 यह अधिकार देता है कि किसी भी मामले में तेजी से सुनवाई होनी चाहिए ताकि व्यक्ति को अनावश्यक प्रताड़ना न झेलनी पड़े। संविधान की इस व्यवस्था का दायरा केवल अदालती प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह पुलिस जांच सहित उस मामले से जुड़ी अन्य एजेंसियों की कार्रवाई पर भी लागू होता है। 24 साल तक सिर्फ एफआईआर दर्ज करके रखना और अदालत में चार्जशीट प्रस्तुत न करना उनके मुवक्किल के बुनियादी अधिकारों का हनन है।
मनकुन्निल सुरेश के वकील ने अपने मुवक्किल के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने और उन्हें 25 लाख रुपए का मुआवजा दिलाने की मांग अदालत से की है। उन्होंने अदालत से कहा कि एक बार आपराधिक मामला दर्ज हो जाने के बाद समाज भी व्यक्ति को अलग ही नजर से देखने लगता है और उसकी प्रतिष्ठा पर आंच आती है। ऐसे मामलों को सालों साल नहीं खींचा जा सकता।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि केरल सरकार को नोटिस जारी करते हुए उसका जवाब मांगा है। लेकिन सुरेश की याचिका में उठाए गए सवालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आमतौर पर सामाजिक या सार्वजनिक अथवा राजनीतिक जीवन में काम करने वाले लोगों को इस तरह बदले की भावना से दर्ज कराए गए आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में यह प्रश्न बहुत अहम हो जाता है कि आखिर उन्हें कब तक दागी बनाकर रखा जाए।
जिस तरह सुप्रीम कोर्ट इन दिनों परंपरा से हटकर अपने फैसले दे रहा है उसके चलते इस दूरगामी असर वाले मामले पर उसके फैसले का इंतजार पूरे देश को रहेगा। यह फैसला न्याय व्यवस्था की मजबूती के लिहाज से ही अहम नहीं होगा, बल्कि देश में अभियोजन तंत्र की ज्यादती के चलते अपराधी या आतंकवादी बन जाने वाले लोगों की संख्या पर भी असर डालेगा।