“गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त,हमीं अस्त,हमीं अस्त,हमीं अस्त ।” –फारसी में मुगल बादशाह जहाँगीर के शब्द!
–जी हाँ यह कश्मीर की ही बात हो रही है। लेकिन यह धरती का स्वर्ग आज सुलग रहा है। हिन्दू और बौद्ध संस्कृतियों के पालन स्थान के चिनार आज जल रहे हैं। केसर की क्यारियों में बारूद की फसल उग रही है। हिजबुल आतंकवादी बुरहान वानी की 8 जुलाई 2016 को मुठभेड़ में हुई मौत के बाद से ही घाटी लगातार हिंसा की चपेट में है ।
खुफिया सूत्रों के अनुसार अभी भी कश्मीर में 200 आतंकवादी सक्रिय हैं। इनमें से 70% स्थानीय हैं और 30% पाकिस्तानी। बुरहान ने 16 से 17 साल आयु के करीब 100 लोगों को अपने संगठन में शामिल कर लिया था। किसी आतंकवादी की मौत पर घाटी में इस तरह के विरोध प्रदर्शन पहली बार नहीं हो रहे। 1953 में यहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुला को जेल में डालने के बाद कई महीनों तक लोग सड़कों पर थे।
इसी तरह कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष की शुरुआत करने वालों में शामिल जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापकों में से एक मकबूल बट को 11 फरवरी 1984 को फाँसी दी गई थी तो कश्मीरी जनता ने काफी विरोध प्रदर्शन किया था। 1987 में चुनावों के समय भी कश्मीर हिंसा की चपेट में था। 2013 में भारतीय संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को जब फाँसी दी गई तब भी कश्मीर सुलगा था।
बुरहान एक स्कूल के प्रिन्सिपल का बेटा था। मकबूल कश्मीर यूनिवर्सिटी से बी.ए. और पेशावर यूनिवर्सिटी से एम.ए. करने के बाद शिक्षक तथा पत्रकार के तौर पर काम कर चुका था। अफजल गुरु ने एमबीबीएस की पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी और भारत में आईएएस अफसर बनने का सपना देखा करता था।
लेकिन क्या एक साधारण सी घटना को अनावश्यक तूल नहीं दिया जा रहा? क्या देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त एक भटके हुए लड़के को स्थानीय नौजवानों का आदर्श बनाने का षड्यंत्र नहीं किया जा रहा? क्या यह हमारी कमी नहीं है कि आज देश के बच्चे बच्चे को बुरहान का नाम पता है लेकिन देश की रक्षा के लिए किए गए अनेक ऑपरेशन में शहीद हमारे बहादुर सैनिकों के नाम किसी को पता नहीं?
हमारे जवान जो दिन रात कश्मीर में हालात सामान्य करने की कोशिश में जुटे हैं उन्हें कोसा जा रहा है और आतंकवादी हीरो बने हुए हैं? एक अलगाववादी नेता की अपील पर एक आतंकवादी की शवयात्रा में उमड़ी भीड़ हमें दिखाई दे रही है, लेकिन हमारे सैन्य बलों की सहनशीलता नहीं दिखाई देती जो एक तरफ तो आतंकवादियों से लोहा ले रहे हैं और दूसरी तरफ अपने ही देश के लोगों के पत्थर खा रहे हैं।
कहा जा रहा है कि कश्मीर की जनता पर जुल्म होते आए हैं, कौन कर रहा है यह जुल्म? सेना की वर्दी पहन कर ही आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते हैं तो यह तय कौन करेगा कि जुल्म कौन कर रहा है? अभी कुछ दिन पहले ही सेना के जवानों पर एक युवती के बलात्कार का आरोप लगाकर कई दिनों तक सेना के खिलाफ हिंसात्मक प्रदर्शन हुए थे लेकिन बाद में कोर्ट में उस युवती ने स्वयं बयान दिया कि वो लोग सेना के जवान नहीं थे स्थानीय आतंकवादी थे। इस घटना को देखा जाए तो जुल्म तो हमारी सेना पर हो रहा है!
यह संस्कारों और बुद्धि का ही फर्क है कि कश्मीरी नौजवान ‘जुल्म’ के खिलाफ हाथ में किताब छोड़कर बन्दूक उठा लेता है और हमारे जवान हाथों में बन्दूक होने के बावजूद उनकी कुरान की रक्षा करते आए हैं। कहा जाता है कि कश्मीर का युवक बेरोजगार है तो साहब बेरोजगार युवक तो भारत के हर प्रदेश में हैं क्या सभी ने हाथों में बन्दूकें थाम ली हैं?
क्यों घाटी के नौजवानों का आदर्श आज कुपवाड़ा के डॉ. शाह फैजल नहीं हैं, जिनके पिता को आतंकवादियों ने मार डाला था और वे 2010 में सिविल इंजीनियरिंग परीक्षा में टाप करने वाले पहले कश्मीरी युवक बने? उनके आदर्श 2016 में यूपीएससी में द्वितीय स्थान प्राप्त करने वाले कश्मीरी अतहर आमिर क्यों नहीं बने? किस षड्यंत्र के तहत आज बुरहान को कश्मीरी युवाओं का आदर्श बनाया जा रहा है? दरअसल पैसे और पावर का लालच देकर युवाओं को भटकाया जा रहा है।
कश्मीर समस्या की जड़ें इतिहास के पन्नों में दफ़न हैं। आप इसका दोष अंग्रेजों को दे सकते हैं, जो जाते जाते बँटवारे का नासूर दे गए। नेहरू को दे सकते हैं जो इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए। पाकिस्तान को भी दे सकते हैं जो इस सब को प्रायोजित करता है। लेकिन मुद्दा दोष देने से नहीं सुलझेगा ठोस हल निकालने ही होंगे।
आज कश्मीरी आजादी की बात करते हैं क्या वे अपना अतीत भुला चुके हैं? राजा हरि सिंह ने भी आजादी ही चुनी थी लेकिन 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने हमला कर दिया था। तब उन्होंने सरदार पटेल से मदद मांगी थी और कश्मीर का विलय भारत में हुआ था।
कश्मीरी जनता को भारत सरकार की मदद स्वीकार है लेकिन भारत सरकार नहीं! प्राकृतिक आपदाओं में मिलने वाली सहायता स्वीकार है भारतीय कानून नहीं? केंद्र सरकार के विकास पैकेज मन्जूर हैं केंद्र सरकार नहीं? इलाज के लिए भारतीय डाक्टरों की टीम स्वीकार है भारतीय संविधान नहीं?
क्यों हमारी सेना के जवान घाटी में जान लगा देने के बाद भी कोसे जाते है? क्यों हमारी सरकार आपदाओं में कश्मीरियों की भरपूर मदद करने के बावजूद उन्हें अपनी सबसे बड़ी दुशमन दिखाई देती है? अलगाववादी उस घाटी को उन्हीं के बच्चों के खून से रंगते हैं, इसके बावजूद वे उन्हें अपना शुभचिंतक क्यों मानते हैं?
बात अज्ञान और दुषप्रचार की है। हमें कश्मीरी जनता को जागरूक करना ही होगा। अलगाववादियों के दुष्प्रचार को रोकना ही होगा। कश्मीरी युवकों को अपने आदर्शों को बदलना ही होगा। कश्मीरी जनता को भारत सरकार की मदद स्वीकार करने से पहले भारत की सरकार को स्वीकार करना ही होगा।
उन्हें सेना की वर्दी पहने आतंकवादी और एक सैनिक के भेद को समझना ही होगा। एक भारतीय सैनिक की इज्जत करना सीखना ही होगा। कश्मीरियों को अपने बच्चों के हाथों में कलम चाहिए या बन्दूक यह चुनना ही होगा।
यह स्थानीय सरकार की नाकामयाबी हो सकती है कि वह न स्थानीय लोगों का विश्वास जीत पा रही है, न हिंसा रोक पा रही है। लेकिन घाटी में चिनार खिलेंगे या जलेंगे इसका फैसला तो कश्मीरियों को ही करना होगा। झीलें पानी की बहेंगीं या उनके बच्चों के खून की, यह उन्हें ही चुनना होगा।