पहले शाही स्नान के साथ उज्जैन में ‘सिंहस्थ’ का विधिवत आरंभ हो गया। 21 मई यानी एक माह तक चलने वाले इस अद्भुत लोक समागम में आरंभिक तौर पर पांच करोड़ लोगों के आने का अनुमान लगाया गया है। बात में कोई दो राय हो ही नहीं सकती कि सिंहस्थ या कुंभ जैसे आयोजनों में इतने सारे लोगों को खींच कर लाने वाला चुंबक ‘धर्म’ या ‘अध्यात्म’ ही है। अन्यथा नदियां तो कुंभ स्थलों के अलावा भी बहती रही हैं और मंदिरों या धर्मस्थलों की भी इस देश में कहीं कोई कमी नहीं है। लेकिन एक निश्चित कालखंड में, एक निश्चित स्थान पर ‘पुण्य’ अर्जित करने के लिए, सैकड़ों किमी दूर से चलकर आने और स्नान मात्र से स्वयं को धन्य मान लेने के पीछे कोई तो कारण अवश्य होगा और प्रथम दृष्ट्या यह कारण धर्म के प्रति आस्था ही है, जो सदियों से इस देश के मानस में विद्यमान रही है।
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने चार साल पहले एक ब्लॉग लिखा था। उसमें बीबीसी के भारत स्थित विश्वविख्यात पत्रकार मार्क टुली के हवाले से कुछ बातें आडवाणीजी ने उद्धृत की हैं। उन्होंने मार्क टुली और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतापसिंह के भाई संत बख्शसिंह के बीच प्रयाग (इलाहाबाद) में हुई बातचीत का छोटा-सा ब्योरा दिया है।
मार्क टुली ने धर्म और सेकुलरिज्म के बारे में बातचीत करते हुए संत बख्शसिंह से पूछा कि – ‘’जब इतने लाख लोग कुम्भ मेले में आते हैं, तो क्या कुछ बुध्दिजीवियों की इस आशंका की पुष्टि नहीं होती कि, ऐसे धार्मिक मेले हिन्दू कट्टरपन की तरफ ले जाएंगे?’’
इस पर दिए गए संत बख्शसिंह के जवाब को आडवाणीजी ने ‘दिलचस्प’ और ‘शिक्षाप्रद’ बताया है। बख्शसिंह ने टुली से कहा- ”देखो, तुम अच्छी तरह से जानते हो कि यहां स्नान करने वालों में से अधिकांश, जाने के बाद कांग्रेस या मेरे भाई के जनता दल जैसे सेकुलर दलों को वोट करेंगे, तो सेकुलरिज्म को खतरे का सवाल कहां उठता है? वास्तव में, सेकुलरिज्म को लेकर बहस एक पश्चिमी बहस है, क्योंकि आपके देशों में धर्म तर्कों और विज्ञान को प्रतिबंधित करता है। हमारे यहां बहस कभी भी धर्म बनाम अधर्म नहीं रही – यह तो आपके यहां से आई है।”
आडवाणीजी का यह ब्लॉग चार साल पुराना है। यानी यह तब लिखा गया जब देश में डॉ. मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। लेकिन पिछले चार सालों में देश की परिस्थितियां बिलकुल बदल गई हैं। करीब दो साल पहले देश में ऐसी सरकार आई है, जो कांग्रेस एवं वामपंथी धड़ों द्वारा प्रचलित एवं प्रचारित धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा से सहमत नहीं है। वह भारत को धर्मनिरपेक्ष मानने से इनकार करती रही है। उसका मानना है कि धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर उचित शब्द पंथ निरपेक्षता है। वास्तव में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद देश में ‘धर्म’ की बहस और अधिक आक्रामक हुई है।
लेकिन राजनीतिक बहसों से अलग, यदि हम कुंभ या सिंहस्थ जैसे आयोजनों के सामाजिक पक्ष को ही देखें, तो क्या हम कह सकते हैं कि यह देश धर्म को निरपेक्ष भाव से देखने का मानस रखता है? इसके विपरीत सिंहस्थ जैसे आयोजन तो यही संकेत देते हैं कि राजनीतिक धाराएं या मंच कुछ भी कहते रहें, देश का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी धर्म से जुड़ा है। वास्तव में धर्म को इस देश के मानस से अलग किया ही नहीं जा सकता। राजनीतिक क्षेत्र में धर्म का अर्थ और उसके निहितार्थ या फलितार्थ जो भी हों, लेकिन जनमानस की परिभाषा में धर्म आज भी, तमाम आधुनिकताओं के बावजूद, आस्था का विषय है।
शायद यही कारण है कि कुंभ या सिंहस्थ जैसे आयोजनों में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी होती है। शुक्र है कि अभी तक ये आयोजन राजनीतिक रंग लेने से बचे हुए हैं। हालांकि छिटपुट तौर पर इन आयोजनों में ऐसे रंग चढ़ाने की या उनसे राजनीतिक फायदा लेने की कोशिशें होती रही हैं, लेकिन ये धार्मिक समागम किसी भी राजनीतिक दल की सरकार के शासनकाल में हुए हों, कोई यह नहीं कह सकता कि ये भाजपा का कुंभ है, कांग्रेस का है या सपा, बसपा का…
कुंभ में आने वाले लोग भी आमतौर पर राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता की तरह नहीं आते। वे विशुद्ध रूप से धर्म और आस्था के कारण आते हैं। इसलिए ऐसे आयोजन, धर्म को लेकर चलने वाली तमाम वामपंथी और दक्षिणपंथी बहसों के बावजूद, अपना अलग स्वरूप बनाए हुए हैं। शायद यही भारत की मूल संस्कृति है। संत बख्शसिंह ने मार्क टुली को जो जवाब दिया वो धर्म को लेकर इस देश के चरित्र को रेखांकित करता है। उनका यह कथन बिलकुल सही है कि कुंभ या सिंहस्थ में स्नान करने के बाद न तो कोई कांग्रेसी भाजपाई हो जाता है और न कोई भाजपाई कांग्रेस की ओर मुड़ जाता है। ‘पुण्यसलिला’ नदियों में स्नान करने के बाद लोग पुन: अपने अपने राजनीतिक चोलों में चले जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे 12 साल बाद सार्वजनिक रूप से दिखने वाले कई साधु संत आयोजन के बाद अपनी कंदराओं में लौट जाते हैं। समस्या केवल एक है, कि बहुतांश में निरपेक्ष भाव से होने वाले ऐसे आयोजन, धर्म को भारत और भारत के समाज की बेहतरी से जोड़ने में कामयाब नहीं होते, वे निजी ‘पुण्यलाभ’ के स्वार्थ तक ही सिमट कर रह जाते हैं। मसलन पांच करोड़ लोग यदि सिंहस्थ से पानी बचाने का सच्चा संकल्प लेकर लौटें तो क्या देश में कभी कोई प्यासा रह सकता है?