हमारी एक आदत हो गई है। हम हर चीज की अपेक्षा सरकार या सरकारी व्यवस्था से ही करते हैं। यह ठीक है कि हमारे दैनंदिन जीवन में सरकार का दखल बहुत अधिक है, लेकिन फिर भी यह तो ज्यादती ही कही जाएगी कि बच्चा हमारे यहां पैदा हो और नामकरण के लिए हम सरकार का मुंह देखें।
ऐसा ही मामला सामाजिक सरोकारों का है। कुछ बातें ऐसी हैं जिनका ताल्लुक सरकार से कम और हमारी मानसिकता से अधिक है। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी, जब तक जवाबदेही का भाव हममें नहीं आएगा, तब तक अनूकूल या अपेक्षित सुधार की उम्मीद करना बेमानी है।
मैंने अपनी सिंहस्थ यात्रा के अनुभवों का जिक्र करते हुए, होटल कारोबारियों द्वारा किए जा रहे अन्न के अपमान और खाद्य सामग्री के प्रति बरती जा रही आपराधिक लापरवाही की बात की थी। उसी कड़ी में सिक्के का दूसरा पहलू देखिए।
उज्जैन प्रवास के दौरान रात को मैं मेला परिक्षेत्र में घूम रहा था। चूंकि स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी के यहां हमारे एक घनिष्ठ परिचित, प्रबंधन का जिम्मा संभाले हुए थे, इसलिए मैं उनके पास चला गया। उन्होंने मुझे पूरा पांडाल और वहां की व्यवस्था दिखाने के बाद अनुरोध किया कि स्वामीजी की ओर से चलाए जा रहे अन्न क्षेत्र में मैं भी थोड़ी देर सेवा कार्य में सहयोग करूं। मैं राजी हो गया और पांडाल के बाहर सैकड़ों की संख्या में कतारबद्ध खड़े लोगों को अन्न क्षेत्र में बनाई गई खाद्य सामग्री का वितरण करने लगा।
व्यवस्था ऐसी बनाई गई थी कि लोग आते जा रहे थे और उन्हें एक प्लेट में रखा तैयार खाना दिया जा रहा था। इसी दौरान एक व्यक्ति ने प्लेट लेने के बाद मुझसे एक और प्लेट की मांग की। वहां मेरा पत्रकार जाग गया और मैंने कहा नहीं, एक व्यक्ति को सिर्फ एक ही प्लेट मिलेगी, बाकी लोग भी तो हैं, यदि सभी दो-दो प्लेट लेने लगे, तो कैसे काम चलेगा? अन्न क्षेत्र के एक व्यवस्थापक मेरे बगल में ही खड़े थे, उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा- दूसरी प्लेट क्यों चाहिए? जवाब आया- मेरी मां के लिए जो लाइन में लगकर यहां तक नहीं आ सकती। व्यवस्थापक ने मुझसे कहा- दे दीजिए सर। मैंने कारण जानने के बाद पश्चाताप के भाव के साथ उस व्यक्ति को दूसरी प्लेट थमा दी। लेकिन उसके बाद लाइन में लगे कई व्यक्तियों ने तरह तरह के कारण गिनाते हुए एक के बजाय दो प्लेट मांगना शुरू कर दिया। पहले वाली घटना से सबक ले चुका मैं चुपचाप सभी को दो-दो प्लेट देने लगा। फिर वही व्यवस्थापक आए और उन्होंने लोगों से पूछा- आपको भला दो प्लेट क्यों चाहिए? लोगों ने कई तरह के कारण गिनाए और दो-दो प्लेट लेते गए। व्यवस्थापक ने उनसे केवल एक ही बात कही- ‘’इसे खा लेना, फेंकना नहीं।‘’
थोड़ी देर में सेवा कार्य खत्म करने के बाद जब मैं पांडाल से बाहर निकला तो वहां के दृश्य ने कई सारे सवाल मुझ पर उडेल दिए। बाहर बड़ी संख्या में प्लेटें लेकर बैठे लोगों में से कई ने काफी सारी प्लेटें ज्यों की त्यों पास ही रखे गए कूड़ेदान में डाल दी थीं। क्योंकि शायद उनके पेट में जगह नहीं बची थी।
मुझे वो पुरानी कहावत याद आ गई कि दान भी पात्र व्यक्ति को देखकर ही देना चाहिए। मैं यह नहीं कहता कि अन्न क्षेत्र में प्रसाद पाने के लिए लाइन में लगे सारे व्यक्ति लालची होंगे। लेकिन दरअसल यह बात हमारी प्रवृत्ति में ही घर कर गई है कि,जब हमारे पास वस्तु पर्याप्त मात्रा में हो, हम उसका मोल नहीं समझते। आज देश के कई राज्य जब बूंद-बूंद पानी को तरस रहे हैं, तब इस बात का महत्व समझ में आता है कि पानी का मोल क्या है। वरना जब भी हमारे पास पानी इफरात में होता है, हम उसे कतई तवज्जो नहीं देते, उलटे उसका आपराधिक विलासिता के साथ दुरुपयोग करते हैं। यही बात अन्न पर भी लागू होती है।
मूल रूप से प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का पूरा मसला ही हमारी मानसिकता पर टिका है। जो कारोबारी हैं, वे तो कारोबार करेंगे ही। उनका तो लक्ष्य ही मुनाफा कमाना है, लेकिन हम लोग, जो कारोबारी नहीं हैं, हम तो इस तरह के अपव्यय को रोक सकते हैं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर उस होटल वाले में, जिसका जिक्र मैंने कल किया था, और इन प्रसाद आकांक्षियों में क्या अंतर रहा। किसी को सिर्फ अपना माल बेचने की चिंता है और किसी को सिर्फ माल हथिया लेने की। दोनों में से कोई भी यह नहीं सोच रहा कि उस वस्तु का सार्थक उपयोग हो रहा है या नहीं। ऐसे में हम खुद को सामाजिक कैसे कह सकते हैं। हमारा यह कृत्य तो घोर असामाजिक हुआ ना। सिंहस्थ जैसे आयोजनों में पुण्य अर्जित करने का अर्थ केवल नदी में डुबकी भर मार लेना नहीं है। डुबकी तो दायित्वबोध के उस सागर में लगानी होगी जिसकी अपेक्षा मनुष्य होने के नाते हमसे की जाती है। यदि हम यह न कर पाएं तो बेकार हैं सारे कुंभ और बेकार है चारों धाम की यात्रा।
गिरीश उपाध्याय