गिरीश उपाध्याय
दो साल पहले रेलवे बजट को लेकर एक टीवी चैनल पर चर्चा के दौरान जब मुझसे बुलेट ट्रेन और स्टेशनों व ट्रेनों को वाईफाई किए जाने जैसे प्रस्तावों पर प्रतिक्रिया पूछी गई तो मेरा जवाब था कि रेलवे का बुनियादी काम है यात्रा की सुविधा उपलब्ध कराना। लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार, तय दिनांक को, अपने तय स्थान के लिए आराम से यात्रा कर सकें,रेलवे को सबसे पहले इस पर ध्यान देना चाहिए। अभी तो यह स्थिति है कि आपको यदि कोई यात्रा करनी है तो उसके लिए महीनों पहले प्लान बनाना पड़ता है और उसमें भी जरूरी नहीं कि रिजर्वेशन कराने के दौरान आपको कन्फर्म टिकट मिल ही जाए।
बिहार में छठ पूजा पर, देश भर से अपने घरों को जाने वाले लोग किस तरह भेड़ बकरियों की तरह ठुंस कर बोगियों में यात्रा करते हैं यह हम सबने देखा है। हमने यह भी देखा है कि बोगी में जगह न मिलने पर लोग जान जोखिम में डालते हुए ट्रेन की छतों पर सफर करते हैं और ऐसे कई लोग दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। मेरा कहना था कि ये वाई फाई, आई फाई तो सब ठीक है,रेलवे यदि इतनी व्यवस्था ही कर दे कि लोग जब, जिस दिन, जिस ट्रेन से, जिस स्थान के लिए यात्रा करना चाहें वे ठीक से यात्रा कर सकें तो यही यात्रियों पर सबसे बड़ा अहसान होगा। हम ट्रेन में यात्रा करने के लिए लिए बैठते हैं, वहां वाई फाई से मोबाइल चलाने के लिए यात्रा नहीं करते।
आप सोच रहे होंगे कि मैं यह बेमौसम, रेल बजट पर बात क्यों कर रहा हूं? दरअसल रेल बजट की याद इसलिए आई क्योंकि वैसा ही प्रश्न मध्यप्रदेश और खासकर यहां की राजधानी भोपाल में पिछले दो दिनों में हुई भारी बारिश के कारण पैदा हुई स्थिति के बाद सामने आया है। नगर निगम और नगर पालिका जैसी संस्थाओं की भूमिका को लेकर फिर सवाल उठा है। और वह सवाल यह कि इन संस्थाओं का मूल काम क्या है? यदि वहां बैठे लोग भूल गए हों तो उन्हें याद दिलाना जरूरी है कि उनका मूल काम शहर का नियोजित विकास, वहां की साफ सफाई, पानी, स्ट्रीट लाइट, फायर ब्रिगेड, शहरी परिवहन जैसी व्यवस्थाओं का संचालन आदि है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे शहर के लोगों से जो टैक्स वसूलते हैं उसके बदले में इन व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से संचालित करते हुए और बेहतर बनाएं।
लेकिन पता नहीं इन दिनों कौनसा चलन चल पड़ा है कि ये संस्थाएं अपना मूल काम छोड़कर जाने कौन कौन से कामों व्यस्त हैं। उनसे वर्तमान शहर तो संभल नहीं रहा और वे स्मार्ट सिटी जैसे नए नए चोचले पाल रहे हैं। उनसे नालियां तो साफ होती नहीं और वे वाई फाई की बात कर रहे हैं, उनसे शहर की सड़कें तो संभलती नहीं और वे लाखों रुपए खर्च कर स्मार्ट साइकलें खरीद रहे हैं।
यह बात ठीक है कि भोपाल में शुक्रवार की रात हुई भारी बारिश ने कई सालों के रिकार्ड तोड़ दिए। 24 घंटे में 11 इंच से अधिक बारिश कोई मामूली बात नहीं है। ऐसी मूसलधार बारिश से तमाम सेवाओं का ध्वस्त हो जाना या उनका सामान्य न बने रहना स्वाभाविक है। लेकिन इस पूरे प्रसंग में जो स्वाभाविक नहीं है वो यह है कि आपने तमाम अनुमानों और चेतावनियों के बावजूद अपना सामान्य कर्तव्य तक नहीं निभाया।
एक छोटी सी, लेकिन मोटी सी बात को ही ले लीजिए। कई सालों से यह सामान्य रूटीन है कि बारिश से पहले शहर के नाले नालियों की अच्छी तरह सफाई कर दी जाती है, ताकि बारिश के समय वहां से पानी की निकासी ठीक तरह से हो और बस्तियों या घरों में पानी न भरे। लेकिन लानत है इस व्यवस्था पर कि उसने यह सामान्य जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभाई और उसका नतीजा यह हुआ कि राजधानी जैसी जगह में कई बस्तियां और मकान पानी में डूब गए।
भोपाल नगर निगम में आयुक्त रहे पूर्व प्रशासनिक अधिकारी देवीसरन ने 1986 के अपने संस्मरण बताते हुए याद दिलाया है कि निगम मानसून आने के दो ढाई महीने पहले नालों की सफाई आदि का काम पूरा कर लिया करता था। मोहल्ले के लोगों को ही इस बात के लिए राजी किया जाता था कि नालों पर कोई अतिक्रमण नहीं होगा। लेकिन आज शायद ही ऐसा कोई नाला हो जो अतिक्रमण से अछूता बचा हो।
इस तरह की प्राकृतिक आपदाएं आमतौर पर कच्ची, निचली और झुग्गी बस्तियों पर ज्यादा कहर ढाती हैं। ऐसी ज्यादातर बस्तियां नालों के आसपास खाली पड़ी जमीन पर अतिक्रमण कर बसा ली जाती हैं। इनके कारण बारिश के दिनों में पानी का प्रवाह रुकता है और फिर वह पानी अपना रास्ता तलाशता हुआ इन झुग्गियों को साथ लेकर ही आगे बढ़ता है।
बारिश की अभी शुरुआत ही हुई है। इस बार अच्छी बारिश का अनुमान है, यानी बारिश के रिकार्ड अभी और टूटेंगे। जरूरत इन ‘वोट बस्तियों’ के बारे में गंभीरता से सोचने की है। ‘जो जहां है उसे वहां से कोई माई का लाल नहीं हटा सकता’ जैसे फतवे जारी करने से पहले सोच लेना चाहिए कि हम वोट के लालच में इन गरीबों से परोक्ष रूप से यह तो नहीं कह रहे कि, जो जहां है उसकी कब्र वहीं बनेगी…