मध्यप्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। हाल ही में रीवा में हुई मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश कार्यसमिति की बैठक के भीतर से जो खबरें छनकर बाहर आई हैं, वे कहती हैं कि वहां भी यह मुद्दा गरमाया रहा। बैठक में कई लोगों ने इस मामले पर चर्चा करानी चाही। उनका कहना था कि क्या हम इस मुद्दे पर बात भी नहीं कर सकते? मामला बढ़ता देख इशारों इशारों में फैसला हुआ और सभी को अध्यक्षीय डंडे से यह कहते हुए चुप करा दिया गया कि इस मामले पर कोई चर्चा नहीं होगी। बाद में प्रस्ताव पारित हुआ कि पदोन्नति में आरक्षण के मामले पर पार्टी सरकार के साथ है और सरकार अपने रुख पर कायम है।
बैठक के दूसरे दिन मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने सरकार पर लग रहे इन आरोपों सफाई दी कि सरकार कर्मचारियों में भेदभाव कर रही है। उन्होंने कहा कि मां भी उस बच्चे को ज्यादा दूध पिलाती है, जो कमजोर होता है। सरकार कमजोर एवं वंचित वर्ग की भलाई के लिए प्रतिबद्ध है और ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है। इससे पहले मुख्यमंत्री भोपाल में अनुसूचित जाति जनताति वर्ग के कर्मचारी संगठन ‘अजाक्स’ के मंच से यह ऐलान कर चुके है कि ‘’राज्य सरकार पदोन्नति में आरक्षण की पक्षधर है और मेरे रहते कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता।‘’
रीवा में तो पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने मामले को जैसे तैसे दबा दिया लेकिन रविवार को यह मुद्दा भोपाल में फिर खड़ा हो गया जब विवादास्पद अधिकारी रमेश थेटे ने कर्मचारियों के नए संगठन का ऐलान किया। इस मौके पर राज्य के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक आजादसिंह डबास ने कहाकि सरकार ‘माई का लाल’ जैसे बयान देकर किसी एक पक्ष के साथ कैसे खड़ी हो सकती है। यह कर्मचारियों में फूट डालने का प्रयास है।
निश्चि रूप से डबास ने जो बात कही है, वह तूल पकड़ेगी। क्योंकि वे अभी शासन की सेवा में हैं और उन्होंने एक तरह से सीधे सीधे मुख्यमंत्री की कार्यशैली पर उंगली उठाई है। शासन तंत्र में इस तरह के व्यवहार को सेवा नियमों के उल्लंघन से लेकर कई तरह के कदाचरणों के दायरे में लाया जा सकता है। हो सकता है ऐसी कोशिशें आने वाले दिनों में हों भी।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि सरकार अपनी ही पार्टी संगठन के लोगों से लेकर अपने मातहत कर्मचारियों तक के मुंह कब तक बंद कराती रहेगी। कब तक उन्हें इस मुद्दे पर बोलने से रोका जाता रहेगा। चूंकि हाल ही में हुए ऐसे मामलों में सरकार के मापदंड भी अलग अलग रहे हैं, इसलिए यह कहना भी मुश्किल है कि डबास के बयान पर सरकार का रुख क्या होगा। क्योंकि बड़वानी जिले के कलेक्टर अजय गंगवार को ऐसी ही एक बयानबाजी पर सजा का सामना करते हुए कलेक्टरी गंवानी पड़ी थी वहीं उसके विपरीत उसी तरह के मामले में रतलाम जिले की एक तहसीलदार अमितासिंह को ‘प्रशसंकों की फौज’ सिर पर उठाए घूम रही है।
दरअसल पदोन्नति में आरक्षण मामले पर असली दिक्कत सरकार के स्टैण्ड को लेकर है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि वंचितों को उनका हक मिलना ही चाहिए और जो कमजोर हैं उनकी मदद भी होनी चाहिए। यह भी ठीक है कि मां कमजोर बच्चे का ज्यादा ध्यान रखती है और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। लेकिन मां ऐसा भी तो नहीं करती कि कमजोर बच्चे पर ध्यान देने के दौरान दूसरे बच्चों को भूखा मर जाने दे। मां के लिए तो सब बच्चे बराबर होते हैं। हमने इसी कॉलम में लिखा था कि सरकार भी अपने कर्मचारियों की ‘कस्टोडियन’ होती है। कर्मचारियों में भले ही अजाक्स और सपाक्स जैसे धड़े हों, लेकिन सरकार यह कैसे कह सकती है कि वह अमुक धड़े के साथ है।
और फिर यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है। इसमें जो भी फैसला होगा, वह केवल दो स्तरों पर ही हो सकता है। या तो सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था पर बहुत ही स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करे या फिर संसद इस मामले में किसी संविधान संशोधन को पारित करे। फिलहाल तो दोनों ही स्थितियां नहीं हैं।
तो फिर सरकार यह सब जानते बूझते क्यों ओखली में सिर दे रही है? दरअसल असली पेच इसी सवाल के जवाब में छिपा है। और वो यह है कि सरकार और उसके सलाहकार भी यह मानकर चल रहे हैं कि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्टे भले ही दे दिया हो, लेकिन अंतिम फैसला सरकार के हक में आने के आसार कम ही हैं। ऐसा इसलिए भी है कि, सुप्रीम कोर्ट पहले ठीक इसी तरह के दो मामलों में, पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था को अनुचित मान चुका है। शायद भाजपा की रणनीति यह है कि, यदि कोर्ट का फैसला विपरीत आया तो सामान्य वर्ग की मनचाही तो वैसे ही हो जानी है, ऐसे में तब तक आरक्षित वर्ग के प्रति सहानुभूति दिखाते रहने में में हर्ज ही क्या है। लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि राजनीति के ऐसे ही खेल कभी कभी बहुत भारी पड़ जाया करते हैं।
गिरीश उपाध्याय