रचना संसार में आज पढि़ए, महानगरीय सचाइयों को अलग नजरिए से टटोलतीं, रक्षा दुबे चौबे की दो लघु कहानियां-

 

 

 

 

पिज्‍जा

वह दुबली पतली है, मरी मराई सी। लगता है टी.बी. होगी, पर है नहीं। उसकी काठी ही ऐसी है। उम्र लगभग तीस पर पैंतालीस का आभास कराती हुई, सर के बाल खिचड़ी और ऐसे लटियाये जैसे बरसों से तेल पानी की बूँद न पड़ी हो।

दो तीन महीने बिना नागा काम किया तो लगा सही काम वाली बाई पा गई हूँ। पर…इसके बाद लगातार नागा।

घर पर बर्तन, साफ सफाई का बुरा हाल। एक तो सरकार की नौकरी दूसरी घर की ज़िम्मेदारी।

एक ऐसी ही सुबह जब अब तक के सीखे तमाम अपशब्दों को बड़बड़ाते, झींकते, खीझते बर्तन मल रही थी कि वह आई।

बर्तन लेने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया मैंने तमककर कहा, रोज़ रोज़ का नखरा नही चलेगा। काम छोड़ क्यों नहीं देती।

उसने भी रूखेपन से कहा पांच-पांच सौ रुपए में छः जगह काम करती हूँ दीदी, आप पैसा बढ़ा दो रोज़ आऊँगी।

तीन हज़ार कम पड़ते हैं तुझे, मकान का किराया नहीं लगता, बिजली पानी का पैसा भी नहीं, सरकार से सब मुफ़्त….फिर भी।

बेटी बीमार रहती है दीदी, सारा पैसा तो उसकी बीमारी में लग जाता है। घर पर और कोई कमाने वाला भी नहीं।

मेरा मन थोड़ा कोमल हुआ, बेटी तो मेरी भी है। अच्छा कितना पैसा और बढ़ा दूँ तेरा?

बस जितने में बेबी का एक पिज़्ज़ा आता है।

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विंडो शॉपिंग

“आखिर तुम्हे ये लड़का पसंद क्यों नहीं है। कोई कमी हो तो बताओ।”

मिसेज़ दुबे ने किंचित क्षोभ से महानगर में नौकरी पेशा अपनी तीस पार करती लाड़ली से पूछा।

“मैं तो तंग आ चुकी हूँ। बगैर किसी कारण के तुम बीसियों लड़कों को मना कर चुकी हो। आखिर चल क्या रहा है तुम्हारे दिमाग में?”

“बताने लायक तो ऐसी कोई कमी नहीं है, बस यूँ समझिये कि मन नहीं भर रहा है।”

महानगर की नवीन संस्कारित बेटी को देखते हुए मिसेज़ दुबे ने पहली बार ‘विंडो शॉपिंग’ का असली मतलब जाना।

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