ऐसा लगता है इन दिनों मैं देश हो गया हूं…

1
1268

गिरीश उपाध्‍याय

उधर सरकार अपने दो साल का जश्‍न मना रही है और इधर मैं दो दिन से बिस्‍तर पर पड़ा हूं। उधर लोग देश की नींव से लेकर उसके कॉलम बीम और छत के पुनर्निर्माण की बात कर रहे हैं और इधर दो दिन से मैं अपना दो चार सूत की चौड़ाई वाला कॉलम तक नहीं लिख पाया हूं। लोग दो साल के जश्‍न में सिर घुमा घुमा कर नाच रहे हैं और यहां मैं अपने सिर के घूमने के कारण बिस्‍तर से उठ नहीं पा रहा। मेरा हाल बिलकुल देश जैसा हो गया है।

ऐसा नहीं कि मुझे उपचार नहीं दिया जा रहा और ऐसा भी नहीं कि मैं उपचार के लिए दी जाने वाली कड़वी गोली निगल नहीं रहा। लेकिन रोग है कि मुझे चलने फिरने की तो छोडि़ए, कम्‍बख्‍त उठने तक नहीं देता। पानी पिशाब के लिए भी दूसरों का सहारा लेना पड़ रहा है। मेरा डॉक्‍टर भी सरकार की तरह व्‍यवहार करता लगता है। वह भी अच्‍छे दिन जैसा दिलासा देते हुए कहता है, ज्‍यादा लोड नहीं लेना, तुम जल्‍दी अच्‍छे हो जाओगे। अरे क्‍या लोड नहीं लेना, यहां लोड के सहारे टिके-टिके हालत खराब है और सलाह देखिए कि लोड नहीं लेना। कभी कभी तो लगता है कि डॉक्‍टर भी मुझे मरीज नहीं, देश समझने लगा है। उसने सख्‍त ताईद की है, बिस्‍तर से उठने की कोशिश की तो चक्‍कर खाकर गिर पडोगे। ठीक देश की तरह, मैं डरा सहमा सा बिस्‍तर पर पड़े पड़े टुकुर टुकुर आसपास देखता रहता हूं। कहीं खड़ा होने की कोशिश में सचमुच गिर ही न पड़ूं।

मुझे जो बीमारी है, उसे डॉक्‍टर वर्टिगो कहते हैं। कोई कोई मुझे प्रभावित करने के लिए या खुद को थोड़ा अलग दिखाने के लिए इसे जरा सा चबाकर वरटाइगो भी कहता है। जैसे संगठन में उत्तिष्‍ठ भारत कहते हैं और सरकार में स्‍टैंडअप इंडिया। लेकिन मेरे लिए दोनों में कोई फर्क नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे कोई भुखमरी कहे और कोई कुपोषण, क्‍या फर्क पड़ता है। मौत तो दोनों से होती है। डॉक्‍टर चाहे इसे वर्टिगो कहें या वरटाइगो मुझे तो दोनों में तेज चक्‍कर आते हैं, ऐसा लगता है किसी ने सिर को उठाकर पंखे पर रख दिया हो और उसे पांच की फुल स्‍पीड पर चला दिया हो। और इस बीमारी की गोलियां भी दो चार ही हैं। कोई आपको वर्टिन लेने को कहेगा तो कोई स्‍टुजेरान। यह वैसा ही जैसे आप नैशनल ई-गर्वनेंस प्‍लान प्रिस्‍क्राइब करें या डिजिटल इंडिया, आम आदमी बीमा योजना कहें या अटल पेंशन योजना मूल या जेनेरिक तत्‍व तो वही है।

डॉक्‍टर ने मुझे जंचा दिया है कि मुझे वर्टिन से फायदा होगा, तो मैं वर्टिन लेता रहता हूं। मुझे अभी तक कोई सुब्रमण्‍यम स्‍वामी नहीं मिला जो मेरे डॉक्‍टर को रघुराम राजन बताते हुए कहे कि उसी की वजह से आपकी बीमारी ठीक नहीं हो रही। आपके डॉक्‍टर को तो भारतीयों की बीमारी की पहचान तक नहीं है।

हालत बिगड़ने पर मेरा डॉक्‍टर ज्‍यादा कुछ नहीं करता। वह गोली की एमजी (मिलीग्राम) बढ़ा देता है। पहले वह 8 एमजी की गोली देता था, फिर 16 एमजी की देने लगा। पहले उसका कोर्स सात दिन का होता था, अब 15 दिन का होता है। पर ऐसी बीमारियों में ‘एमजी’ बढ़ाने का कोई फायदा तो मुझे नजर नहीं आया। वैसे कई बार एमजी बढ़ाने भर से मर्ज नहीं सुधरता उसके लिए तो दवा ही बदलना पड़ती है। जैसे देश को ही लीजिए। एक जमाने में एमजी (अपने महात्‍मा गांधी जी) ने देश का रोग ठीक कर दिया था, लेकिन आज वो ‘एमजी’ किसी काम के नहीं रहे।

और जब आप किसी ऐसी बीमारी की चपेट में हों, जिसके बारे में लोगों को ज्‍यादा पता न हो, तो सलाहें भी तरह तरह की आती हैं। मुझे भी ऐसी कई सलाहें मिलती रहती हैं। कोई कहता है ऐलोपैथी नहीं होम्‍योपैथी ट्राय करो, तो कोई आयुर्वेदी सलाह देता है। फिर वही देश जैसा हाल… नेहरूपैथी से अब काम नहीं चलने वाला, मोदीपैथी ट्राय करो। इधर ट्राय करते करते मेरी हालत हेलन ऑफ ट्राय जैसी हो गई है।

करीब 25 साल पहले मैंने इस बीमारी के शुरुआती दिनों में, अपने एक परिचित की सलाह पर, चंडीगढ़ जाकर वहां पीजीआई में एक डॉक्‍टर को दिखाया था। उसकी बात मुझे आज भी याद आती है। उसने कहा था, बाबू चाहे जितने डॉक्‍टर और चाहे जितनी दवा बदल लो, इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। बेहतर यही होगा कि तुम इस चक्‍कर के साथ जीना सीख लो। हां, इतनी गारंटी मैं लेता हूं कि तुम इससे मरोगे नहीं।

आज भी जब मैं कष्‍ट में होता हूं, मेरे कानों में वह बात गूंजने लगती है। फर्क सिर्फ इतना है कि इन दिनों मैं अपने साथ देश को भी ले लेता हूं और पड़े पड़े भारत को भी समझाता हूं कि बाबू इन चक्‍करों के साथ जीना सीख लो, ठीक तो तुम हो नहीं पाओगे, लेकिन इतनी गारंटी जरूर है कि मरोगे नहीं।

आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया आप नीचे कमेंट बॉक्‍स के अलावा [email protected] भी भेज सकते हैं।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here