भोपाल, दिसम्बर 2015/ मध्यप्रदेश की अनूठी संगीत परम्परा रही है। वस्तुत: संगीत ऐसा विषय है जिसे हरेक व्यक्ति अपने दिल में सँजोये रखता है। हम सभी कुछ न कुछ गुनगुनाते रहते हैं। संगीत भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। संगीत संस्कृति का विजिटिंग कार्ड है। यह बात ख्यात तबला वादक किरण देशपांडे ने आज यहाँ ‘मध्यप्रदेश की संगीत परम्परा : एक परिदृश्य’ विषय पर व्याख्यान में कही। राज्य पर्यटन विकास निगम द्वारा आयोजित व्याख्यान श्रंखला की यह नवीं कड़ी थी।
इस मौके पर सचिव मुख्यमंत्री एवं पर्यटन श्री हरिरंजन राव, पर्यटन विकास निगम की अपर प्रबंध संचालक सुश्री तन्वी सुन्द्रियाल सहित निगम के अधिकारी एवं संगीत के रसिक श्रोता मौजूद थे।
श्री किरण देशपांडे ने कहा कि प्राय: शास्त्रीय संगीत के प्रति लोगों में कुछ भय व्याप्त रहने से संगीत सभाओं में आम लोग कम ही पहुँचते हैं। शास्त्रीय संगीत ‘करेले की सब्जी’ की तरह है जिससे रफ्त में आने पर ही स्वाद आने लगता है। किसी भी कठिन लक्ष्य को हासिल करने के लिए निरंतर अभ्यास जरूरी होता है। अभ्यास से ही निखार आता है।
श्री देशपांडे ने कहा कि मध्यप्रदेश में संगीत परम्परा के इतिहास पर कोई प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध नहीं है तथापि वाचिक परम्परा से ज्ञान का प्रसार होता रहा है। आदिकाल में हमारे यहाँ यज्ञ के प्रसंग पर गीत-संगीत और भजन-कीर्तन होते रहे हैं। प्रदेश की जनजातियों में लय-ताल से परिपूर्ण लोक संगीत रहा है। मालवा सहित बुंदेलखंड और बघेलखण्ड में लोक संगीत की समृद्ध परम्परा रही है। ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर के समय ध्रुपद का आविर्भाव हुआ था। असगरी बाई ध्रुपद के साथ गीत भी गाती थीं। अकबर के दरबार में संगीत सम्राट तानसेन नवरत्न थे। डागर बंधुओं ने भोपाल में ध्रुपद गायन केन्द्र शुरू किया। ग्वालियर ख्याल गायकी का पैतृक घराना रहा है। श्री देशपांडे ने सरोद वादक उस्ताद हाफिज अली खाँ और महाराजा जीवाजी राव सिंधिया का भी स्मरण किया।
प्रारंभ में पर्यटन निगम के कार्यपालक निदेशक श्री पुष्पेन्द्र सिंह एवं श्री ओ.व्ही. चौधरी ने श्री देशपांडे का स्वागत किया और व्याख्यान माला के उद्देश्यों से अवगत करवाया।