हमारे साथ विडंबना यह है कि हमने अपनी सभ्यता, संस्कृति, संस्कारों, मान्यताओं, परंपराओं आदि का इतना राजनीतिकरण कर दिया है कि जब भी उनका जिक्र होता है, वे विवाद का विषय बन जाते हैं। ‘वंदे मातरम’ और ‘भारत माता की जय’ जैसे मामले इसके ताजा उदाहरण हैं। आधुनिक होने का अर्थ प्राचीन को खारिज करने में ही निहित मान लिया गया है। एक धारा ऐसी चली है, जो हमारे प्राचीन ज्ञान और सीख को आंख मूंदकर पोंगापंथ करार देने में ही भरोसा रखती है। इस धारा के अनुयायी हमारे पंरपरागत ज्ञान-विज्ञान और मूल्यों को सड़ा गला सिद्ध करने में ही अपनी जिंदगी खपा रहे हैं।
पानी बचाने के मामले में भी यही हुआ है। हमारे पूर्वजों ने जल संचयन और संरक्षण की जो व्यवस्थाएं की थीं, आज हम उन्हें पोंगापंथ मानकर खारिज करने पर तुले हैं। यह परंपराओं को खारिज करने का ही नतीजा है कि हम आज बूंद बूंद को मोहताज हो गए हैं। बचपन में मैंने मां को मालवी की एक कहावत अकसर दोहराते हुए सुना था, जो हमें सामाजिक सरोकार सिखाने के लिए बताई जाती थी, वो कहावत है-
आओ बैठो पीयो पाणी, तीन बात मोल नी आणी
यानी घर पर कोई अतिथि आए तो उससे आदरपूर्वक अंदर आने को कहिए, फिर बैठने को कहिए और बाद में उसे पानी पिलाइए। बुजुर्गों की सीख थी कि इन तीन बातों को करने में कोई पैसे खर्च नहीं होते। लेकिन आज जिन स्थानों से बूंद-बूंद पानी सहेजकर बमुश्किल एक घड़ा पानी जुटाने की खबरें आ रही हैं, वहां किसी को घर बुलाकर पानी के लिए पूछने की कोई सोच भी नहीं सकता।
अभी हाल ही में देश के खाद्य एवं नागरक आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान कह रहे थे कि भारत के पास खाद्यान्न का पर्याप्त् भंडार है और एकाध साल सूखा और पड़ जाए तो भी कोई संकट नहीं आने वाला। हम इस बात के पीछे छिपे संदेश को पढ़ें। भारत में खेती आज भी अधिकांशत: मानसून पर निर्भर है। जब अच्छा मानसून था तो हमारे किसानों ने इतनी अच्छी पैदावार दी कि हमारे अनाज भंडार ठसाठस भर गए। हालांकि बेमौसम हुई बारिश ने पिछले कुछ सालों में देश के कई राज्यों में खुले में पड़े हजारों टन अनाज को खराब किया, लेकिन उसके बावजूद हमारे अनाज भंडार भरे हुए हैं। यानी अच्छे समय में हमने समझदारी दिखाई और पर्याप्त उत्पादन कर गाढ़े समय के लिए व्यवस्था कर ली।
लेकिन पानी के मामले में हम ऐसा नहीं कर रहे हैं। जब अच्छी बारिश होती है तब भी और जब नहीं होती है तब भी, हमारा ध्यान पानी को सहेजने की ओर जाता ही नहीं। हमने बहुत प्रचार किया था बारिश के जल को सहेजने के अभियानों का। उसके लिए शहरों में ‘वॉटर हार्वेस्टिंग’ जैसे भारी भरकम शब्दों वाली योजनाएं बनाई गईं। नगरीय निकायों ने यह फैसला किया था कि बगैर ‘वॉटर हार्वेस्टिंग’ का प्रावधान किए मकानों के नक्शे पास नहीं किए जाएंगे। लेकिन आज यह शोध का विषय है कि वास्तव में इस फैसले पर अमल कितना हुआ और कितना वॉटर ‘हार्वेस्ट’ हुआ।
पानी के संकट के पीछे एक बड़ा कारण उदासीनता का है। जब हमारे पास पर्याप्त पानी होता है, तब एक तो हम उसके महत्व के प्रति उदासीन हो जाते हैं और दूसरे उसके इस्तेमाल को लेकर शाहखर्च बन जाते हैं। मुझे याद है कुछ साल पहले भोपाल में जब सारे जलस्रोत अच्छी बारिश के कारण लबालब हो गए थे तो नगर निगम में इस बात को लेकर भारी उठापटक चली थी कि भोपाल को सुबह शाम पानी दिया जाए। एक विचार यह भी बना था कि घर-घर पानी के मीटर लगा दिए जाएं और पानी की सप्लाई 24 घंटे की जाए। जो जितना पानी खर्च करे वो मीटर के हिसाब से उसका उतना भुगतान भी करे। कहा गया कि इससे पानी का दुरुपयोग रुकेगा और पानी की बचत होगी। पता नहीं राजधानी में कितने मीटर लगे हैं, कितने घरों में 24 घंटे पानी दिया जा रहा है और कितने घर उस 24 घंटे मिलने वाले पानी के बिल का, मीटर के हिसाब से भुगतान कर रहे हैं। मीटर की खरीद जरूर हो गई, लगवाई के ठेके भी हो गए, लेकिन पानी की बचत कितनी हुई, निश्चित रूप से इसका कोई लेखा जोखा किसी के भी पास नहीं होगा।
आदत की ही बात लें तो करीब सात साल पहले भोपाल में पानी की किल्लत जैसे हालात के दौरान राज्य मंत्रालय ‘वल्लभ भवन’ में मैं एक वरिष्ठ अधिकारी के पास बैठा था। वहां आगंतुकों के लिए चपरासी एक ट्रे में छह गिलास पानी लेकर आया। सिर्फ दो लोगों ने पूरा गिलास पानी पिया, बाकी ने कुछ घूंट लेकर गिलास वैसे ही रख दिए। मैंने अफसर से कहा- ‘’आप मिलने वालों को आधा गिलास पानी ही दिया करें। कम से कम थोड़ी बरबादी तो रुकेगी।‘’ बाद में यही सुझाव तत्कालीन मुख्यमंत्री को भी दिया गया कि कम से कम सरकारी दफ्तरों के लिए तो यह व्यवस्था लागू की ही जा सकती है। लेकिन कुछ हुआ नहीं। बूंद बूंद से घट भरने की पुरानी कहावत को चरितार्थ करते ऐसे और भी सुझाव हो सकते है, पर मुश्किल यह है कि पानी की बचत पर बातें करने से फुर्सत मिले तब तो कुछ काम हो!