हिन्दी के बहुमुखी साहित्यकार मुद्राराक्षस का लंबी बीमारी के बाद 13 जून को निधन हो गया। उन्होंने नाट्य लेखन, मंचन, कथा, व्यंग्य, कहानी, उपन्यास, आलोचना, अनुवाद और सम्पादन जैसे कई रूपों में हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। 83 वर्षीय मुद्राराक्षस काफी समय से बीमार थे। अचानक हालत बिगड़ने पर उन्हें ट्रामा सेन्टर ले जाया गया, लेकिन रास्ते में ही उनका निधन हो गया।
मुद्राराक्षस ने 20 से ज्यादा नाटकों का सफल निर्देशन, 10 से ज्यादा नाटकों का लेखन, 12 उपन्यास, पांच कहानी संग्रह, तीन व्यंग्य संग्रह, इतिहास सम्बन्धी तीन पुस्तकें और आलोचना सम्बन्धी पांच पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने ज्ञानोदय और अनुव्रत जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया है। 15 साल से भी ज्यादा समय तक वे आकाशवाणी में नाट्य प्रभाग से जुड़ें रहे। समाजिक और सियासी आंदोलनों में भी उन्होंने बढ़ चढ़कर भाग लिया था।
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श्री मुद्राराक्षस को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत है उनसे दलित आंदोलन पर हुई बातचीत के अंश-
एक शब्द बहुत प्रचलित रहा है- बहिष्कृत। दलित की पहली पहचान यही है। वो समाज में रहेगा ही नहीं।
दलित होना दास होने से भी बदतर था। हालांकि दास भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं होते थे पर इतना तो था कि वे घरों में आ-जा सकते थे। भले ही बाँध कर रखा जाए पर उस घर में रह सकता था लेकिन अछूत के साथ तो इससे भी बदतर स्थिति रही है।
उसे तो बाँधकर भी नहीं रखा जाएगा और काम भी कराया जाएगा, सेवा भी कराई जाएगी। दासता भी कराई जाएगी और इस तरह बहिष्कृत होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
इस दलित समाज की यह कठिनाई है जो आज भी बनी हुई है।
इसमें एक मुद्दा और भी है कि इस दलित समाज में कुछ ऐसी पिछड़ी जातियाँ भी हैं जो पूरी तरह से बहिष्कृत नहीं है। ये जातियाँ उनकी सेवा में लगी रहती हैं जो इस पूरे दलित समाज को बहिष्कृत बनाकर रखते हैं।
उदाहरण के तौर पर राजनीति में मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार का उदाहरण लिया जा सकता है। ये उन्हीं के साथ खड़े हैं जो समूचे दलित समाज को बहिष्कृत करने वाला वर्ग है।
इनकी वजह से बहिष्कृत समाज की स्थितियाँ और ज़्यादा ख़राब हो जाती हैं।
हाँ, एक बात ज़रूर है कि गाँवों में भी भले ही सौ में से एक या दो पर पढ़ने की ललक दलितों में बढ़ी है। मैट्रिक तक ही सही, पढ़ाई के लिए कुछ दलितों के घरों के बच्चे स्कूल पहुँचे हैं।
दलित होने का दंश
चिंताजनक यह है कि थोड़ा बहुत पढ़-लिखकर जिस दलित ने भी अपने अस्तित्व को पहचानने की कोशिश की है या अपने स्वाभिमान को समझा है, वहाँ अलगाव और भी बढ़ गया है। उसे सवर्ण वर्ग से और अधिक हमले झेलने पड़े हैं।
इसका एक बड़ा उदाहरण 1970 के दशक में भोजपुर में देखने को मिलता है। वहाँ अगर कोई दलित बाहर से पढ़कर और शिक्षक बनकर आ गया तो उसे और ज़्यादा प्रताड़ित किया गया। पटना में हॉस्टलों में पढ़ने गए दलित छात्रों को मारा गया। बाद में इनमें से कुछ नक्सली आंदोलन में शामिल हो गए।
ऐसा शहरों में भी है और आज भी है। शहरों में भी अगर कोई सफाईकर्मी किसी मुद्दे पर आज भी कुछ बोल दे तो लोग कहते हैं कि देखो कितना बोल रहा है जबकि सवर्ण वर्ग का व्यक्ति किसी भी भाषा में बोले, उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है और न ही उसे कोई टोकता है।
ग्रामीण स्तर पर ही नहीं बल्कि विकसित और शिक्षित शहरी परिवेश में भी स्थितियाँ बदली हुई नज़र नहीं आती हैं।
आज दलित समाज का जिलाधिकारी भी उसी बुरी मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थिति में रहता है जिसमें कि सड़क के किनारे जूता सिलने वाला दलित।
सामाजिक स्थिति स्वाभाविक नहीं होती। उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर कोई दलित अधिकारी अपने नीचे दो दलितों को नौकरी दे दे तो यह चर्चा का विषय बन जाता है पर किसी सवर्ण जाति के अधिकारी के नीचे मुश्किल से दो दलित कर्मचारी काम करते मिलेंगे।
रही बात उद्योग जगत की तो आज भी दलितों का बाज़ार में मालिक के तौर पर कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इस देश में एक भी बड़ा उद्योगपति ऐसा नहीं है जो कि दलित हो।
राजनीतिक पहचान का संकट
विडंबना यह है कि आज का दलित नेतृत्व इस आम दलित की मनोवैज्ञानिक पीड़ा, सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा और शोषण पर ध्यान देने के बजाए ब्राह्मणवाद से तालमेल की राजनीति कर रहा है।
वो स्वायत्त समुदाय की अस्मिता को बचाकर रखने के लिए सक्रिय नहीं है। न तो यह काम मायावती कर रही हैं, न रामविलास पासवान कर रहे हैं और न ही आरपीआई जैसी पार्टी कर रही हैं।
ये नेतृत्व अपने इन नेताओं के झंडे तो लेकर चलता है पर इसकी बातों को न तो वह समझ रहा है, न समझना चाह रहा है और न ही उस दिशा में कोई ईमानदार कोशिश कर रहा है।
दलित राजनीति को कुछ लोग अपने निजी हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं जो कि बहुत चिंता का विषय है।
वैचारिक संकट
अंबेडकर का मानना था कि तर्कों को वैज्ञानिकता की कसौटी पर कसा जाए और ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को समाज के सामने लाया जाए। आज किसी दलित नेतृत्व में इतनी समझ ही नहीं है कि इस दुर्व्यवस्था को सामने ला सके।
कठिनाई यह भी है कि इस दलित नेतृत्व के पास न तो वैचारिक समझ है और न ही वर्तमान सामाजिक ढांचे का कोई विकल्प, जैसा कि अंबेडकर और पेरियार के पास था। उस बौद्धिक तैयारी का पूरी तरह से अभाव है।
दलितों की अस्मिता में कुछ सुधार का श्रेय भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल को भी जाता है क्योंकि उनके ढांचे में जाति जैसी चीज़ नहीं थी और इसका दलितों को लाभ मिला।
पर अंग्रेज़ों से तब मिले इस लाभ पर कुछ दलित संगठन आज भी कहते हैं कि जो अंग्रेज़ कर रहे हैं, विश्व बैंक कर रहा है या आईएमएफ़ कर रहा है, वो ही सही है। ऐसा नहीं है। ये इकाइयाँ दलितों के हितों को भी बराबर नुकसान पहुँचा रही हैं।
मुझे लगता है कि दक्षिण भारत में दलित आंदोलन ज़्यादा प्रभावी है लेकिन उत्तर भारत में तो मुझे लगता ही नहीं है कि वो ब्राह्मणपंथ से समझौता किए बिना कोई काम करेंगे। इन्हें तो अपने खाते से मतलब है।
(बीबीसी से साभार)