टाइम्स नाऊ चैनल को दिए साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार से जुड़े सवाल का जवाब देते हुए कहा “बहुत सी ऐसी चीजें होती हैं, जो दिखाई नहीं देतीं हैं। कोई इस चीज़ को नहीं समझ सकता कि मैं किस तरह की गंदगी का सामना कर रहा हूँ। जो काम कर रहा है उसी को पता है कि कितनी गंदगी है। इसके पीछे कई तरह की ताकतें हैं।”
जब देश के प्रधानमंत्री को ऐसा कहना पड़े तो आम आदमी की व्यथा को तो आराम से समझा जा सकता है। भ्रष्टाचार के बारे में ऐसा पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने नहीं कहा है। इससे पहले राजीव गाँधी ने भी स्वीकार किया था कि भ्रष्टाचार के कारण एक रुपये में से सिर्फ बीस पैसे ही असली हकदार को मिल पाते हैं।
करप्शन भारत में आरम्भ से ही चर्चा एवं आन्दोलनों का प्रमुख विषय रहा है। और हाल के समय में यह चुनावों का भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन कर उभरा है। लेकिन देश की सबसे बड़ी चुनौती आज भ्रष्टाचार न होकर लोगों की यह मानसिकता हो गई है कि वे इसे सिस्टम का हिस्सा मानने लगे हैं। आचार्य चाणक्य ने कहा था कि जिस प्रकार जल के भीतर रहने वाली मछली जल पीती है या नहीं यह पता लगाना कठिन है, उसी प्रकार सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट आचरण करते हैं या नहीं यह पता लगाना कठिन कार्य है।
पूरे देश में अपनी जड़े फैला चुके भ्रष्टाचार की शुरुआत ब्रिटिश शासन में हुई थी और वे ही इसे हमारे नेताओं को विरासत में देकर गए। अंग्रेजों के समय से ही न्यायालय शोषण के अड्डे बन चुके थे, शायद इसीलिए गांधी जी ने कहा था कि अदालतें न हों तो हिन्दुस्तान में न्याय गरीबों को मिलने लगे।
आज़ाद भारत में घोटालों की शुरुआत नेहरू युग में 1948 में सेना के लिए हुई जीप खरीदी से मानी जा सकती है, यह घोटाला 80 लाख रुपए का था। तब के हाई कमिश्नर वी.के. मेनन ने 200 जीपों के पैसे दे कर सिर्फ 155 जीपें लीं थी। आज घोटालों की संख्या बढ़ने के साथ ही उनसे जुड़ी रकम भी अरबों रुपए में पहुंच गई है। 21 दिसंबर 1963 को संसद में डॉ. राम मनोहर लोहिया का एक भाषण आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने कहा था- गरीब तो दो चार पैसे के लिए बेईमान होता है, लेकिन बड़े लोग लाखों करोड़ों के लिए बेईमान होते हैं। हमारी योजनाएं नीचे के 99% प्रतिशत लोगों का जीवन स्तर उठाने के लिए नहीं, वरन् आधा प्रतिशत लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए बनती हैं। आज नौकरशाही से लेकर राजनीति, न्यायपालिका, मीडिया, पुलिस सभी में भ्रष्टाचार व्याप्त है। 2015 में भारत 176 भ्रष्ट देशों की सूची में 76 वें पायदान पर था। 2005 में ट्रान्सपेरेन्सी इन्टरनेशनल ने पाया था कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम कराने के लिए रिश्वत या ऊँचे दर्जे का प्रभाव इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग तभी जीती जा सकती है जब आम आदमी इसे स्वीकार करने के बजाय इसका विरोध करे।
किसी भी सरकारी विभाग में बिना रिश्वतत के काम होता ही नहीं। जिस देश के कुएं कागजों पर खुद जाते हों, डिग्रियाँ घर बैठे मिल जाती हों, जहाँ चेहरे देखकर कानून का पालन किया जाता हो, वहां भ्रष्टाचार ख़त्म करना आसन नहीं होगा। प्रधानमंत्री द्वारा अपने वक्तव्य में जाहिर की गयी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है ।
बिहार का टॉपर घोटाला और मध्यप्रदेश का व्यापमं घोटाला यह बताने के लिए काफी है कि किस प्रकार डिग्रियाँ खरीदी और बेची जा रही हैं। हमारे नेता संघ मुक्त भारत अथवा कांग्रेस मुक्त भारत के नारे तो बहुत लगाते हैं, काश सभी एकजुट होकर भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा भी लगाते। कभी राजनीति से ऊपर उठकर देश के बारे में ईमानदारी से सोचते।