हिन्दी के मशहूर साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की एक कविता की पंक्तियां हैं-
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ– (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना–
विष कहाँ पाया?
अज्ञेय जी की यह कविता मुझे एक खबर पढ़कर याद आई। हालांकि जब वो खबर पढ़ी थी,तो थोड़ी देर के लिए मैं समझ ही नहीं पाया कि यह खबर है या देश के अंदरूनी हालात पर कोई टिप्पणी।
वह खबर भारत की साइबर सिटी कहे जाने वाले बेंगलुरू से थी। उसमें कहा गया था किबेंगलुरू महानगर पालिका, शहर में बड़ी संख्या में निकलने वाले सांपों से परेशान है। वहां घर के आंगन या बगीचे में ही नहीं, बल्कि वॉशिंग मशीन, गैस सिलेंडर के नीचे, बाइक और जूतों के अंदर तक सांप मिल रहे है। कहीं वॉशबेसिन में सांप बैठा है, तो कहीं किचन कैबिनेट में। टीवी रैक, स्टेबलाइजर और कारें भी सांपों की रिहायश बने हुए हैं। महानगर पालिका के वॉलंटिअर्स के मुताबिक मई से लेकर जुलाई तक सांपों के प्रजनन का समय होता है। जब उन्हें इसके लिए कोई उपयुक्त जगह नहीं मिलती, तो वे घरों में घुस जाते हैं। ज्यादातर सांप ऐसी जगहों पर छिपे मिले, जहां आसपास कचरे का ढेर था या घर के उस हिस्से में पाए गए जो इस्तेमाल में न लाया जा रहा हो।
उस वालंटियर की बात पढ़कर मुझे हमारे भोपाल के सलीम मियां याद आ गए। भोपाल में‘सलीम सांप वाले’ के नाम से मशहूर सलीम मियां सांप पकड़ने में उस्ताद हैं। राजधानी के नगर निगम ने इसके लिए बाकायदा उनकी सेवाएं ले रखी हैं। विकीमेपिया पर मोबाइल नंबर सहित उनके बारे में पूरा ब्योरा तफसील से मौजूद है। पिछले बीस सालों में सलीम भाई 30 हजार से अधिक सांप पकड़ चुके हैं, जिनमें सामान्य से लेकर अत्यधिक जहरीले सांप भी शामिल हैं। वे सांपों को पकड़कर नियमित रूप से उन्हें भोपाल के आसपास के जंगलों में छोड़कर आते हैं। सांप कहीं भी छिपा हो, हुनर में माहिर सलीम मियां उसे ऐसे खोज लेते हैं,मानो इसके लिए उनके पास अलग से कोई आंख हो। बारिश के दिनों में उनकी व्यस्तता बहुत ही ज्यादा बढ़ जाती है।
लेकिन बेंगलुरू की खबर के कुछ और दिलचस्प एंगल भी हैं। जैसे आप कह सकते हैं कि चूहों (माउस) का शहर इन दिनों सांपों से परेशान है। या चूहों से दुनिया को नचाने वाले इन दिनों सांप की फुफकार पर नाचते फिर रहे हैं। वैसे एक जमाना था जब भारत की पहचान सांप सपेरों के देश के रूप में होती थी। भारत के दो साल पुराने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अकसर अपनी सभाओं में इसी से जुड़ा एक किस्सा सुनाया करते हैं।
सितंबर 2014 में अमेरिका के मेडिसन स्क्वेयर की सभा में उन्होंने यह किस्सा सुनाते हुए कहा था- ‘’मैं कुछ वर्ष पहले ताइवान गया, तब मैं प्रधानमंत्री नहीं एक राज्य का मुख्यममंत्री था। वहां मेरे साथ एक Interpreter भी था। कुछ दिन साथ रहने के कारण वह काफी घुलमिल गया। एक दिन वो बोला, आपको अगर बुरा न लगे तो मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं। मैंने कहा पूछिए क्या पूछना चाहते हैं। उसने बड़े झिझकते हुए पूछा कि मैंने सुना है भारत में काला जादू होता है… Black Magic ! वह सांप-सपेरे का देश है। लोग सांपों के खेल करते रहते हैं। क्या ऐसा ही है? मैंने कहा नहीं! हमारे देश का अब बहुत Devaluation हो गया है। हमारे पूर्वज जरूर सांप के साथ खेलते थे, लेकिन हम Mouse के साथ खेलते हैं। अब हमारे नौजवानMouse को घुमाते हैं और सारी दुनिया को डुलाते हैं।‘’
मोदी के इस किस्से पर काफी तालियां बजी थीं।
लेकिन दोस्तो! क्या आपको नहीं लगता कि इस देश में सांप कुछ ज्यादा ही निकलने लगे हैं। यहां सांपों का प्रजनन कुछ ज्यादा ही हो रहा है। पहले वे दबे छुपे अपने बिलों में रहते थे,लेकिन अब हमारे घरों में और आस्तीनों में बसने लगे हैं। देश को चारों तरफ से डंसा जा रहा है। चाहे नैतिकता का मामला हो या धर्म का, राजनीति का मैदान हो या प्रशासन की कंदराएं,सांपों का कुनबा लगातार बढ़ता जा रहा है। लोकतंत्र में सांप पूजनीय हो गए हैं।
ज्यादा दूर क्यों जाएं, इन दिनों हो रहे राज्यसभा चुनावों को ही देख लीजिए। हर पार्टी दूसरी पार्टी में ‘आस्तीनी सांप’ ढूंढ रही है। यह सांपों की बहुत ही विशिष्ट प्रजाति है। इन दिनों ऐसे सांपों की अहमियत बहुत बढ़ गई है। यूं पकड़े गए सांप या तो मार दिए जाते हैं या उन्हें जंगल में छोड़ दिया जाता है, लेकिन आस्तीन में पलने वाले सांप बहुत अच्छी तकदीर लिखाकर लाते हैं। आमतौर पर ऐसे सांपों को जंगल में नहीं छोड़ा जाता। उन्हें पकड़ने वाले उनका बहुत ख्याल रखते हैं, यह सुनिश्चित किया जाता है कि पकड़े जाने के बाद उनका ठीक ठाक पुनर्वास हो जाए।
कुल मिलाकर मसला यह कि, उधर बेंगलुरू वाले अपने किचन और जूतों में निकलने वाले सांपों से परेशान हैं और इधर मैं नादान, इसी सोच में दुबला हुआ जा रहा हूं कि देश के न जाने कितने कोनों और जाने कितनी आस्तीनों में छुपे सांपों को पकड़ने वाला सलीम मियां कहां से लाऊं? आपकी नजर में कोई हो तो जरूर बताइएगा।
गिरीश उपाध्याय
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लोकतंत्र में साँप ज्यादा ही पूजनीय हो चले हैं ।सभ्य भी।मूर्खता व चरणवंदन के अंधेरे में क्रूर सचाई की ओर इशारा स्वागत योग्य।
धन्यवाद सर, ऐसे ही उत्साहवर्धन करते रहें…
बिलकुल सही बात है । वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अब अपने लाभ के लिये दूसर राजनीतिक दलों में सेंधमारी बुरी बात भी नही मानी जाती है । एक बात और म प्र के राज्यसभा चुनावों के संदर्भ में यह पहली बार सामने आया है जब प्रमुख और सत्तासीन पार्टी भी सामने तय हार के बावजूद भी इन्ही आस्तीन के सांपों के सहारे राज्यसभा चुनावों की तीसरी सीट का सपना बुन रही थी । इससे पहले तक राजनीतिक मूल्यों का पालन करते हुऐ सभी पार्टियां ऐसी स्थिति में दूसरे दलों को निर्विरोध जीत के जश्न का मौका देती थीं ।