उत्‍तराखंड में हुई राजनीतिक उठापटक ने भारतीय जनता पार्टी की साख को तो धक्‍का पहुंचाया ही है, देश की तमाम राजनीतिक पार्टिंयों को सचेत किया है कि कानून और संविधान के दायरे से यदि वे अलग हुए तो उन्‍हें सत्‍ता भी गंवानी पड़ सकती है। उत्‍तराखंड घटनाक्रम के राजनीतिक संदेश को समझना इसलिए भी जरूरी है क्‍योंकि इसने कई मोर्चों पर स्थितियों को नए सिरे से परिभाषित किया है और कई पुरानी मान्‍यताओं को पुख्‍ता तरीके से पुनर्स्‍थापित भी किया है। वैसे तो एस.आर. बोम्‍मई केस में यह फैसला हो चुका था कि किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला करने का सही स्‍थान विधानसभा या संसद ही है लेकिन फिर भी समय समय पर यह सवाल नई उलझनों के साथ खड़ा होता रहा है। उत्‍तराखंड में न्‍यायालय ने एक बार फिर उसी बात को स्‍थापित किया है कि बहुमत के लिए तो दलों को सदन में ही जाना होगा। इसके अलावा विधानसभा अध्‍यक्ष के अधिकार भी कोर्ट ने सुरक्षित रखे हैं। सदन में अध्‍यक्ष का निर्णय ही सुप्रीम है। राष्‍ट्रपति शासन लागू करने को लेकर हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना बाकी है लेकिन उत्‍तराखंड हाईकोर्ट ने उसे रद्द करके जो सवाल उठाए हैं वे बहुत जल्‍दी इस देश की राजनीति का पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं। पहले अरुणाचल और फिर उत्‍तराखंड में जोड़तोड़ से बनने वाली सरकार के प्रति रुचि दिखाकर भाजपा ने अंतत: अपनी साख को ही कम किया है। यदि उसे अपनी छवि की चिंता है तो ऐसे हथकंडों से दूर ही रहना होगा। वरना वह भी उसी थैली के चट्टेबट्टों में से एक कहलाएगी जिस थैली में तमामा सारे दल डले हुए हैं।

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