मध्यप्रदेश सरकार माने या न माने लेकिन यह राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए परीक्षा की घड़ी है। इस परीक्षा से सरकार के अस्तित्व पर भले ही कोई संकट न आए लेकिन यह उसके नैतिक रूप से पास या फेल होने का सबब जरूर होगी।
मामला रतलाम जिले की एक प्रशासनिक अधिकारी के कथित बयान का है। मीडिया में जो खबर छपी है उसके मुताबिक रतलाम में नायब तहसीलदार अमिता सिंह की फेसबुक वॉल पर एक पोस्ट प्रसारित हुई जिसमें कहा गया कि- ‘’प्रधानमंत्री अफगानिस्तान गए। वहां मुसलमानों ने भारत के झंडे लेकर सड़क पर ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए। प्रधानमंत्री से अनुरोध है कि वे ‘राजीव गांधी आत्महत्या योजना’ शुरू करें ताकि सेक्युलर व कांग्रेसी विचार वाले ऐसी खबर सुनकर आत्महत्या कर सकें’’
सोशल मीडिया पर अमिता सिंह की इस फेसबुक पोस्ट को लेकर घमासान मचा है। इस बारे में खुद अमिता सिंह ने मीडिया को जो प्रतिक्रिया दी है उसमें वे कहती हैं- ‘’मेरे वाट्सएप ग्रुप पर यह मैसेज आया था। इसे मैंने फेसबुक पर डाल दिया,लेकिन अरजरियाजी ने बात का बतंगड़ बना दिया। इसके बावजूद किसी को बुरा लगे तो मैंने माफी मांग ली।‘’
यहां अमिता सिंह जिन ‘अरजरिया जी’ का जिक्र कर रही हैं, वे खुद मध्यप्रदेश में आईएएस अधिकारी रहे हैं और उन्होंने फेसबुक पर ही अमिता सिंह के इस पोस्ट की तीखी आलोचना की है। अमिता सिंह के फेसबुक अकाउंट पर इस प्रसंग से जुड़ी ढेरों ‘प्रिय-अप्रिय’ पोस्ट अभी भी देखी जा सकती हैं। इनमें ज्यादातर ऐसी हैं जिनका इन दिनों ‘चलन’ है।
अमिता सिंह का मामला इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हाल ही में मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के कलेक्टर अजय गंगवार को फेसबुक पर की गई ऐसी ही राजनीतिक रंग वाली पोस्ट पर वहां से हटा दिया गया था। गंगवार पर कार्रवाई के बाद इस बात का बहुत हल्ला मचा था कि यह ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर हमला है। प्रशासनिक अधिकारियों को भी अपनी बात कहने की आजादी क्यों नहीं होनी चाहिए।
मैं व्यक्तिगत रूप से न तो श्री गंगवार के पक्ष में हूं, न अमिता सिंह के। यह ठीक है कि संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार दिया है, लेकिन उस अधिकार का इस्तेमाल करने से पहले हमें अपने दायित्व या जवाबदेही को तौल लेना होगा। इसी कॉलम में मैंने कुछ दिन पहले लिखा था कि लता मंगेशकर और सचिन तेंडुलकर का भद्दा मजाक उड़ाने वाले को भी क्या हम ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की ढाल का इस्तेमाल करने की इजाजत देंगे। जिन लोगों ने भी इस जुमले को अपना हथियार या ढाल बना लिया है, मैं उनसे पूछना चाहूंगा कि यदि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कोई आपके मां बाप को गाली दे, तो भी क्या आप उसका समर्थन कर उसका सम्मान करेंगे? यदि आजादी के अधिकार की ही बात है,तो आपको ऐसा ही करना चाहिए। लेकिन सब जानते हैं कि ऐसा होने पर हम सामने वाले का मुंह तोड़ देंगे।
निश्चित रूप से प्रशासनिक अधिकारियों को अपनी बात कहने का हक है, लेकिन यह तो उन्हें देखना ही होगा कि, राजनीतिक तेल में तली गई ये ‘विचार’ की पकौडि़यां वे जनता में न बांटें। प्रशासनिक अधिकारी व्यक्तिगत रूप से किसी भी दल या विचार के समर्थक हो सकते हैं, लेकिन इस बात का सार्वजनिक प्रदर्शन उनके उस दायित्व के सम्यक निर्वहन पर सवाल खड़े करता है जो सरकारी कर्मचारी होते हुए उन्हें सौंपा गया है। वे संविधान के प्रति निष्ठावान हों, किसी दल विशेष या व्यक्ति के प्रति नहीं। अफसरों के पास तो काम करवाने के लिए सभी तरह के लोग आएंगे, फिर चाहे वे कांग्रेस के हों या भाजपा के। क्या भाजपा की विचारधारा को पसंद करने वाला कोई प्रशासनिक अधिकारी, उसके पास काम कराने आए किसी कांग्रेसी विचारधारा वाले व्यक्ति से यह कह सकता है कि, भैया अफगानिस्तान में मुसलमानों ने मोदी जी का स्वागत कर दिया है,काम वाम की बात छोड़, तू तो अब आत्महत्या कर ले।
रतलाम का यह प्रसंग मध्यप्रदेश सरकार की भूमिका की भी बारीकी से पड़ताल करेगा। जिस सरकार ने बड़वानी में आनन फानन में कार्रवाई कर कलेक्टर गंगवार को हटा दिया, उसी सरकार पर अब यह जिम्मेदारी भी बनती है कि, वह रतलाम की अधिकारी पर भी कार्रवाई करे, जिसने वैसा ही कदाचरण किया है, जैसा गंगवार ने किया था। यदि आप ऐसा नहीं करते तो गंगवार और अमितासिंह पर तो उंगली बाद में उठेगी, पहला सवाल तो आपकी नीयत पर होगा कि क्या आपने राज्य की अफसरशाही को पार्टीबाजी करने की छूट दे रखी है? क्या आपका यही न्याय है कि, जो आपके रंग वाला वस्त्र धारण करेगा वह अभयदान का हकदार होगा और जो उससे इतर कोई चोला पहन कर निकलेगा, उसका जनाजा निकाल दिया जाएगा? यह समय सरकार में बैठे लोगों को वह शपथ याद दिलाने का है, जो वे पदभार ग्रहण करते समय लेते हैं। वह शपथ कहती है-‘’मैं बिना किसी भय या पक्षपात, राग या द्वेष के, सभी के साथ न्याय करूंगा।‘’ उम्मीद है आप उस शपथ को भूले नहीं होंगे।