देश में पिछले कुछ सालों के दौरान राजनेताओं की नई पीढ़ी ने राजनीति की कमान संभाली है। इनमें से एक वो पीढ़ी है जो अंग्रेजीदां स्कूलों से पढ़कर निकली है और जिनके लिए राजनीति प्रबंधन की किताबों से संचालित होती है। दूसरी पीढ़ी वो है जिसने सरकारी स्कूलों में पढ़ाई की, समाज की पाठशाला से सामाजिक जीवन के संस्कार और सबक लिए। अनुभव बताता है कि जो लोग समाज की पाठशाला से सबक लेकर निकले वे उन लोगों के मुकाबले अधिक प्रभावी साबित हुए जिन्होंने राजनीति को प्रबंधन की किताबों के जरिए जानने और चलाने की कोशिश की। दरअसल समाज से सबक लेकर आने वाली पीढ़ी ने राजनीतिक के वो पाठ तैयार किए हैं जो प्रबंधन की किताबों का हिस्सा होने की ताकत रखते हैं। भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी को और क्षेत्रीय स्तर पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। दोनों के बीच एक समानता यह भी है कि दोनों ने ही बहुत साधारण या यूं कहें कि विपन्न एवं विपरीत स्थितियों में अपने जीवन की शुरुआत की। दोनों ही उस धारा से आते हैं जहां नेता जमीन से ऊपर उठता है न कि आसमान से जमीन पर उतारा जाता है। जाहिर है जब कोई जमीन से ऊपर उठेगा तो उसे अपने आप को साबित करने के लिए कड़े संघर्ष और प्रतिस्पर्धा से भी गुजरना होगा। चाहे मोदी हों या शिवराज दोनों की राजनीतिक यात्रा इस संघर्ष की गवाह है। आज वे भले ही देश अथवा प्रदेश का नेतृत्व कर रहे हों लेकिन इस सर्वोच्च शिखर की सीढि़यां चढ़ने से पहले उन्होंने समाज को जाना, उसके दुख दर्द को समझा और उस समझ के आधार पर खुद की दिशा तय की। उनके लिए राजनीति सत्ता का प्रबंधन नहीं वरन समाज सेवा का जरिया रही।
मध्यप्रदेश का नेतृत्व संभालते हुए शिवराजसिंह को नौ साल हो गए हैं। प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों ही मोर्चों पर उन्होंने अपनी ऊर्जा और सोच को जमीन पर उतारने की कोशिश की है। इसका नतीजा भी सामने है। जो प्रदेश एक दशक पहले बीमारू राज्यों की पंक्ति में खड़ा था आज वो कई मामलों में देश के विकसित कहे जाने वाले राज्यों से आगे है। एक समय था जब प्रदेश में सोयाबीन की प्रचुर खेती को लेकर इसे सोयाबीन प्रदेश की संज्ञा दी गई थी। लेकिन असलियत में उसकी छवि ऐसे प्रदेश की थी जो इस कदर सोया हुआ था जिसे कोई भी बीन जगा न सकती हो। पिछले एक दशक में हालात पूरी तरह बदल गए हैं। आज मध्यप्रदेश न सिर्फ एक जाग्रत प्रदेश है बल्कि देश के कई राज्य यहां की योजनाओं और उपलब्धियों को उदाहरण के रूप में ले रहे हैं। देश में जहां विकास दर के लक्ष्य को पाने में पसीने आ रहे हैं वहां मध्यप्रदेश विकास दर के मामले में लगातार सुधार कर रहा है। कृषि की विकास दर ने तो विशेषज्ञों को हैरान कर दिया है। इतने कम समय में किसी भी राज्य ने 24.9 फीसदी की कृषि विकास दर हासिल नहीं की। शिवराज सरकार ने खेती को लाभ का धंधा बनाने का जो अभियान चलाया उसका परिणाम यह रहा कि भारत सरकार ने प्रदेश को दो बार कृषि कर्मण अवार्ड से नवाजा। दरअसल खेती की यह प्रगति प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व के जमीन से जुड़ाव का प्रतीक है। आज भारत खेती किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुख्ता होने के कारण ही वैश्चिक परिदृश्य पर आने वाले अप्रत्याशित आर्थिक उतार चढ़ाव और मंदी का प्रभावी ढंग से सामना कर सका है। इस दृष्टि से देखें तो खेती किसानी में मध्यप्रदेश की उपलब्धि हमारे पारंपरिक और स्वदेशी मॉडल की सफलता का जीता जागता उदहारण है।
राजनीतिक नेतृत्व की जमीन से जुड़ी इसी सोच ने जहां प्रशासन को संवेदनशील और जनोन्मुखी बनाने में मदद की वहीं कुशल संगठन क्षमता ने मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक जमीन को इतना पुख्ता किया है कि अब यहां एक तरह से भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौतियां खत्म होती दिखाई देने लगी हैं। चाहे विधानसभा हो या लोकसभा, नगरीय निकाय के चुनाव हों या अन्य चुनाव, सारे मोर्चों पर खुद को पूरी तरह झोंक कर और भाजपा को जीत दिलाकर शिवराज ने बता दिया है कि राजनीतिक जमीन पर उनकी पकड़ कितनी गहरी है। शिवराज ने जनता से जुड़ाव को कभी ढीला नहीं पड़ने दिया है। उनके राजनीतिक विरोधी भले ही उनकी शैली का उपहास करते हों लेकिन परिणाम बताते हैं कि उनकी इस शैली का डंका अभी तक तो प्रदेश में जमकर बज रहा है। सरकार की उपलब्धियों को उनके विरोधी भी नकार नहीं पाए, यही कारण है कि खुद मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने कई मौकों पर उनके कामकाज की सराहना की। उस समय मध्यप्रदेश दौरे पर आने वाले केंद्रीय मंत्रियों ने अलग अलग क्षेत्रों में हो रहे कामों का न सिर्फ नोटिस लिया बल्कि राज्य सरकार के प्रयासों की सार्वजनिक मंचों पर सराहना की। कई राज्यों ने यहां की योजनाओं को अपने यहां लागू करने में रुचि दिखाई, इनमें लाड़ली लक्ष्मी और बुजुर्गों की तीर्थदर्शन योजना का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। इसके अलावा भ्रष्टाचार से निपटने के लिए ई टेण्डरिंग और ई पेमेंट, बिजली की समस्या से निजात दिलाने के लिए फीडर डिविजन, सिंचाई और पानी की समस्या हल करने के लिए नदी जोड़ो योजना जैसे कई नवाचार प्रदेश में हो रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि शिवराजसिंह को इस अवधि में कोई चुनौती नहीं मिली। पार्टी के अंदर हो या बाहर। उन्होंने हर चुनौती का सामना किया और अजातशत्रु की तरह निकलकर सामने आए। यदि यह कहा जाए कि शिवराज की इस सफलता का राज उनके व्यवहार की विनम्रता और सहजता में छिपा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजा के मुंह से अकसर या तो अहंकार बोलता है या वैभव। आजादी के बाद देश में क्षेत्रीय स्तर पर राजनेताओं की जो नई पीढ़ी आई है उसमें शिवराजसिंह को ऐसे नेता के रूप में पहचान मिली है जिसने इतनी बड़ी सफलता पाने के बाद भी अपनी विनम्रता और सरलता को खोया नहीं है। सहजता और सर्वसुलभता का गुण किसी राजनेता को कहां से कहां पहुंचा सकता है इसका उदाहरण यदि देखना हो तो शिवराजसिंह में देखा जा सकता है। संचार के बदलते संसाधनों और तौर तरीकों ने राजनीति ही नहीं बल्कि पूरी वर्तमान पीढ़ी की भाषा बदल दी है। उसमें अजीब किस्म की व्यापारिक गंध आती है। लेकिन ऐसा लगता है कि शिवराजसिंह ने अपने व्यवहार और भाषा में इस व्यापारिक गंध को मिट्टी की गंध पर हावी नहीं होने दिया है। यही कारण है कि आज भी चुनावी सभाओं में उनके भाषण लोग सुनते हैं। उनका असर होता है। लोगों को लगता है जैसे अपने ही बीच का कोई व्यक्ति अपनेपन के साथ संवाद कर रहा हो। उनके आलोचक कहते हैं कि उनके संवाद और संचार में शब्दों, वाक्यांशों का काफी दोहराव होता है, घूम फिरकर अपनी सबसे महत्वाकांक्षी लाड़ली लक्ष्मी योजना का जिक्र करना उनका शगल हो गया है। ‘’मेरे प्यारे भांजे भांजियों’’ एक तरह से उनका तकिया कलाम हो गया है। लेकिन इस सबसे बावजूद इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ये ही बातें और सहज संवाद प्रदेश की जनता में, खासतौर से ग्रामीण क्षेत्र में उन्हें आज भी उतना ही लोकप्रिय बनाए हुए है। उनके तमाम राजनीतिक विरोधी इस खास स्टाइल का तोड़ अभी तक तो नहीं ढूंढ पाए हैं।
शिवराजसिंह ने मुख्यमंत्री बनने के तत्काल बाद से ही जनता और विभिन्न वर्गों से सीधा संवाद करने के लिए अपने निवास पर मुख्यमंत्री पंचायत का सिलसिला शुरू किया था। ऐसे ही एक आयोजन वनग्राम पंचायत में जब एक व्यक्ति ने उन्हें राजा कहकर संबोधित किया तो शिवराज का जवाब था- ‘’मैं राजा नहीं हूं असली राजा तो वे हैं जो पंचायत में उपस्थित हुए हैं। मध्यप्रदेश मेरा मंदिर है और प्रदेशवासी मेरे लिये भगवान हैं और इनका पुजारी शिवराज सिंह चौहान है।‘’
जब वे लघु उद्यमी पंचायत में कहते हैं कि ‘’आज मुझे अपने गांव में छेनी-हथौड़ा चलाने वाले मन्नू लोहार, कन्नी-खुरपा चलाने वाले कन्छेदी दादा और और गंगा बढ़ई जरूर याद आते हैं…” तो यह संवाद सहजता से लोगों को अपने साथ जोड़ लेता है।
बजुर्गों की पंचायत में उनका यह कहना, उन्हें सहज ही पूरे परिवार का अपना बना देता है कि – ‘’बुजुर्गों के बेटे-बेटियां भले ही तीर्थ न करवाएं, यह दायित्व मध्यप्रदेश सरकार निभाएगी, वह श्रवण कुमार की भूमिका में उन्हें तीर्थ कराएगी। बुजुर्गों का आशीर्वाद हमारा सम्बल है….’’
मध्यप्रदेश ने तीखे तेवर और मिर्च जैसे मिजाज वाले मुख्यमंत्री भी देखे हैं, लेकिन उन तेवरों के साथ उनका राजनीतिक पराभव भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। ऐसे में एक स्वाभाविक या नैसर्गिक अपनापन लिए चेहरा आया और उसने प्रदेश की पूरी राजनीतिक धारा बदल दी। राजनीतिक विशेषज्ञ या विश्लेषक किसी भी कारण से यथार्थ को नकारने में अपनी शान समझते हों लेकिन असलियत को झुठलाया नहीं जा सकता। कहा जा सकता है कि मध्यप्रदेश में वर्तमान नेतृत्व अतीत के अनुभवों और आज की चुनौतियों से सबक लेकर भविष्य की राह बना रहा है। जमीन से आदमी कितना ही ऊपर उठ जाए लेकिन वह चाहे तो मिट्टी की खुशबू से हमेशा जुड़ा रह सकता है। शिवराज में मिट्टी की यह खुशबू मिटी नहीं है, तमाम तरह के डिओ और रसायनिक खुशबूदार स्प्रे के विज्ञापनी युग में भी इस खुशबू का एक अलग ही अंदाज, अलग ही असर है। इससे तैयार होने वाला राजनीतिक रसायन कितना असरदार हो सकता है इसका उदाहरण मध्यप्रदेश में भाजपा की लगातार 11 साल से चल रही सरकार है, जिसमें से नौ साल अकेले शिवराज के हैं।