कहा जा रहा है कि 16 वीं लोकसभा का चुनाव देश में मीडिया और राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए शोध का विषय होगा। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस चुनाव ने कई मायनों में भारतीय राजनीति के परिदृश्य को बदला है। पहली बार देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिलने जा रहा है जो आजाद भारत में पैदा हुआ था। (कुछ लोग देश के अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी को लेकर इस मामले में भ्रम में हो सकते हैं लेकिन राजीव गांधी का जन्म भी 20 अगस्त 1944 को हुआ था यानी आजादी से करीब तीन साल पहले, हां यह बात जरूर है कि जब वे प्रधानमंत्री बने तब उनकी आयु 40 वर्ष थी) नरेंद्र मोदी का जन्म 17 सितंबर 1950 को हुआ, यानी आजादी के तीन साल बाद। और जब वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं तब उनकी उम्र है 63 वर्ष। मोदी ने आजादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी के देश का नेतृत्व संभालने पर बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने कहा- मुझे देश के लिए मरने का मौका तो नहीं मिला लेकिन देश के लिए जीने का मौका मिला है और मैं देश के लिए ही जिऊंगा।
तो हम बात कर रहे थे 16 वीं लोकसभा के चुनाव के फलितार्थ की। इन चुनावों ने साबित कर दिया है कि आत्मविश्वास और दृढ़संकल्प जैसे शब्दों के मायने क्या हैं और जीवन में उनका उपयोग किस तरह किया जा सकता है। मोदी की राजनीतिक यात्रा आसान नहीं रही है। और आसान ही क्यों, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि वह उनके लिए अब तक एक तरह से कांटों का ताज ही रही है। क्या क्या आरोप उन्होंने नहीं झेले, देश में उन्हें खलनायक की तरह से प्रस्तुत करने की हर स्तर पर कोशिश हुई। गुजरात के दंगों का असली सच क्या है, हो सकता है कि देश कभी ना जान पाए। यह सच या तो उन लोगों की अंतरात्मा जानती होगी जिन्होंने उसका दर्द भोगा है या नरेंद्र मोदी की अंतरात्मा। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने उन दंगों के बाद अपने गुजरात दौरे में जिस मंच पर मोदी को राजधर्म निभाने की जो सलाह दी थी उसी मंच पर मोदी ने वाजपेयी के कानों में फुसफुसा कर कहा था- ‘हम भी तो वही कर रहे हैं साहब।‘ दोनों के ‘राजधर्म’ का आशय क्या था और क्या दोनों के राजधर्म अलग अलग थे, ये सारे सवाल अब इतिहास का हिस्सा हैं। आज मोदी उस कलंक की कालिख को पीछे छोड़ देश के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आए हैं। यानी देश ने उनके अतीत को बिसराकर उनमें अपना भविष्य देखा है।
कहना बहुत आसान है और पारंपरिक रूप से हर बार ऐसा कहा ही जाता है कि अब सारी कटुताएं और काली स्मृतियां भुलाकर देश को चमकीले रास्ते पर ले जाने का संयुक्त और समन्वित प्रयास होना चाहिए। लेकिन जो देश या व्यक्ति के भविष्य की राह में साधक या बाधक बनकर खड़ा न हो जाए वह इतिहास ही क्या?इतिहास या अतीत ने मोदी की राह में भी खड़ा होने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने अपने आत्मविश्वास और दृढ़संकल्प से खुद के इतिहास के ही टुकड़े कर दिए। उन्होंने गोधरा के इतिहास को पीछे धकेलते हुए चाय वाले बच्चे के इतिहास को अपनी ढाल और तलवार दोनों बना लिया। उस इतिहास की मार इतनी जबरदस्त थी कि प्रचार का अंत आते आते तो केवल वही नजर आया। जिसके पास सौ साल से भी अधिक का इतिहास था,जिस पार्टी को भारत की आजादी का इतिहास गढ़ने का गौरव प्राप्त है, वह कांग्रेस अपने उस चमकीले इतिहास को ही नहीं भुना पाई। मोदी ने अपने इतिहास की छाती पर चढ़कर भविष्य की बुनियाद खड़ी कर ली तो कांग्रेस ने राहुल गांधी के रूप में अपना भविष्य चुनकर खुद के लिए इतिहास बनने का मार्ग प्रशस्त कर लिया। यहां कहने का आशय यह कतई नहीं है कि चुनाव के दौरान दिया गया कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सच होने जा रहा है और निकट भविष्य में कांग्रेस पूरी तरह खत्म हो जाएगी। ऐसा होना भी नहीं चाहिए। लेकिन हां,ऐसा जरूर लगता है कि अब वो कांग्रेस तो जरूर खत्म हो जाएगी जिसकी अट्टालिका अपने इतिहास की नींव पर खड़ी हुई थी। आप इस घटना को महात्मा गांधी की इच्छानुसार कांग्रेस की समाप्ति के रूप में देखें या उसके कायांतरण के रूप में लेकिन अब जो भी कांग्रेस होगी उसे पहला काम नई इमारत की नींव के लिए गड्ढे खोदने का करना होगा।
चुनाव परिणाम आने के बाद चारों ओर यह सवाल बड़ी शिद्दत से पूछा जा रहा है कि आखिर कांग्रेस क्यों हारी?तमाम विशेषज्ञ इसका अपने अपने हिसाब से जवाब दे रहे हैं, कोई मनमोहनसिंह और उनकी सरकार की नाकामियों को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कोई राहुल गांधी के अल्पविकसित नेतृत्व को। भाजपा के पितृपुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने भी संकेतों में कहा कि ऐसी सरकार और पार्टी उन्होंने कभी नहीं देखी जो खुद ही मैदान छोड़ दे। आडवाणीजी का कथन अपनी जगह है, लेकिन मैं समझता हूं कि इस बार के चुनाव परिणामों को केवल कांग्रेस की कमजोरी या देश में बदलाव लाने की जनता की इच्छा के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए। इसमें नरेंद्र मोदी की भूमिका यह रही कि उन्होंने कांग्रेस के बेहतर विकल्प के रूप में न सिर्फ खुद को तैयार किया बल्कि वे जनता को यह भरोसा दिलाने में कामयाब भी रहे कि यदि देश से कांग्रेस की सरकार को उखाड़ फेंका जाए तो उसके स्थान पर बैठाने के लिए एक नया नेतृत्व आपके सामने है। इसके लिए मोदी ने अपनी मातृभूमि गुजरात को आधार बनाया और लोगों से कहा कि जब मैं गुजरात में ऐसा कर सकता हूं तो देश में भी ऐसा संभव है। लोगों ने इस बात पर भरोसा किया और इस भावना से मोदी को वोट दिए कि एक बार उन पर भरोसा करके तो देखा जाए। इस हिसाब से इस बदलाव में कांग्रेस के प्रति गुस्से के साथ ही मोदी के प्रति सकारात्मकता का भी बहुत बड़ा योगदान है। केवल कांग्रेस के प्रति गुस्से को ही आधार बनाया जाएगा तो ऐसा कोई भी आकलन मोदी की कोशिशों या उनके योगदान के प्रति अन्याय होगा। जिस तरह से उन्होंने भाजपा या एनडीए का पूरा चुनाव अपने कंधों पर लड़ा वह अभूतपूर्व है। देश में दूसरा ऐसा नेतृत्व केवल श्रीमती इंदिरा गांधी का रहा है जिन्होंने आपातकाल की कालिख को ढोते हुए अपने बूते पर पूरे देश में सघन प्रचार कर 1980-81 में पार्टी को फिर सत्ता के सिंहासन तक पहुंचा दिया था। जो भरोसा उस समय जनता ने इंदिरा गांधी पर किया था उससे भी कई गुना ज्यादा भरोसा इस बार मोदी पर किया है। अब यह मोदी पर है कि वे जनता के इस भरोसे पर कितना खरा उतरते हैं। वरना इस देश ने भाजपा के अब तक के सार्वकालिक नेता अटलबिहारी वाजपेयी को भी ऐसा ही प्यार और समर्थन दिया था लेकिन दुर्भाग्य से वे सही मायनों में दूसरा कार्यकाल नहीं पा सके। ‘इंडिया शाइनिंग’ नहीं हो पाया।
विडंबना देखिए कि देश में जितनी लोकप्रियता अटलबिहारी वाजपेयी की थी उतनी भाजपा के शायद ही किसी नेता की रही हो। लोकप्रियता के साथ ही साथ उनके व्यक्तित्व की बहुत बड़ी ताकत उनकी सर्वमान्यता भी थी,लेकिन 2004 के चुनाव में उनकी सरकार ने वाजपेयी को आगे रखने के बजाय ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया। यानी देश के विकास और चमकीले भविष्य को मुद्दा बनाया गया। दूसरी तरफ मोदी के प्रचार अभियान में यही नारा बदलकर व्यक्ति केंद्रित हो गया- ‘अबकी बार मोदी सरकार’। यानी वाजपेयी के समय भाव था कि देश का सितारा चमकेगा यदि आप वाजपेयी सरकार को चुनें, लेकिन मोदी के समय भाव यह है कि यदि आप मोदी को चुनते हैं तो देश तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ेगा। अगर आप ध्यान दें तो प्रचार के अंतिम दिनों में इसी भाव को विस्तार देते हुए यह नारा चला कि- ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।‘
वैसे तो तुलना का कोई अर्थ नहीं है और न ही ऐसी तुलना होनी चाहिए लेकिन वाजपेयी और नरेंद्र मोदी में बुनियादी फर्क आक्रामकता का है। 2004 को बीते हुए दस साल हो चुके हैं। इन दस सालों में देश में एक नई युवा पीढ़ी विकसित हुई है जो ढीलेढाले तौर तरीके या बुजुर्गाना अंदाज वाला नेतृत्व पसंद नहीं करती। मनमोहनसिंह के साथ सबसे बड़ी परेशानी यह नहीं थी कि वे काम नहीं कर पाए बल्कि असली मुद्दा यह था कि वे अपनी सरकार द्वारा किए अच्छे कामों को भी उतनी आक्रामकता के साथ जनता के सामने पेश नहीं कर पाए। आज की पीढ़ी की शब्दावली में कहें तो देश की राजनीति के हिसाब से विपक्षी दल की सरकार होने के बावजूद मोदी ने जिस प्रभावी तरीके से गुजरात सरकार के कामकाज की ‘मार्केटिंग’ की वैसी मार्केटिंग मनमोहनसिंह केंद्र की सरकार के मुखिया रहते हुए नहीं कर सके। यह उम्मीद कांग्रेस को राहुल गांधी से थी लेकिन उन्होंने भी एक प्रशिक्षु की भांति व्यवहार किया। यहां दागी नेताओं संबंधी केंद्र सरकार के बिल को लेकर उनके द्वारा सार्वजनिक रूप से किए गए व्यवहार का उदाहरण दिया जा सकता है।
नरेंद्र मोदी ने टीम एनडीए के सीईओ की तरह से व्यवहार किया। मार्केटिंग की भाषा में उन्होंने अपने मुद्दों की कारपेट बाम्बिंग करके कांग्रेस को संभलने का मौका ही नहीं दिया। पूरे चुनाव में उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता था। आज चुनाव परिणाम आने के बाद यश या अपयश की भागीदारी पर कई कोणों से विश्लेषण किया जा सकता है लेकिन आत्मविश्वास की पराकाष्ठा देखिए कि प्रचार अभियान में मोदी खम ठोककर कह रहे थे कि इस बार देश के किसी भी राज्य में कांग्रेस दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी। उनका दावा था कि कांग्रेस इस बार ट्रेन की एक बोगी में सिमट कर रह जाएगी। याद कीजिए उनका वह वाक्य जिसमें वो कहते थे-‘भाइयो और बहनों, भाजपा की सरकार बनना तो तय है, अब इसे कोई नहीं रोक सकता।‘ आज मोदी का यह आत्मविश्वास सच बनकर सबके सामने है।
राजनीतिक जोखिम की ही बात करें तो इतने बड़े बड़े दावे करके मोदी जोखिम के शिखर को छू रहे थे। उन्हें यह भी पता ही होगा कि यदि वे इन दावों को जमीन पर नहीं उतार पाए तो, दूसरे दलों बात तो छोड़ दें, खुद उनके अपने दल के लोग ही उन्हें जीने नहीं देंगे। यही कारण था कि मोदी ने यह चुनाव जान की बाजी लगाकर लड़ा। वे ऐसा तूफान लाए कि जो उससे टकराया उड़ गया। मोदी नाम की कश्ती में सवार होकर ऐसे ऐसे लोग तर गए जिन्होंने जिंदगी में कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, वे लोग भी तनकर खड़े हो गए जो राजनीतिक रूप से मुर्दाघरों में डाल दिए गए थे।
बात अब मोदी सरकार की चुनौतियों को लेकर हो रही है। निश्चित रूप से सबसे बड़ी चुनौती देश को संभालना नहीं बल्कि उन उम्मीदों को संभालना है जो मोदी से बंध गई हैं। उम्मीदों को न संभाल पाने का नतीजा क्या होता है यह अभी अभी पूरा देश आम आदमी पार्टी के हश्र के रूप में देख चुका है। देश जितना अटाटूट भरोसा देता है उतना ही वह उतावला भी होता है। देश के इस उतावलेपन को संभालना बहुत बड़ी चुनौती है। विपक्षी दल, वे जैसे भी जितने भी बचे हैं, रोज सवाल पूछेंगे कि ‘अच्छे दिन आ गए क्या?’ जनता और विपक्ष से ज्यादा उतावला मीडिया होगा जो रोज नए नए सवाल लेकर सरकार के दरवाजे पर खड़ा रहेगा। जनता को अपने काम का भरोसा दिलाकर वोट तो मांग लिए लेकिन अब जनता को यह भी समझाना होगा कि कोई भी बदलाव रातोंरात नहीं हो जाता, सरकार चाहे किसी की भी हो, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री कोई भी हो, वह जनादेश लेकर आता है, जादू की छड़ी लेकर नहीं कि, घुमाई और सारी कायनात बदल गई। कायनात बदलने में वक्त लगता है, यह वक्त सरकार को मिलना चाहिए। लेकिन सरकार को भी समझ लेना होगा कि जिंदा कौमें कयामत तक इंतजार नहीं करतीं।
(लेखक गिरीश उपाध्याय वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)