क्‍या जवाबदेही के बिना समाज चल सकता है?

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आज लोगों ने अभिव्‍यक्ति की आजादी का मायना ही बदल दिया है। इस आजादी ने उस लोकतंत्र को ही खतरे में डाल दिया है जिस लोकतंत्र के कारण हमें यह आजादी हासिल हुई है। क्‍या लता मंगेशकर और सचिन का मखौल उड़ाने या मथुरा में रामवृक्ष यादव नाम के गुंडे द्वारा की गई हरकत को हम अभिव्‍यक्ति की आजादी कह सकते हैं? ऐसे भारतजादों को आजादी और अभिव्‍यक्ति दोनों का वास्‍तविक अर्थ समझना होगा।

अभिव्‍यक्ति की आजादी पर आज पढ़ें गिरीश उपाध्‍याय की आलेख श्रृंखला का दूसरा भाग-

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बड़वानी के पूर्व कलेक्‍टर अजय गंगवार के बहाने आज अगर हम सरकारी सेवाओं में काम करने वालों की राजनीतिक रंग में रंगी टिप्‍पणियों की रक्षा करना चाहते हैं, तो हमें यह भी सोच लेना चाहिए कि, इसी तर्ज पर यदि सेना और न्‍यायपालिका भी राजनीतिक रुझान वाली ‘आजाद अभिव्‍यक्ति’ करने लगे तो क्‍या होगा? क्‍या हम उन्‍हें भी ऐसी आजादी देना चाहेंगे? और कुतर्क के लिए आप कह दें कि हां, उन्‍हें भी ऐसी आजादी क्‍यों नहीं मिलनी चाहिए, तो क्‍या आपने सेना और न्‍यायपालिका जैसी संस्‍थाओं में खुलेआम ऐसी आजादी दिए जाने के परिणामों पर पर्याप्‍त विचार कर लिया है?

आज पुलिस भले ही राजनीतिक आधार पर काम करने के आरोप झेलती हो, लेकिन वह भी यह काम खुलेआम नहीं कर पाती। उसे भी कहीं न कहीं लोकलाज या अनुशासन का डर होता है। कल्‍पना कीजिए यदि हम पुलिस को अभिव्‍यक्ति की आजादी दे दें और कोई थानेदार किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधिमंडल से कहे- हां मैं भाजपा या कांग्रेस का आदमी हूं, तुम क्‍या उखाड़ लोगे मेरा? क्‍या हम ऐसा सिस्‍टम चला पाएंगे? क्‍या हम ऐसा सिस्‍टम चाहते हैं? दरअसल अभिव्‍यक्ति की आजादी की एक डोर अनुशासन से भी बंधी होती है, इसे याद रखा जाना चाहिए।

अब इन सभी बातों के परिप्रेक्ष्‍य में आईएएस अधिकारी अजय गंगवार के फेसबुक पोस्‍ट को तौलिए। उन्‍होंने अपनी बात रखी इस पर कोई आपत्ति नहीं। लेकिन मूल बात मंशा की है। आखिर उन्‍होंने अपनी बात किस मंशा से कही? ध्‍यान से देखने पर पता चलेगा, उन्‍होंने अपनी बात नेहरू या उनकी नीतियों के वस्‍तुनिष्‍ठ विश्‍लेषण (Objective Analysis) के लिहाज से नहीं कही, अपितु नेहरू गांधी परिवार के नाम का इस्‍तेमाल, वर्तमान सरकार की नीतियों और नेतृत्‍व की आलोचना के लिए किया। यानी वे निरेपक्ष भाव से (Objectively) नहीं सापेक्ष भाव (Subjectively) से अपनी बात कह रहे हैं।

कोई भी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी, जिससे राजनीतिक तौर पर निरपेक्ष रहने की अपेक्षा की जाती हो, वह यदि किसी दल या विचार विशेष के प्रति सार्वजनिक आग्रह प्रदर्शित करेगा, तो उस पर सवाल भी उठेंगे और उसकी जवाबदेही भी सुनिश्चित होगी। जो लोग कलेक्‍टर की अभिव्‍यक्ति की आजादी का हो हल्‍ला मचा रहे हैं, खासतौर से मीडिया, तो उन्‍हें यह मामूली सी बात याद दिलाना जरूरी है कि, कलेक्‍टर अपने कई सारे दायित्‍वों के साथ साथ जिला निर्वाचन अधिकारी का दायित्‍व भी संभालता है। चुनाव आयोग कलेक्‍टरों के जरा से भी राजनीतिक रुझान के कारण, चुनाव जैसे महत्‍वपूर्ण कार्य से अलग कर देता है। तो क्‍या यह माना जाए कि चुनाव आयोग अभिव्‍यक्ति की आजादी का गला घोंट रहा है? निजी तौर पर आप नेहरू से प्रभावित हों या मोदी से, गांधी से प्रभावित हों या हिटलर से, लेकिन शासकीय दायित्‍व को संभालते हुए जब आप अपना राजनीतिक रुझान प्रदर्शित करते हैं, तो उसका अर्थ बहुत अलग होता है।

और आपने यह विचार किसी निजी पत्र व्‍यवहार में व्‍यक्‍त किया होता तो भी ठीक था, लेकिन आपने तो किसी भी मीडिया से भी अधिक पहुंच वाले सोशल मीडिया पर अपनी बात रखी है। यानी आप अपने निजी विचार को सार्वजनिक कर,परोक्ष रूप से लोगों को यह बता रहे हैं कि, आप किस विचार या राजनीतिक धारा के साथ नत्‍थी हैं। ऐसे में यदि आपकी भूमिका को कांग्रेस और भाजपा के खेमों में बांटकर देखा जा रहा है, तो वह स्‍वाभाविक ही है।

गंगवार ने लिखा ‘’यदि उन्‍होंने (नेहरू) आपको 1947 में हिंदू तालिबानी राष्‍ट्र बनने से रोका तो (क्‍या) यह उनकी गलती थी।‘’ अब अव्‍वल तो कोई मुझे बताए कि गंगवार जिस कालखंड की बात कर रहे हैं, क्‍या उस समय आज का यह बहुप्रचारित शब्‍द तालिबान या तालिबानी उस रूप में मौजूद था भी? और यदि था भी तो वह कौन व्‍यक्ति या समुदाय था, जो 1947 में भारत को तालिबानी राष्‍ट्र बनाना चाह रहा था? क्‍या हम समझ भी रहे हैं कि हम क्‍या कह रहे हैं? क्‍या हमने लिखने से पहले शब्‍दों के अर्थ और संदभों को अच्‍छी तरह पढ़ा या जाना भी है?  हम आईएएस जरूर बन गए हों, लेकिन क्‍या हमारी इतिहास दृष्टि या इतिहास बोध उतना समृद्ध अथवा परिपक्‍व है कि हम तालिबानी जैसे शब्‍द का सार्थक और सोद्देश्‍य इस्‍तेमाल कर सकें। मुझे नहीं लगता कि गंगवार साहब ने इतिहास को और उसके संदभों को इतनी गहराई से जाना है। उनकी पोस्‍ट में इस शब्‍द का उपयोग मुझे तो यही संकेत देता है कि, चूंकि उन्‍हें नेहरू को ढाल बनाकर वर्तमान राजनीतिक स्थिति को, जो उनके मनोनुकूल नहीं है, कोसना है, इसलिए वे तालिबान जैसे कठोरतम शब्‍द का उस कालखंड में जाकर उपयोग कर रहे हैं जिस कालखंड में यह शब्‍द अर्थों में न तो भारत में था और न ही संभवत: विश्‍व में अन्‍यत्र।

श्री गंगवार की फेसबुक पोस्‍ट में बौद्धिकता या विचार नहीं बल्कि, उनकी खीज झलकती है। उनका सापेक्ष भाव झलकता है। देश में बाबा रामदेव की हैसियत एक योगाचार्य और योग के माध्‍यम से व्‍यापार करने वाले एक व्‍यवसायी से अधिक नहीं है। यदि श्री गंगवार वर्तमान राजनीतिक व्‍यवस्‍था में एक योगाचार्य के दखल से इतने ही विचलित या पीडि़त हैं, तो उन्‍हें फिर इतिहास के पन्‍नों को खंगाल कर उसमें धीरेंद्र ब्रह्मचारी को ढूंढना पड़ेगा। उस ‘ब्रह्मचारी’ के रसूख और रुतबे के बारे में जानना पड़ेगा। मैंने कहा ना, हमारी मुश्किल ही यही है कि हम इधर उधर से कुछ टुकड़े उठा लेते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कचरा बीनने वाले लोग कचरे में से पॉलीथीन की कुछ पन्नियां, कुछ लोहे के टुकड़े बीन लेते हैं। वे समझते हैं, वह उनके काम की चीज है, लेकिन होता अंतत: वह कबाड़ ही है।

रामदेव या आसाराम को आप किसी भी सूरत में इंटलेक्‍चुअल कैसे कह सकते हैं? आरोप लगाने के लिए ही सही, पर यह बात एक आईएएस से तो अपेक्षित नहीं है। आप आसाराम और विक्रम साराभाई की तुलना कर रहे हैं? आसाराम आज अपने कुकर्मों के चलते किन हालात में हैं, यह किसी से छिपा है क्‍या? लेकिन चूंकि हमने लिखने से पहले सोचा नहीं, गुना नहीं, बस जो दो चार नाम और बातें याद थीं, वे फेसबुक पर पटक मारीं, इसलिए हम आसाराम और रामदेव से इतर, तार्किक कुछ सोच भी नहीं पाए। हां, श्री गंगवार यदि रघुराम राजन को लेकर कोई बात कहते, तो मैं समझता कि वे सचमुच एक इंटलेक्‍चुअल की तरह एक इंटलेक्‍चुअल की बात कर रहे हैं।

(क्रमश:)

कल पढि़ए- आखिर क्‍या रिश्‍ता है यूनिवर्सिटी और गोशाला में…

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आलेख का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें-

हे भारतजादो, पहले आजादी का सही मायना तो समझ लो!

 

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