पिछले कई दिनों से एक विवाद मीडिया की सुर्खियों में है। यह विवाद ज्योतिषपीठाधीश्वर एवं द्वारकाशारदापीठाधीश्वर शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के उस बयान से पैदा हुआ है जिसमें शंकराचार्य ने कहा है कि शिरडी के साईं बाबा भगवान नहीं हैं और हिन्दुओं को उनकी पूजा अर्चना नहीं करनी चाहिए। शंकराचार्य का यह भी कहना है कि हिन्दू मंदिर परिसरों में साईं के मंदिर की स्थापना या मंदिरों में हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों के समकक्ष साईं की मूर्ति स्थापित करना गलत है। उन्होंने साईं को मुस्लिम बताते हुए उनके अनुयायियों की बढ़ती संख्या को ब्रिटेन का षड़यंत्र करार दिया और कहा कि यह सब भारत में फूट डालने और उसकी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने की नीति का हिस्सा है।
वैसे असल बात तो यह है कि इस तरह के विवाद अनावश्यक हैं और देश जब परिवर्तन के संक्रमण काल से गुजर रहा हो तब ऐसे विवाद हमारे विकास की संभावनाओं को कमजोर करते हैं। दुर्भाग्य से हमारे देश में इस तरह के विवादों पर बहस करने के लिए कुछ लोगों के पास बहुत समय है। लेकिन ऐसे विवाद समाज की उस ऊर्जा का अपव्यय ही करते हैं जो देश की भलाई या समाज की प्रगति में लग सकती है अथवा लगनी चाहिए। प्रथम दृष्टि में तो मुझे लगता है कि शंकराचार्य ने भी अपना बयान किसी सोची समझी रणनीति या कोई अभियान चलाने के इरादे से नहीं दिया था। सहज रूप से दिए गए उनके बयान में मीडिया ने अपनी टीआरपी संभावनाएं देखीं और उसे लपक लिया। मीडिया में विवाद खड़ा होते ही दोनों पक्षों को इसमें अपने लिए भी प्रचार प्रसार की संभावना नजर आई और यह मुद्दा बन गया। शंकराचार्य के अचानक आए इस बयान से कई सवाल उपजते हैं। पहला सवाल व्यक्ति की आस्था का है। दूसरा सवाल साईं प्रतिमाओं की स्थापना और सनातन धर्म के मंत्रों आदि की साईं के लिए पैरोडी तैयार करने का है। तीसरा सवाल साईं के मुस्लिम होने का है। चौथा सवाल साईं के प्रचार प्रसार के पीछे सनातन धर्म को क्षति पहुंचाने के अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र का है। पांचवां सवाल इस पूरे विवाद में बाजार की भूमिका का है और अंतिम एवं सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस विवाद से हिन्दू अथवा सनातन धर्म को कोई लाभ होगा?
शंकराचार्य के बयान का सबसे पुरजोर विरोध इस आधार पर हो रहा है कि कौन किसकी आराधना करे या कौन किसको पूजे यह व्यक्ति की निजी आस्था का प्रश्न है और उसके बारे में कोई फतवा जारी कर लोगों को उनकी निजी आस्था के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। हरेक को अपने हिसाब से अपना धर्म चुनने या उसे मानने की आजादी है। आप अन्य धर्म या उसकी मान्यताओं व परंपराओं से भले ही असहमत हों लेकिन उसे ऐसा करने से रोक नहीं सकते।
जहां तक साईं प्रतिमाओं व उनके नाम पर मंत्र व श्लोक की पैरोडी बनाने का है तो हमारे यहां तो पत्थर पर भी सिंदूर लगाकर उसे पूजने की परंपरा है। फिर किसी दूसरे को ऐसा करने से कैसे रोका जा सकता है। हिन्दू मंदिर परिसर में अलग से साईं मंदिर की स्थापना या हिन्दू मंदिरों में राम और कृष्ण के समकक्ष साईं प्रतिमाओं की स्थापना का निर्णय भी उन परिसरों का निर्माण करने वाले या उनका संचालन करने वाली संस्थाओं के विवेक पर छोड़ दिया जाना चाहिए। मंत्रों, श्लोकों व आरती का मामला भी विवादास्पद है। हमारे यहां तो नेताओं और अभिनेताओं तक के मंदिर और मूर्तियां स्थापित होती रही हैं। उनके स्तुतिगान के लिए श्लोक, आरतियां और चालीसाएं रची जाती रही हैं। उन पर तो कभी सवाल नही उठा। आप को देश में हिन्दू देवी देवताओं के मंदिर या उनके नाम भी ऐसे मिलेंगे जो आप सोच नहीं सकते। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में ही एक देवी मंदिर ‘कर्फ्यू वाली माता’ के नाम से है। इसी तरह डिब्बे वाले भोलेनाथ, बाल्टी वाले हनुमानजी, कटोरी वाली देवी टाइप के कई मंदिर या प्रतिमाएं देश के विभिन्न भागों में पूजी जाती हैं, क्या वो हिन्दू देवी देवताओं का अपमान नहीं है? देश में कई स्थानों पर लक्ष्मीनारायण के मंदिर एक बड़े औद्योगिक घराने के नाम पर जाने जाते हैं वो क्या है? और मंदिरों की छोडि़ए आज शर्मनाक मामलों में जेल में पड़े कई ‘’संत’’ स्वयं को हिन्दू देवी देवताओं के अलग अलग रूपों में प्रस्तुत कर अपनी पूजा करवाते रहे हैं वो क्या है? आज टेलीविजन पर जलेबी समोसे खिला कर लोगों की मनोकामना पूरी करने वाले कथित भगवानों का आप क्या करेंगे जिनके हजारों अनुयायी पैदा हो गए हैं और अपनी बात ही उन बाबाओं के चरणों में कोटि कोटि प्रणाम से शुरू करते हैं। आज भी देश के विभिन्न भागों में सत्यनारायण की कथा हो, रामकथा या भागवत कथा उसे फिल्मी पैरोडियों के रूप में गाकर कई कथावाचक अपनी दुकान चला रहे हैं उसे क्या माना जाए? यदि ये सब हिन्दू या सनातन धर्म को अशुद्ध करने वाली बातें हैं तो इन सभी का समान रूप से समग्र प्रतिकार होना चाहिए। अकेले साईं का विरोध ही क्यों? हम अपने मंदिर परिसरों में किसी अन्य की प्रतिमा स्थापना का विरोध करने से पहले यह तो देख लें कि हमारे मंदिर परिसरों की हालत क्या होती जा रही है। हमारे पूजा अर्चना संस्कारों में जिस शुद्धता और पवित्रता को सर्वोच्च माना गया है उसका लेशमात्र भी हमें क्या इन मंदिर परिसरों के आसपास दिखाई देता है? क्या हमने कभी इसके लिए कोई अभियान चलाया? क्या हमारे हजारों लाखों अनुयायियों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे तीर्थस्थलों व प्रसिद्ध मंदिर परिसरों के आसपास चलने वाली दुकानदारी और पूजा व धार्मिक संस्कार कराने के नाम पर होने वाली खुली लूट का विरोध करें। आज ही अखबारों में खबर छपी है कि उज्जैन के महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग को अभिषेक सामग्री से खतरा है और इस सामग्री के लगातार उपयोग से शिवलिंग का क्षरण होता जा रहा है। क्या हम इसके लिए कोई पहल करेंगे कि अब ऐसी कोई पूजा अर्चना न हो जिससे शिवलिंग के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो जाए? मैंने करीब एक साल पहले इटारसी के पंडित पुजारी संघ के उस निर्णय की सराहना करते हुए आलेख लिखा था जिसमें संघ ने उन मंदिरों में पूजा अर्चना करने से इनकार कर दिया था जो नाली के किनारे या नालियों पर ही बने हैं। क्या हम देश में ऐसे अपवित्र स्थलों पर बने मंदिरों या वहां स्थापित देवी देवताओं की प्रतिमाओं को लेकर कभी चिंतित हुए?
यह कहा गया कि साईं मुस्लिम थे और उनकी पूजा कैसे हो सकती है। साईं मूल रूप से कौन थे इसको लेकर आज भी कई विवाद और धारणाएं हैं। उनकी पूजा होनी चाहिए या नहीं इस प्रश्न को दरकिनार कर यदि हम सिर्फ इस बात पर ही सोचें कि वे हिन्दू थे या मुसलमान तो क्या हम अब तक इस सामान्य धारणा को ही प्रचारित नहीं करते आए हैं कि इस देश में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों के पूर्वज तो हिन्दू ही थे। उनके नाम और संस्कार भले ही बदल गए हों लेकिन उनमें से अधिकांश का रक्त और गुणसूत्र तो आर्यों का ही है। मूल रूप से वे हमारे ही पूर्वजों के वंशज हैं। मुझे पिछले दिनों बताया गया कि कश्मीर में गूजरों की एक जाति जो वैसे तो मुस्लिम है लेकिन आज भी देवी की पूजा करती है। और यदि साईं भी उसी परिभाषा के मुसलमान हैं तो क्या हम इस भारत देश के वासियों के पूर्वजों के बारे में अपनी अवधारणा अब बदल रहे हैं?
अगला मुद्दा साईं के प्रचार प्रसार के पीछे अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र और बाजार के प्रभाव का है। मेरे हिसाब से इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। शंकराचार्यजी ने इस बात के प्रमाण में विस्तार से कोई और बात नहीं की है कि इस साजिश के पीछे इंग्लैंड का हाथ है। यदि उनके पास कोई प्रमाण हैं तो उन्हें देशहित में सामने लाया जाना चाहिए। हरेक धर्मावलंबी को अपने धर्म की रक्षा करने और उस पर होने वाले किसी भी प्रहार को लेकर चिंतित होने और समाधानकारक उपाय करने का अधिकार है लेकिन एक बात यहां जान लेना आवश्यक है कि सैकड़ों वर्षों की गुलामी, इस्लाम और ईसाई धर्म के आक्रामक प्रभाव और तत्कालीन शासकों के तमाम प्रयासों के बावजूद यदि भारतभूमि से सनातन धर्म नष्ट नहीं हो पाया है तो अब क्या नष्ट होगा? हमें हिन्दू या सनातन धर्म को इतना छुई मुई भी नहीं मान लेना चाहिए कि इस तरह की घटनाओं से उसका ह्रास हो जाएगा। हां, बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण सचेत रहने की आवश्यकता जरूर है। और मेरे हिसाब से मूल मुद्दा बाजार का ही है। इन दिनों भारत में धर्म का हजारों करोड़ रुपए का बाजार है जो गांव से लेकर महानगरों तक फैला है। इसी बाजार के कारण धार्मिक मान्यताओं, संस्कारों, आचार-विचार, पूजा-अर्चना पद्धति आदि अनेक क्षेत्रों में भारी बदलाव आया है। इस बाजारवाद के चलते थोड़े थोड़े अंतराल के बाद एक ऐसा दौर आता है जब कोई नया देवी देवता उदित हो जाता है। करीब चार दशक पूर्व ऐसा ही बाजार संतोषी माता के इर्द गिर्द तैयार कर लिया गया था। जब भी ऐसी कोई घटना होती है बाजार तत्काल उसे लपक लेता है और उसमें संभावनाएं तलाशता हुआ उसकी ब्रांडिंग और मार्केटिंग करने लगता है। हजारों लाखों लोगों की रोजी रोटी इसी धर्म (अधर्म?) से चलती है। मुझे लगता है साईं का मामला भी धर्म से कम और बाजार एवं उसमें अपनी हिस्सेदारी से जुड़ा हुआ ज्यादा है।
सबसे अंतिम बात यह कि इस विवाद से हिन्दू या सनातन धर्म को क्या फायदा होगा? मेरा मानना है कि यदि शंकराचार्यजी इस मुद्दे को सनातन धर्म की हानि के रूप में देख रहे हैं और वे सनातन या हिंदू धर्म का भला ही चाहते हैं तो उन्हें अपनी ‘’रणनीति’’ बदलनी होगी। क्योंकि इस विवाद से सनातन या हिंदू धर्म का भला नहीं वरन नुकसान होने की आशंका अधिक है। याद कीजिए 18 वी 19 वीं सदी का भारत जब वर्ण व्यवस्था के विकृत स्वरूप के चलते हमारे ही समाज में छुआछूत की बुराई आरंभ हुई थी और दलितों व अन्य निम्न वर्गों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। उसका परिणाम क्या हुआ? आत्मसम्मान पाने के लिए कई लोगों ने इस्लाम या ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। बुद्ध को हमारे यहां विष्णु का अवतार माना गया है लेकिन एक समय था जब देश के लाखों हिन्दुओं ने बौद्ध धर्म इस तरह अपनाया था मानो वे हिन्दू धर्म से अलग कोई धर्म अपना रहे हों। कारण चाहे जो भी हो पर इस समय देश विदेश में साईं के अनुयायियों या उन पर आस्था रखने वालों की संख्या करोड़ों में है। इनमें से 99 प्रतिशत हिन्दू ही हैं। शंकराचार्यजी भले ही साईं को मुस्लिम मानते हुए उनकी पूजा अर्चना का निषेध करें लेकिन साईं को मानने वाले मूलत: हिन्दू धर्म को ही मानते हैं और राम कृष्ण उनके अनाराध्य नहीं हैं। साईं अन्यान्य कारणों से उनकी अतिरिक्त आस्था का कारण बन गए हैं। पर वे मूलत: सनातन धर्म के ही अनुयायी हैं। लेकिन यदि साईं भक्तों को सनातन धर्म में अछूत बताने की कोशिश हुई तो संभव है ये करोड़ों लोग समूहबद्ध होकर एक दिन बौद्ध धर्म की तरह साईं धर्म की स्थापना कर लें। चूंकि इस समय बाजार भी उनके साथ है इसलिए उनके पास प्रभाव भी होगा और ताकत भी। हमें सोचना होगा कि क्या ऐसी स्थिति सनातन धर्म के लिए उचित होगी? क्या इससे हिन्दू धर्म को कोई लाभ होगा? यदि नहीं, तो ऐसे अनावश्यक विवाद खड़ा करने का कोई औचित्य नहीं है।
गिरीश उपाध्याय
(लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)