मध्यप्रदेश में पिछले कुछ सालों की तरह इस बार भी ‘स्कूल चलें हम’ अभियान चलाया जा रहा है। इसकी असलियत जानने से पहले आंकड़ों की जुबानी कागजी हकीकत समझ लीजिए और उसके बाद जानिए जमीनी हकीकत…
निश्चित रूप से साक्षरता किसी भी प्रदेश के विकास मानकों का एक महत्वपूर्ण कारक है और इस दिशा में सबसे पहले और सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। यह इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि सरकार की कई योजनाओं से लेकर सामाजिक आर्थिक ढांचे तक का सीधा संबंध लोगों के पढ़े लिखे होने से है।
मध्यप्रदेश के बारे में केंद्र सरकार का साक्षरता पत्रक (स्टेटस ऑफ लिटरेसी) बताता है कि पिछली जनगणना वाले दशक में राज्य की साक्षरता दर बढ़ने की गति काफी धीमी रही है। आंकड़ों के लिहाज से देखें तो 1981 की जनगणना के समय राज्य की साक्षरता दर 38.6 प्रतिशत थी जो 1991 में 44.7, 2001 में 63.7 और 2011 में 70.6 फीसदी रही। यानी 1991 से 2001 के दशक में राज्य की साक्षरता दर में गजब का उछाल आया और यह 19 प्रतिशत बढ़ी। उसके बाद 2001 से 2011 के दशक में इसका ग्राफ बहुत तेजी से गिरा और साक्षरता की दर में वृद्धि 6.9 प्रतिशत ही रह गई।
स्त्री पुरुष अनुपात के लिहाज से देखें तो 1991 में पुरुष साक्षरता 58.5 प्रतिशत और महिला साक्षरता 29.4 प्रतिशत थी। यानी दोनों के बीच 29.2 फीसदी का अंतर था। 2001 में यह अंतर 25.8 और 2011में 20.5 रह गया। 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में पुरुष साक्षरता 80.5 और महिला साक्षरता 60 प्रतिशत थी। यानी पांच साल पहले तक भी प्रदेश में स्त्री और पुरुष साक्षरता के बीच 20 प्रतिशत से अधिक का अंतर था। यह अंतर बताता है कि समाज में बेटियों को पढ़ाने के प्रति जागरूकता लाने की दिशा में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है।
जिन लोगों को मोटे मोटे या भारी भरकम आंकड़े भयभीत करते हैं या जिन्हें आंकड़ों से भयभीत होना चाहिए, उनके लिए एक और आंकड़ा ध्यान देने लायक है। 2001 में प्रदेश में अनपढ़ लोगों की संख्या एक करोड़ 79 लाख 73 हजार 246 थी जो 2011 में बढ़कर एक करोड़ 82 लाख 22 हजार 77 हो गई। इस दशक में अनपढ़ लोगों में हुए इस इजाफे को महिला पुरुष के नाते से देखें तो अनपढ़ पुरुषों की संख्या में जहां सिर्फ 56 हजार 295 का इजाफा हुआ, वहीं अनपढ़ महिलाओं की संख्या उसकी करीब तीन गुना ज्यादा यानी एक लाख 92 हजार 536 रही। यही हाल शहरी और ग्रामीण क्षेत्र की साक्षरता है। यहां भी करीब 20 प्रतिशत का अंतर है।
‘स्कूल चलें हम अभियान’ की शुरुआत वाजपेयी सरकार के समय 2000-01 में हुई थी। शिक्षा को मौलिक अधिकार मानते हुए पूरे देश में सर्वशिक्षा अभियान के तहत यह तय किया गया था कि 6 से 14 साल तक के बच्चों की स्कूलिंग अनिवार्य रूप से हो। इस लिहाज से देखें तो इस अभियान का यह सोलहवां साल है। मध्यप्रदेश के जो तथ्य यहां गिनाए गए हैं वे इस अभियान की अहमियत को रेखांकित करते हैं।
अब जरा वास्तविकता पर आ जाएं। जिस समय प्रदेश में यह अभियान चल रहा है, उस समय राजधानी भोपाल में मैं एक अहम घटना का गवाह बना। तीन दिन पहले दो महिलाओं ने घर का दरवाजा खटखटाया। पूछने पर उन्होंने कहा कि वे भोपाल नगर निगम की तरफ से आई हैं और आधार कार्ड आदि के बारे में जानकारी लेना चाहती हैं। आवश्यक जानकारी देने के बाद मैंने पूछा कि क्या आप नगर निगम की कर्मचारी हैं, तो बड़े हिचकिचाते हुए उन्होंने कहा- ‘’नहीं हम दोनों तो टीचर हैं।‘’ चौंकते हुए मैंने पूछा- ‘’तो आपको इस काम में क्यों और कब से लगाया गया है?’’ उन्होंने बताया कि वे कई दिनों से इस इलाके में घर घर जाकर यही काम कर रही हैं। जब मैंने यह जानना चाहा कि फिर आपके स्कूल के काम का और बच्चों की पढ़ाई का क्या होता होगा, तो उन्होंने बहुत ही निराश स्वर में कहा- ‘’क्या करें, ऊपर से आदेश हैं कि यह काम करना है, तो यह काम कर रहे हैं। रोज इसमें ही तीन चार घंटे लग जाते हैं, यहां से फिर स्कूल जाते हैं। पढ़ाई लिखाई छोड़ कर अभी तो ये फार्म भरवाने में व्यस्त हैं।‘’ मैंने जब उनसे कुछ और पूछना चाहा तो उन्होंने बड़े ही दयनीय भाव से यह कहते हुए माफी मांग ली कि प्लीज इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कह सकते। हमारी नौकरी का सवाल है।
सवाल उन दो महिलाओं की नौकरी का हो या न हो, लेकिन एक सवाल मैं इस सरकार से और इस सरकार की व्यवस्था चलाने वालों से पूछना चाहता हूं कि आखिर आपके विकास का मॉडल क्या है? क्या इतनी मोटी सी बात भी किसी की बुद्धि में नहीं आ सकती कि, जब सरकार खुद बच्चों को स्कूल में लाने का अभियान चला रही हो, उस समय शिक्षकों को आधार कार्ड की जानकारी जुटाने के काम में लगाने का तुक क्या है? आखिर यह फैसला किस ‘बुद्धिमान’ ने किया। और यदि ऐसे ही ‘बुद्धिमानों’ के भरोसे यह व्यवस्था चल रही है,तो फिर इस अभियान का भगवान ही मालिक है। अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि स्कूल चलने की कहने वाला यह अभियान किस ‘जंगल’ में जाकर खत्म होगा?
गिरीश उपाध्याय