तो अब तय हो गया है कि मध्यप्रदेश के दस साला मुख्यमंत्री शिवराजसिंह, अपने तीसरे कार्यकाल का पहला मंत्रिमंडल विस्तार करने जा रहे हैं। निश्चित रूप से मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी के लोगों के लिए और उसमें भी लंबे समय से मंत्री पद की आस लगाए बैठे ‘आशा कार्यकर्ताओं’ के लिए यह बड़ी घटना है। विधानसभा सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत के हिसाब से राज्य में मंत्रियों की संख्या 35 तक हो सकती है और शिवराज केबिनेट में अभी एक दर्जन ‘शायिकाओं’ के लिए जगह बची है। इनके लिए लोगों ने लंबे समय से बुकिंग करा रखी थी और वेटिंग लिस्ट में उनका टिकट कन्फर्म ही नहीं हो रहा था। बताया जा रहा है कि इस बार 8-9 शायिकाओं पर वेटिंग का टिकट कन्फर्म हो जाएगा।
शिवराजसिंह ने मध्यप्रदेश की राजनीति में और खासतौर से भाजपा की राजनीति में वो मुकाम हासिल कर लिया है, कि इस तरह के राजनीतिक अनुष्ठान उनके लिए कोई मजबूरी नहीं रह गए हैं। इसीलिए साल डेढ़ साल से भले ही भाई लोग तरह तरह से दबाव बनवा रहे हों, चिरौरी और मस्केबाजी की प्रतिस्पर्धा चल रही हो लेकिन शिवराज को कोई फर्क नहीं पड़ा। जिस तरह से प्रदेश में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का सिक्का जमवा रखा है, उसके चलते हाईकमान भी शायद इस स्थिति में नहीं है कि, उन पर दबाव डलवा कर कोई काम करवा सके। खुद की यह हैसियत शिवराज ने दो तरह की रणनीति अपनाकर बनाई है। पहली रणनीति उनकी विनम्रता है। आज के राजनीतिक माहौल में, यह बात सुनने में अजीब लग सकती है, लेकिन वास्तव में शिवराज ने विनम्रता को ‘तलवार और ढाल’ दोनों रूपों में इस्तेमाल किया है। अपनी सहजता और विनम्रता का कब और कैसे इस्तेमाल करना है इस हुनर का, ऐसा सिद्धहस्त, दूसरा कोई योद्धा फिलहाल भारतीय राजनीति में दिखाई नहीं देता।
शिवराज की दूसरी रणनीति अपने राजनीतिक चातुर्य और मैदानी पकड़ का बखूबी इस्तेमाल करना है। पुरानी कहावत है कि- अंधा क्या चाहे, दो आंखें। उसी तरह राजनीति क्या चाहे- जीत! शिवराज में चुनाव जिताने की अद्भुत क्षमता है और अपवादों को छोड़ दें, तो शिवराज ने अकेले अपने बूते पर पार्टी को लगभग हर चुनाव जितवाया है। ऐसे में कोई उनको खारिज करे भी तो कैसे? यही कारण है कि मध्यप्रदेश में भाजपा का संगठन और भाजपा की सरकार- ‘मेरी मर्जी’ की लाइन पर बखूबी चल रही है।
इसीलिए मैने कहा कि मंत्रिमंडल का विस्तार शिवराज के लिए कोई मजबूरी न था और न है। और यदि वे ऐसा करने जा रहे हैं, तो इसका अर्थ यही है कि कुछ लोगों पर मेहरबान होने का उनका ‘मन’ हो गया है। अब इस मेहरबानी में वे किसको नवाजेंगे और किसको छोड़ेंगे, जातीय समीकरण साधेंगे या क्षेत्रीय समीकरण, ये सब बातें सेकंडरी हो जाती हैं। शिवराज की जिन स्वभावगत विशेषताओं का जिक्र मैंने ऊपर किया शायद यह उनका ही परिणाम है कि, श्यामला हिल से आने वाली हवाएं सभी के लिए ‘बगरौ बसंत है’ का संकेत दे रही हैं। केबिनेट में अभी पतझड़ का मौसम नहीं आने वाला। यानी किसी को बाहर का रास्ता दिखाने जैसी कोई बात नहीं है। लंबे समय से बंद यह दरवाजा खुला भी है तो, सिर्फ आगमन के लिए, निर्गम के लिए नहीं। राज्यपाल महोदय की तबियत ठीक रही तो कुछ लोगों के लिए इस बार मानसून का कोटा आषाढ़ में ही पूरा हो जाएगा।
लेकिन मेरा सवाल दूसरा है। मंत्रिमंडल विस्तार से मुख्यमंत्री का कुनबा बढ़ जाएगा, महीनों से कुर्सी पर टकटकी लगाए लोगों के लिए कुर्सी तो क्या, सोफा, डबलबेड आदि सब की व्यवस्था हो जाएगी। थोड़े दिन बाद कुछ और लोग लालबत्ती और हूटर लगी चमचमाती गाडि़यों में, इस प्रदेश की जो भी हैं, जैसी भी हैं, सड़कों पर फर्राटे भरने लगेंगे। लेकिन इस विस्तार से प्रदेशवासियों को क्या मिलेगा? उनका ऐसा कौनसा भला हो जाएगा? प्रदेश का ऐसा कौनसा काम है, जो आठ नौ लोगों के न होने से अटका पड़ा था और उनके आ जाने से, चोक हो गईं वे सारी नालियां खुल जाएंगी। जाहिर है, नए लोगों को बाकी ‘तमाम वजहों’ के साथ-साथ या तमाम वजहों के ‘बावजूद’ इसलिए भी तो लाया जा रहा होगा ना, कि उन्हें कोई काम दिया जाएगा। तो या तो वो काम अभी तक नहीं हो रहा था, जो अब होने लगेगा। या फिर अभी जो लोग थे, वे उस काम को नहीं कर पा रहे थे, इसलिए वह काम करवाने वास्ते नए लोगों को लाने की जरूरत महसूस हुई। ऐसे में कोई यदि यह पूछे तो क्या गलत है कि, नए लोगों की बात तो ठीक है, पर वो लोग जो अभी मंत्री बने बैठे हैं और अपने कामों को ठीक से अंजाम नहीं दे पा रहे हैं, उनका बोझ इस प्रदेश की जनता क्यों ढोए? और कब तक ढोए? यह तो कोई बात नहीं हुई कि काम करो तो भी लालबत्ती और न करो तो भी लालबत्ती। आपके लिए तो यह सिर्फ ‘लाल’ बत्ती है, लेकिन जरा इस पाले में खड़े होकर देखिए, यहां से वह ‘ईस्टमेन कलर’ में नजर आती है और उतने ही रंग और रंगत के साथ जनता पर भारी पड़ती है…!
गिरीश उपाध्याय