जब भारतीय संविधान की रचना हो रही थी तो हमने विश्व के सारे संविधान की अच्छाई चुनकर अपने संविधान में समाहित की थी। कुल मिलाकर हमने भारत के लिऐ “जन कल्याणकारी राज्य” की अवधारणा को अपनाया था। लेकिन हकीकत में जन कल्याणकारी राज्य की अवधारणा तो भाड़ में गई अब हमारी सभी सरकारें (बिहार-गुजरात को छोड़कर) शराब बेचकर राजस्व जुटाने में लगी हुई है। शराब से राजस्व कमाने के लालच में सरकारें कितनी ‘निर्लज्ज’ होती जा रही हैं, इसकी बानगी ‘नेशनल और स्टेट हाइवे’ पर बढ़ती सरकारी शराब की मान्यता प्राप्त दुकानें हैं। इन दुकानों के बाहर आकर्षक लाइटिंग के साथ शराब के विभिन्न ब्रांड्स के बडे़ बडे़ बोर्ड लगे होते हैं, जो वहां से गुजरने वाले वाहन चालकों को खुले आम न्योता देते हैं कि ‘आइए, यहां से शराब खरीदिए, पीजिए और हादसों की राह पर बढ़ जाइए।‘ हादसे के बाद देश का कोई भी परिवार भले ही बर्बाद हो जाए, वाहन चालक का परिवार अनाथ हो जाए, लेकिन सरकार को सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब है। खुद सरकार के ही आंकड़े बताते है कि उन शराब ठेकों से ज्यादा आय होती है, जो सडक किनारे होते है। दूसरी तरफ ‘नेशनल क्राइम कंट्रोल रिकॉर्ड ब्यूरो” के आंकड़े कहते है कि देश भर में शराब पीकर वाहन चलाकर हादसों का शिकार होने वालो की संख्या साल भर में लाखों होती है। यानी प्रतिमाह हजारों लोग सिर्फ इसलिए हादसों में मारे जाते हैं, क्योंकि सरकारों को भारी भरकम राजस्व कमाना है। इसीलिए वह राजमार्गों पर, सड़क किनारे शराब के बहाने मौत की सुविधा मुहैया कराती है। यह सरकार के स्तर पर किया जाने वाला ऐसा खुला ‘नरसंहार’ जिस पर कोई कुछ नहीं बोलता। सरकारें यह कुतर्क कर सकती हैं कि उन्होंने सिर्फ दुकानें खोलने की अनुमति दी है, वहां किसी को पीने के लिए बाध्य तो नहीं किया जा रहा? तो क्या इसी तर्ज पर सरकारें किराने की दुकानों पर खुलेआम जहर या तेजाब बेचने की भी अनुमति देगी? क्योंकि वहां भी दुकानदार तो किसी को ये सामान खरीदने के लिए मजबूर नहीं करता?
अगर सरकारों को अपने ही देश के नागरिकों की चिंता है, तो कम से कम वह इतना तो कर ही सकती है कि, राजमार्गों के किनारे सरेआम मौत का घूंट पिलाने वाले इन ठेकों को वहां से हटा दे। हां, यदि उसने शराब बिकवाने के साथ साथ मौत का भी ठेका ले लिया हो तो बात अलग है।