गिरीश उपाध्याय
सिंहस्थ जैसे आयोजन, धर्म को भारत और भारत के समाज की बेहतरी से जोड़ने में इसलिए कामयाब नहीं होते क्योंकि वे निजी ‘पुण्यलाभ’ के स्वार्थ तक ही सिमट कर रह जाते हैं। सिंहस्थ में आने वाले लोग यदि पानी बचाने का सच्चा संकल्प लेकर लौटें तो क्या देश में कभी कोई प्यासा रह सकता है?
रविवार को प्रधानमंत्री ने भी मन की बात में पानी बचाने को ही मुद्दा बनाया है। उन्होंने अपने मध्यप्रदेश के देवास जिले में किए गए इस तरह के प्रयासों के अलावा देश के कुछ और स्थानों में ग्रामीणों द्वारा चलाए गए पानी बचाओ अभियान की सराहना करते हुए अपील की है कि देशवासी मिलकर पानी बचाने की मुहिम चलाएं।
जिस समय प्रधानमंत्री देशवासियों से पानी बचाने की अपील कर रहे हैं, उसी समय हमारे उज्जैन में सिंहस्थ जैसा विशाल लोक समागम चल रहा है। यहां देश भर से सैकड़ों की संख्या में साधु संत आए हुए हैं। एक माह तक चलने वाले सिंहस्थ मेले के दौरान करीब पांच करोड़ लोगों के उज्जैन आने का अनुमान है। कुंभ या सिंहस्थ जैसे आयाजनों में आने वाले ज्यादातर लोग धर्म और अध्यात्म के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। यहां वे पुण्यसलिला नदियों में स्नान करने के अलावा साधु-संतों और धर्माचार्यों के धर्म-समागम या सत्संग में भी हिस्सा लेते हैं।
यही वह बिंदु है जिसका धर्म के अलावा व्यापक सामाजिक हितों के लिए भी उपयोग किया जा सकता है। यदि पूरे एक माह उज्जैन आने वाले लोगों को इन साधु संतों और धर्माचार्यों द्वारा पानी बचाने का संदेश देने के साथ ही उनसे जल संरक्षण का संकल्प भी करवाया जाए, तो उसका थोड़ा ही सही लेकिन असर जरूर होगा। व्यक्ति अनिष्ट की आशंका से ज्यादा डरता है, यहां हम डराने की बात न भी करें, तो भी लोगों को यह तो कहा ही जा सकता है कि, हम लोगों ने पानी को लेकर आज यदि अपनी आदतें नहीं बदलीं तो आने वाले दिनों में सिंहस्थ या कुंभ जैसे आयोजन ही नहीं हो पाएंगे। क्योंकि जब नदियों में पानी ही नहीं होगा तो कैसा शाही स्नान और कैसा साधारण स्नान। स्नान की बात तो छोडि़ए आचमन के लायक पानी के भी लाले पड़ जाएंगे। और यह बात हवा में नहीं कही जा रही, यह तो ऐसी कठोर सचाई है, जो हमारे सामने साक्षात घटित हो रही है। पिछला सिंहस्थ सूख चुकी क्षिप्रा में गंभीर नदी का पानी डालकर निपटाया गया था और इस बार का सिंहस्थ नर्मदा नदी का पानी पहुंचाकर संपन्न कराया जा रहा है। कल्पना कीजिए कि 12 साल बाद नर्मदा में उतना प्रवाह न बचे कि उसका पानी क्षिप्रा तक पहुंचाया जा सके तो क्या सिंहस्थ का स्नान हो पाएगा?
आज क्षिप्रा-नर्मदा के संगम के पानी में नहाते वक्त यह विचार आना या इस विचार को लाया जाना बहुत जरूरी है। और इस काम में हमारे साधु संत और धर्माचार्य बहुत मददगार हो सकते हैं। भारत में पिछले कुछ सालों में धर्म के दुरुपयोग की दिशा में तो बहुत काम हुआ है, अब थोड़ा जरा इसका सदुपयोग भी हो जाए। इसके लिए सिंहस्थ बहुत बड़ा माध्यम साबित हो सकता है।
पानी के मामले में, इसके दुरुपयोग की हमारी आदतों ने तो संकट खड़ा किया ही है, साथ ही जल संरचनाओं की उपेक्षा ने भी इस संकट को और गहरा किया है। ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने इस संकट को नहीं झेला था, लेकिन उन्होंने तात्कालिक आवश्यकता और भविष्य की जरूरत को देखते हुए ऐसी कई जल संरचनाएं विकसित की थीं, जो गाढ़े वक्त में काम आती थीं। लेकिन हमने उन संरचनाओं की न सिर्फ उपेक्षा की बल्कि सप्रयास उन्हें नष्ट किया। ऐसी कई संरचनाएं आज भी मौजूद हैं, जिन पर थोड़ा सा ध्यान दे दिया जाए तो उन्हें पुनर्जीवित किया जा सकता है।
दूसरा मामला धर्म से जुड़ा है जिसमें सिंहस्थ का बड़ा योगदान हो सकता है। हमारे जलस्रोतों को लेकर ऐसे कई कर्मकांड प्रचलन में ला दिए गए हैं, जो जल संरचनाओं और जल की गुणवत्ता को लगातार नष्ट कर रहे हैं। फिर चाहे वो जलाशयों में पूजा पाठ की सामग्री को विसर्जित करने का मामला हो या उत्सवों के दौरान स्थापित की जाने वाली मूर्तियों एवं अन्य सामग्री को विसर्जित करने का। ये कर्मकांड किसी भी कारण से तय किए गए हों, लेकिन उज्जैन में एक सार्थक पहल यह की जा सकती है कि सारे साधु संत मिलकर कुछ ऐसे कर्मकांड स्थापित और प्रचलित करने का बीड़ा उठाएं, जो न सिर्फ हमारे जल स्रोतों बल्कि पूरे पर्यावरण को बचाने में मददगार हों। पहला कदम जलसंरचनाओं में किसी भी प्रकार की सामग्री के विसर्जन या उसे प्रदूषित करने को धर्मविरुद्ध घोषित करके उठाया जा सकता है। जलस्रोतों के संरक्षण का संकल्प दूसरा कदम हो सकता है। ऐसा संकल्प लेने वाले लोग अगले सिंहस्थ में इस ब्योरे के साथ आएं कि उन्होंने पिछले 12 सालों में जल संरक्षण की दिशा में क्या किया। सरकार और धर्म समाज ऐसे जल-ऋषियों को कुंभ जैसे आयोजनों में सार्वजनिक रूप से सम्मानित करे तो इस प्रवृत्ति को और प्रोत्साहन मिलेगा।