जब भी सरकारी कर्मचारियों के वेतन बढ़ने की बात होती है उन्हें हिक़ारत की निगाह से देखा जाने लगता है। जैसे सरकार काम न करने वालों का कोई समूह हो। सुझाव दिया जाने लगता है कि इनकी संख्या सीमित हो और वेतन कम बढ़े। आलसी, जाहिल से लेकर मक्कार तक की छवि बनाई जाती है और इसके बीच वेतन बढ़ाने की घोषणा किसी अर्थ क्रांति के आगमन के रूप में भी की जाने लगती है। कर्मचारी तमाम विश्लेषणों के अगले पैरे में सुस्त पड़ती भारत की महान अर्थव्यवस्था में जान लेने वाले एजेंट बन जाते हैं।
पहले भी यही हो रहा था। आज भी यही हो रहा है। एक तरफ सरकारी नौकरी के लिए सारा देश मरा जा रहा है। दूसरी तरफ उसी सरकारी नौकरों के वेतन बढने पर देश को मरने के लिए कहा जा रहा है। क्या सरकारी नौकरों को बोतल में बंद कर दिया जाए और कह दिया जाए कि तुम बिना हवा के जी सकते हो क्योंकि तुम जनता के दिए टैक्स पर बोझ हो। यह बात वैसी है कि सरकारी नौकरी में सिर्फ कामचोरों की जमात पलती है लेकिन भाई ‘टेल मी अनेस्टली’ क्या कारपोरेट के आँगन में कामचोर डेस्क टॉप के पीछे नहीं छिपे होते हैं?
अगर नौकरशाही चोरों,कामचोरों की जमात है तो फिर इस देश के तमाम मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि डियर आप कैसे कह रहे हैं कि आपकी सरकार काम करती है। इस बात को कहने के लिए ही आप करोड़ों रुपये विज्ञापनबाज़ी में क्यों फूँक रहे हैं। आपके साथ कोई तो काम करता होगा तभी तो नतीजे आते हैं। अगर कोई काम नहीं कर रहा तो ये आप देखिये कि क्यों ऐसा है। बाहर आकर बताइये कि तमाम मंत्रालयों के चपरासी से लेकर अफसर तक समय पर आते हैं और काम करते हैं। इसका दावा तो आप लोग ही करते हैं न। तो क्यों नहीं भोंपू लेकर बताते हैं कि नौकरशाही का एक बड़ा हिस्सा आठ घंटे से ज़्यादा काम करता है। पुलिस से लेकर कई महकमे के लोग चौदह पंद्रह घंटे काम करते हैं।
सरकार से बाहर के लोग सरकार की साइज़ को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं। कर्मचारी भारी बोझ हैं तो डियर सबको हटा दो। सिर्फ पी एम ओ में पी एम रख दो और सी एम ओ में सीएम सबका काम हो जाएगा। जनता का दिया सारा टैक्स बच जाएगा। पिछले बीस सालों से ये बकवास सुन रहा हूँ। कितनी नौकरियाँ सरकार निकाल रही है पहले ये बताइये। क्या ये तथ्य नहीं है कि सरकारी नौकरियों की संख्या घटी है? इसका असर काम पर पड़ता होगा कि नहीं। तमाम सरकारी विभागों में लोग ठेके पर रखे जा रहे हैं। ठेके के टीचर तमाम राज्यों में लाठी खा रहे हैं। क्या इनका भी वेतन बढ़ रहा है? नौकरियाँ घटाने के बाद कर्मचारियों और अफ़सरों पर कितना दबाव बढ़ा है क्या हम जानते हैं। लोगों को ठेके पर रख कर आधा वेतन देकर सरकार कितने लाख करोड़ बचा रही है, क्या कभी ये जोड़ा गया है?
इसके साथ साथ वित्त विश्लेषक लिखने लगता है कि प्राइवेट सेक्टर में नर्स को जो मिलता है उससे ज़्यादा सरकार अपने नर्स को दे रही है। जनाब शिक्षित विश्लेषक पता तो कीजिए कि प्राइवेट अस्पतालों में नर्सों की नौकरी की क्या शर्तें हैं। उन्हें क्यों कम वेतन दिया जा रहा है। उनकी कितनी हालत ख़राब है। अगर आप कम वेतन के समर्थक हैं तो अपनी सैलरी भी चौथाई कर दीजिये और बाकी को कहिए कि राष्ट्रवाद से पेट भर जाता है सैलरी की क्या ज़रूरत है। कारपोरेट में सही है कि सैलरी ज्यादा है लेकिन क्या सभी को लाखों रुपये पगार के मिल रहे हैं? नौकरी नहीं देंगे तो भाई बेरोज़गारी प्रमोट होगी कि नहीं। सरकार का दायित्व बनता है कि सुरक्षित नौकरी दे और अपने नागरिकों का बोझ उठाये। उसे इसमें दिक्कत है तो बोझ को छोड़े और जाये।
नौकरशाही में कोई काम नहीं कर रहा है तो ये सिस्टम की समस्या है। इसका सैलरी से क्या लेना देना। उसके ऊपर बैठा नेता है जो डीएम तक से पैसे वसूल कर लाने के लिए कहता है। जो लूट के हर तंत्र में शामिल है और आज भी हर राज्य में शामिल है। नहीं तो आप पिछले चार चुनावों में हुए खर्चे का अनुमान लगा कर देखिये। इनके पास कहाँ से इतना पैसा आ रहा है? वो भी सिर्फ फूँकने के लिए। ज़ाहिर है एक हिस्सा तंत्र को कामचोर बनाता है ताकि लूट कर राजनीति में फूँक सके। मगर एक हिस्सा काम भी तो करता है। हमारी चोर राजनीति इस सिस्टम को सड़ा कर रखती है, भ्रष्ट लोगों को शह देती है और उकसा कर रखती है। इसका संबंध उसके वेतन से नहीं है।
रहा सवाल कि अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए सरकारी कर्मचारियों का ही वेतन क्यों बढ़ाया जा रहा है। एक लाख करोड़ से किसानों के कर्ज़े माफ हो सकते थे। उनके अनाजों के दाम बढ़ाये जा सकते थे। किसान के हाथ में पैसा आएगा तो क्या भारत की महान अर्थव्यवस्था अँगड़ाई लेने से इंकार कर देगी? ये विश्लेषक चाहते क्या है? सरकार सरकारी कर्मचारी के सैलरी न बढ़ाये, किसानों और छात्रों के कर्ज़ माफ न करे, खरीद मूल्य न बढ़ाये तो उस पैसे का क्या करे सरकार? पाँच लाख करोड़ की ऋण छूट दी तो है उद्योगपतियों को। कारपोरेट इतना ही कार्यकुशल है तो जनता के पैसे से चलने वाले सरकारी बैंकों के लाखों करोड़ क्यों पचा जाता है। कारपोरेट इतना ही कार्यकुशल है तो क्यों सरकार से मदद माँगता है। अर्थव्यवस्था को दौड़ा कर दिखा दे न।
इसलिए इस वेतन वृद्धि को तर्क और तथ्य बुद्धि से देखिये। धारणाओं के कुचक्र से कोई लाभ नहीं है। प्राइवेट हो या सरकारी हर तरह की नौकरियों में काम करने की औसत उम्र कम हो रही है। सुरक्षा घट रही है। इसका नागरिकों के सामाजिक जीवन से लेकर सेहत तक पर बुरा असर पड़ता है। लोग तनाव में ही दिखते हैं। उपभोग करने वाला वर्ग योग से तैयार नहीं होगा। काम करने के अवसर और उचित मज़दूरी से ही उसकी क्षमता बढ़ेगी ।
(वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार)