देश की राजनीति में आरक्षण नाम का जिन्न अपने चिराग से निकलकर अक्सर राजनेताओं को डराया करता है। इस वक्त मध्यप्रदेश में ये जिन्न जातीय राजनीति को खासा गरमा रहा है। खौफ ऐसा है कि मृदुभाषी समझे जाने वाले मुख्यमंत्री को भी ताल ठोंककर कहना पडा कि उनके रहते कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता। अब आरक्षण समर्थक और विरोधी दोनों ही अपने-अपने तर्कों की धार तेज कर तलवार भांजने के लिये मैदान में हैं। तमाम टेलीविजन चैनलों और अखबारों में आरक्षण की सार्थकता को लेकर विचारोत्तेजक चर्चाऐं जारी है। ऐसे महौल में मुझे चंद महीनों पहले मेरे साथ घटा ऐसा ही वाकया याद आ रहा है जहाँ मैं न चाहते हुए भी ऐसी ही एक बौद्धिक चर्चा का हिस्सा बन गया।
रिजर्वेशन, डेमोक्रेसी, कॉन्स्टीट्यूशन, इंटेलेक्चुअल… जैसे शब्द मुझे हमेशा से आतंकित करते आए हैं.. वैसे कुछ भारी-भरकम लफ्ज और भी है.. जैसे बैकवर्ड, सेक्यूलरिज्म, कम्यूनलिज्म, कास्टिज्म, इंटॉलरेंस.. इस प्रकार के शब्द सुनते ही मेरे कान कुछ ऐसे खडे हो जाते हैं मानो जंगल में चीतल ने बाघ की आहट सुन ली हो.. लेकिन फिलहाल मेरे सामने इन लफ्जों से भी बडा आतंक लगातार भौंक रहे दो अलसेशियन कुत्तों के रूप में खड़ा था.. गले में बंधी चेन को पूरी ताकत खींच रहे ये कुत्ते यदि चेन तोड दें तो..? केवल इस कल्पना से ही मैं सिहर उठा.. वैसे “बीवेयर ऑफ डॉग्स” का बोर्ड लगे बंगलों में घुसने के नाम पर हमेशा ही मेरी घिग्गी बंध जाती है..(बचपन में जब गणपति का चंदा मांगने जाते थे तो इस बोर्ड के बावजूद घंटी बजाने का साहस करने वाले साथी का रुतबा बढ जाया करता था) लेकिन यहाँ तो मैं चंदा मांगने नहीं आया था.. बाकायदा आमंत्रित किया गया था.. घर इंटेलेक्चुअल का था और महफिल भी इंटेलेक्चुअल्स की ही थी.. जाने मुझे क्यों और कैसे इस महफिल के योग्य माना गया.. खैर, गलतफहमी किसे नहीं होती .. मौका मिला, तो मैं भी लपक लिया.. नर्म हरी घास के लॉन से लगे पोर्च में अर्दली पाइप लगाकर साहब की स्कोडा और सरकारी एंबेसेडर धो रहा था.. बरामदे से होते हुए मैं बैठक के कमरे में पहुँचा.. महफिल शुरू हो चुकी थी.. मेजबान ने काफी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया.. महफिल में मौजूद बाकी लोगों से औपचारिक परिचय हुआ.
मेजबान ने पूछा- “व्हॉट विल यू प्रिफर”
दिसंबर के महीने की कड़ाके की ठंड थी.. ऐसे में आमतौर पर मैं रम ही पीता हूँ, लेकिन यहाँ तो किसी के ग्लास में रम नहीं है.. शायद इंटेलेक्चुअल्स में रम पीना ‘चीप’ समझा जाता हो.. इंफिरियरिटी कॉम्पलेक्स के पहाड़ तले दबे हुए स्वर में मैंने कहा-“एनिथिंग..”
“यू मस्ट हैव ग्लैनफिडिच सिंगल मॉल्ट.. अभी लास्ट मंथ ही मेरे फॉदर इन लॉ ने एमस्टर्डम से भेजी है.. यू नो आई लव ओन्ली सिंगल मॉल्ट..”
मैं सोचने लगा कि ये एम्सस्टर्डम है किस देश में..? इसके ससुर इसे शराब की बोतल तोहफे में भेजते हैं..और एक हम हैं जिन्हें नारियल के साथ शर्ट और पैंट पीस के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ..
मेजबान एक बेहद खूबसूरत बोतल को चौडे़ पेंदे के एक स्टाइलिश ग्लास में उडेलने लगा.. मुझसे पूछा- “ऑन द रॉक्स”
गुनगुने पानी में रम पीने वाले के लिए ये सवाल अनपेक्षित था, मैंने जवाब देने में कुछ वक्त लगा दिया, जिसे मेजबान ने मेरी सहमति माना और गिलास में बर्फ के कुछ टुकडे डालकर मुझे थमा दिया..
सामने एलईडी स्क्रीन पर अंग्रेजी न्यूज एंकर मोहन भागवत के किसी बयान पर ज्ञानियों से पैनल डिस्कशन कर रहा था.. अंग्रेजी पैनल डिस्कशन में वक्ता चीख-चीख कर रिजर्वेशन, कास्टिज्म, कॉन्स्टीट्यूशन जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहे थे.. जैसा कि मैंने आपको पहले ही बताया है कि मुझे इन लफ्जों का फोबिया है.. और वहीं हुआ जिसका मुझे डर था.. टीवी से होती हुई भारी-भरकम शब्दों की वह चर्चा महफिल में समा गई..
पहले ने सिगरेट की राख ऐश ट्रे में गिराते हुए कहा- “व्हॉट्स रांग इन हिज स्टेमेंट, ही हैज गॉट द पाइंट.. और केवल विचार करने की बात ही तो कह रहा है न.. आखिर कब तक हम इस हिपोक्रेट सिस्टम के कारण नाकाबिल लोगों को ढोते रहेंगे..?”
दूसरे के एक हाथ में गिलास था, दूसरे हाथ से चीज़,चेरी, पाइनैपल की स्टिक उठाते हुए उसने कहा- “दैट इज व्हॉय, आई कंसिडर यू कास्टिस्ट.. हजारों सालों से जिन्हें तुमने दबाकर रखा है.. उन्हें कुछ दशकों तक मिले रिजर्वेशन से आज तुम्हें तकलीफ होने लगी है.. दैट टू इन गवर्मेन्ट सेक्टर ओनली.. भार्गव, यू शुड गो एंड सी द कंडीशन इन इंटिरियर रूरल एरियाज.. तब आपको पता चलेगा कि कैसे आज भी हमारे गाँवों में कास्ट के नाम पर क्या कुछ नहीं हो रहा है..खून-पसीना बहाने वाले लोगों को किस तरह से अपर कास्ट एक्स्प्लॉइट कर अपनी तिजोरियाँ भर रहा है..”
पहले ने (जिसका नाम भार्गव था) फिर तैश में आकर कहा- “तो क्या रिजर्वेशन से कोई चेंज आ रहा है..? सत्तर साल से जारी रिजर्वेशन का फायदा तो क्रीमी लेयर ही उठा रही है न.. अब श्रीवास को ही लो न.. ही इज फाइव बैच जूनियर टू मी.. करप्शन के दो मामलों में इनक्वाइरी भी चल रही है.. लेकिन फिर भी सेक्रेटरी बना बैठा है.. और एक हम है जो अपना पकड के बैठे हैं.. दास साब आप कुछ भी आर्ग्युमेंट दें। आई बिलीव, भगवान ने सबको समान बनाया है.. तो किसी को भी कास्ट, क्रीड कम्युनिटी के बेस पर किसी भी स्टेज पर प्रिविलेज दिया जाना ठीक नहीं है। मेरिट शुड बी द ओन्ली सिलेक्शन क्राइटेरिया फॉर एवरी सेक्टर।”
पहले और दूसरे के बीच इस मुद्दे को लेकर बहस तीखी और तेज होती जा रही थी.. आमतौर पर इस प्रकार की चर्चाओं से कन्नी काट लेने वाला मैं डर के बावजूद दोनों बुद्धिजीवियों की बहस काफी गौर से सुन रहा था.. जानकारियों और उदाहरणों की दोनों के पास कमी नहीं थी..
तभी अर्दली एक बड़ा सा पोलीथिन बैग जिसपर शहर के मशहूर नॉनवेज जॉइंट करीम्स का नाम छपा था, को लेकर कमरे में घुसा.. नॉनवेज खाने की खुशबू से कमरा महक उठा.. पहले और दूसरे के बीच जारी गर्मागर्म बहस पर भी कबाब और बिरयानी की खुशबू ने ब्रेक सा लगा दिया.. भार्गव जी भी चिकन टिक्का और कबाब की शान में कसीदे पढ़ने लगे.. स्नैक्स के बाद खाने की बारी आई, लेकिन जैसे ही बिरयानी का पहला कौर लिया, तो बोले- “यार बिरयानी में कुछ गडबड है..”
मेजबान बोले- “मतलब..?”
“कुछ अजीब सी स्मेल आ रही है, शायद चिकन फ्रेश नहीं रहा होगा..”
मैंने भी बिरयानी को सूँघा और फिर चखा भी, मुझे तो कोई स्मेल नहीं आई, लेकिन तब तक बहुमत बन चुका था.. और डिनर बाहर किसी होटल में करने का फैसला लिया जा चुका था।
मेजबान ने तुरंत करीम्स के संचालक को फोन कर जमकर लताडा.. बेचारे ने आधे घंटे में दूसरी बिरयानी भेजने का वादा किया.. लेकिन मेजबान की जिद पर वह पैसे वापस करने पर राजी हो गया।
मैं सोच ही रहा था कि अब बिरयानी के इन दो भरे हुए बॉक्सेस का क्या होगा.. खाली प्लेटें उठाने के लिये अर्दली कमरे में आया.. दास ने मुस्कुरा कर उससे पूछा- “रामसिंह नॉनवेज चलता है..?”
रामसिंह ने मुस्कुराकर हाँ में सिर हिलाया..
दास ने बिरयानी के पैकेट रामसिंह को पकडा दिये और कहा- “करीम्स की बिरयानी है.. मजे करो.. बच्चों को भी खिलाना।”
“लेकिन साहब आपका खाना..” –रामसिंह ने कहा
“उसकी फिक्र मत करो हमारा हो गया है..”
रामसिंह बिरयानी के डिब्बे उठाकर बाहर चला गया।
मैंने कुछ हिम्मत बटोरकर दबे और वंचित वर्ग की पैरवी करने वाले दास साहब से पूछा- “ये बिरयानी खाकर इसकी या इसे परिवार की तबीयत गडबडा गई तो..?”
दास साहब ने पूरे आत्मविश्वास से जवाब दिया- “अरे इन्हें कुछ नहीं होता.. सब पचा जाते हैं ये..”
इतने में भार्गव का मोबाइल घनघना उठा.. चबा-चबाकर अंग्रेजी बोलने वाला भार्गव कमरे से बाहर बरामदे में जाकर ठेठ बुंदेलखंडी में बात करने लगा- “बाकी सब ठीक है तो का करन लगें.. मनो बे सरजूपारी नैयाँ तो बात ने बन पे है.. काय सनाढ्य हैं..!!! तो तो भुल ई जाओ..हम तो उने ब्रम्ह्नै नई मानत, जा अकेले हम नोई के रय पुरखों कि इज्जत को सबाल है..”
बात तो काफी लंबी चली लेकिन मुझे तो इतना समझ आया कि शादी-ब्याह का मामला है और भार्गव साहब को सरयूपारी ब्राम्हण से कम कोई रिश्ता मंजूर नहीं.. ये वही भार्गव साहब थे जिन्हें कास्ट, क्रीड और कन्यूनिटी के आधार पर प्रिविलेज दिया जाना गवाँरा नहीं था.. लेकिन इसी आधार पर डिसक्रिमिनेशन से कोई परहेज नहीं जान पड़ रहा था..
तीन पैग ऑन द रॉक्स ग्लैनफिडिच सिंगल मॉल्ट के बाद अगले डेढ़ घंटे मैं फिर से कॉन्स्टिट्यूशन, कास्टिज्म,डेमोक्रेसी, बैकवर्ड और रिजर्वेशन जैसे लफ्जों को झेलने के लिये मजबूर था।
(आशुतोष नाडकर पिछले डेढ दशक से टेलीविजन पत्रकारिता में सक्रिय हैं। सहारा समय, ईटीवी जैसे चैनलों के अलावा वे बेवदुनिया व नवभारत जैसे संस्थानों में रहे हैं। वर्तमान में साधना न्यूज, म.प्र-छ.ग. में स्टेट ब्यूरो प्रमुख के रुप में कार्यरत् हैं।)
shandar. badhai…
wah.kya bat he. badhai…