जहां तक मैं याद कर पा रहा हूं, कुछ साल पहले दो मशहूर अखबारों के बीच अपनी ब्रांडिंग को लेकर तीखा विज्ञापन युद्ध चला था। पहले एक अखबार ने शौचालय में वेस्टर्न कमोड की सीट पर बैठे एक व्यक्ति को अपना संस्करण पढ़ते हुए दिखाकर कमेंट किया था कि ‘’औरों के लिए कोई जगह नहीं बची है’’ (there is no room for others)। इसके जवाब में उसके प्रतिद्वंद्वी अखबार ने शौचालय को ही आधार बना कर पलटवार करते हुए कहा था- ‘’उनके लिए सिर्फ वही जगह बची है’’ (there is only room for them)। चूंकि यह किस्सा मैंने याददाश्त के आधार पर लिखा है इसलिए शब्दों में कुछ हेरफेर हो सकता है, पर भाव यही था।
इस विज्ञापन युद्ध की बात यूं याद आई कि इन दिनों केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक, शायद सारी योजनाएं शौचालय को आधार बनाकर ही गढ़ रही हैं। जिस तरह से सरकारों को सोते जागते शौचालय के सपने आ रहे हैं, उसके चलते हम कह सकते हैं कि या तो शौचालय के अलावा उनके पास दूसरा कोई मुद्दा ही नहीं या फिर अब हल करने के लिए सिर्फ और सिर्फ शौचालय का ही मुद्दा बचा है। ग्रामीण विकास से लेकर शिक्षा विभाग तक तमाम सारे विभाग इन दिनों आंख पर पट्टी बांधकर शौचालय शौचालय खेल रहे हैं।
और इसी अंधे खेल में एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल ने ऐतिहासिक फैसला किया है कि ‘’त्रि-स्तरीय पंचायतों के चुनाव में भाग लेने वाले उम्मीदवारों के घरों में फ्लश अथवा जलवाहित शौचालय होना अनिवार्य होगा। शौचालय के अभाव में वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे।‘’
समझ में नहीं आता कि सरकारें क्या ‘व्यावहारिकता’ नाम का शब्द ही भूल गई हैं या फिर उस पर काली स्याही फेर दी गई है। कोई भी सरकार किसी को जन प्रतिनिधि बनने से इस तरह कैसे रोक सकती है? भले ही वह पंचायत का चुनाव हो, लेकिन इस आधार पर किसी को चुनाव लड़ने से वंचित कैसे किया जा सकता है कि उसके घर शौचालय नहीं है। हमारे देश में चुनावों के दौरान पात्र और अपात्र की स्थिति तय करने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून मौजूद है। इस कानून के मुताबिक मोटे तौर पर किसी व्यक्ति को भी सिर्फ दो ही आधारों पर चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है और वे आधार हैं- या तो वह व्यक्ति किसी अपराध में दोषी सिद्ध होकर सजायाफ्ता हो या फिर वह मानसिक रूप से अस्वस्थ हो। आप सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आधारों पर कैसे किसी को चुनाव लड़ने से रोक सकते हैं? और वह भी लोकतंत्र की उस प्राथमिक इकाई पंचायत में, जहां सब जानते हैं कि, आजादी के 69 साल बाद भी हालात कोई बहुत ज्यादा अच्छे नहीं हैं।
आप ग्रामीण भारत की इस बुनियादी इकाई पर ही क्यों सारे डंडे चलाना चाहते हैं। क्या आप में ऐसे फैसले लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने वालों पर लागू करने की हिम्मत है? और सांसद या विधायक तो छोडि़ए, क्या आप किसी पार्षद पर ऐसा आदेश थोप सकते हैं? ऐसे आदेश थोपने से पहले जमीनी हालात तो जान लीजिए। आपको यदि पता न हो, तो मैं बताता हूं। कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। आपकी अपनी राजधानी भोपाल में, आपके अपने मंत्रालय भवन से मात्र तीन किलोमीटर दूर एक झुग्गी बस्ती है- अन्ना नगर। वहां के लोगों ने बरसों से बस्ती के ठीक सामने खाली पड़ी भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स की कई एकड़ जमीन को मुक्त शौचालय बना रखा है। पता नहीं आप तक वह गंध या दुर्गंध पहुंचती है या नहीं, लेकिन ठीक आपकी नाक के नीचे सैकड़ों लोग उस मुक्त शौचालय में उन्मुक्त भाव से जाकर बैठते हैं। तमाम लाव लश्कर मौजूद होने के बावजूद, जब आप, ‘सरकार माई बाप’ उस नित्य कर्म को नहीं रोक पाए, तो बेचारे गांव वालों पर ये जुल्म क्यों?
बंदे का अपना घर हो या न हो, घर में शौचालय बनाने की जगह हो या न हो और शौचालय बन जाए तो पानी का इंतजाम हो या न हो, बस यदि उसे चुनाव लड़ना है तो शौचालय बनवाना ही होगा। यह कौनसी तानाशाही है? आपकी ही घोषणा थी ना, कि हर गांव को पाइप लाइन से पानी दिया जाएगा। क्या वह काम हो चुका है? भीषण गरमी के दिनों में जब गांव का आदमी पीने तक के लिए बूंद बूंद पानी को तरसता हो, तो शौचालय बनवाकर भी वो क्या ‘रोप’ लेगा। क्या गांव का एक खेतिहर मजदूर जो बरसों से वहां रह रहा है, लेकिन जिसका अपना कोई घर न हो, क्या वह चुनाव नहीं लड़ सकता? और गांव का तो भूगोल भी अलग होता है, आप शौचालयों का स्वामित्व कैसे तय करेंगे?
और आखिर में सबसे बड़ी बात। क्या आपने इस तरह का फैसला करते समय पंचायत चुनाव करवाने के लिए जिम्मेदार राज्य निर्वाचन आयोग की कोई राय ली? मेरी पक्की जानकारी है कि आपने इस बारे में उनसे पूछा तक नहीं। तो क्या अब आप एक शौचालय के लिए निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं को दांव पर लगाने या उन्हें दरकिनार करने पर तुल गए हैं? क्या आप आश्वस्त हैं कि किसी ने यदि कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी तो वहां आपकी धज्जियां नहीं उड़ेंगी? मेरे विचार से विद्या बालन जी की भी यही राय होगी कि इन सब बातों पर आपने नहीं सोचा हो तो सोचिए…