लोकसभा के चुनाव बीत चुके हैं और देश में नई सरकार भी बन गई है लेकिन लगता है बयानबाजी को लेकर देश के कई राज्यों के नेता अभी भी चुनावी मोड में ही चल रहे हैं। जिस तरह चुनाव के दौरान देशवासियों ने नेताओं की जुबान को फिसलते, आग उगलते और गंदा होते देखा था, कुछ कुछ वही हाल चुनाव के बाद भी देखने को मिल रहा है। जुबान और दिमाग पर चढ़ी चुनाव की खुमारी अभी तक उतरी नहीं है। ताजा मामला उत्तरप्रदेश के बदायूं में दो लड़कियों के साथ हुई गैंगरेप की वारदात और उसके बाद दोनों को पेड़ पर लटका कर मार दिए जाने का है। उत्तरप्रदेश की अखिलेश यादव सरकार इस मामले में चारों ओर से घिरी नजर आ रही है और एक बार फिर सारा ठीकरा यह कहकर मीडिया के सिर फोड़ा जा रहा है कि मीडिया को केवल उत्तरप्रदेश की घटनाएं ही नजर आती हैं। अखिलेश यादव ने मीडिया को आड़े हाथों लेते हुए बलात्कार और महिला उत्पीड़न के मामले में मध्यप्रदेश का भी नाम लिया और कहा कि दूसरे राज्यों में हो रहे महिला अत्याचार और बलात्कार मीडिया को नजर नहीं आते।
किसी भी ऐसी घटना पर जिससे सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़े या उसका गैर जिम्मेदाराना रवैया उजागर होता हो, मीडिया को गाली देना एक आम चलन हो गया है। मीडिया यदि बदायूं जैसी घटनाओं पर सरकार से सवाल करता है या उसकी नाकामियों को उजागर करता है तो राजनेताओं या सरकारों की नजर में वह खलनायक है। लेकिन ऐसी तमाम नाराजगियों के बावजूद मीडिया अपना काम करता रहता है, करना भी चाहिए।
चूंकि उत्तरप्रदेश की घटना और उसके बाद अखिलेश यादव के बयान में हमारे अपने मध्यप्रदेश का भी जिक्र आया है इसलिए इस विषय पर तार्किक रूप से बात करना जरूरी है। बात करना इसलिए और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि हमारे अपने गृहमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर के इस संबंध में दिए गए बयान से प्रदेश में बवाल खड़ा हो गया है। उत्तरप्रदेश की घटना को लेकर गौर साहब ने जो टिप्पणी की है उससे फौरी तौर पर लगता है कि वे सपा नेता मुलायमसिंह यादव और उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का बचाव कर रहे हैं। गौर साहब के बयान के बाद हाल ही में मध्यप्रदेश के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री रामसेवक पैकरा का भी बयान आया है और उसे भी बलात्कार के आरोपियों के प्रति सहानुभूति के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
इस मामले में आरोप प्रत्यारोप के विस्तार में जाने के बजाय हमें विवेकशीलता और तार्किकता से काम लेना होगा। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जो कुछ कहा वो उनकी खीज या मजबूरी हो सकती है। लेकिन बाबूलाल गौर या रामसेवक पैकरा के पास मजबूरी का ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता। जो बयान उन्होंने दिया है उसके पीछे भले ही मंतव्य कुछ और रहा हो, और शायद ऐसा रहा भी है, लेकिन मीडिया में उसे जिस तरह से लिया गया उसका संदेश नकारात्मक ही गया है। यही कारण है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नरेंद्रसिंह तोमर और वरिष्ठ नेता कैलाश जोशी तक ने गौर के बयान को अनावश्यक बताते हुए पार्टी नेताओं को ऐसी बयानबाजी से बचने की सलाह दी है।
आइए अब जरा देखें कि बाबूलाल गौर और रामसेवक पैकरा ने आखिर कहा क्या है। गौर साहब ने बलात्कार के मामले पर मीडिया से चर्चा में कहा- ‘’यह एक विकृति है मनुष्य की, कोई हमसे कहकर तो नहीं जा रहा है कि हम बलात्कार करने जा रहे हैं, जो हम जाकर पकड़ लें उसको… सड़क पर एक्सीडेंट ना हों इसके लिए हेलमेट के मामले में तो उसे रोक सकते हैं.. अब कौन बलात्कार करने जा रहा है उसकी कोई इन्फार्मेशन तो होती नहीं… ये तो एकांत में होता है… अगर कोई करता है और रिपोर्ट होती है तो हम उस पर कार्रवाई कर सकते हैं…. अब कोई अपने घर में सुसाइड कर लेता है, अरे भाई लोग सुसाइड क्यों कर रहे हैं… तो जो मानसिक संतुलन खो बैठता है वो आदमी है,… तो इसके लिए मुलायमसिंहजी या अखिलेशजी ये क्या करेंगे बिचारे….’’
रामसेवक पैकरा का बयान है- ‘’देखिए, घटनाओं को कोई जानकर तो करता नहीं है.. इस तरह की जो घटनाएं हैं ये तो धोखे से सब करते हैं लोग… इस प्रकार की घटनाए निंदनीय हैं और सरकार की ओर से इस तरह की घटनाएं होने के बाद तत्काल कार्रवाई हुई है।‘’
किसी भी घटना से पैदा हुई उत्तेजना के दायरे से हटकर तर्कपूर्ण दृष्टि से देखें तो दोनों नेताओं के बयान में कोई ऐसी बात नहीं है जो आमतौर पर नहीं कही जाती। हां, गौर साहब ने बात के अंत में उत्तरप्रदेश सरकार या उसके नेताओं को जिस तरह से क्लीन चिट देने की कोशिश की है उस पर जरूर सवाल उठ सकता है पर उससे पहले उन्होंने जो कुछ कहा है उसमें सिद्धांत तौर पर असामान्य कुछ भी नहीं है। यही बात श्री पैकरा के बयान पर भी लागू होती है। गौर यदि कहते हैं कि कोई भी अपराधी पुलिस को बताकर अपराध करने नहीं जाता तो वे गलत नहीं कह रहे हैं। इसी तरह पैकरा का बयान तो और भी स्पष्ट है, चूंकि वे आदिवासी क्षेत्र से आते हैं इसलिए शायद भाषा का वो परिष्कृत संस्कार या वाक्य विन्यास अथवा शब्दों के सार्थक चयन की शक्ति उनके पास नहीं है। उनका बयान ध्यान से देखें तो संभवत: उनके कहने का आशय यह है कि अपराधी किसी भी पीडि़त को यह बताकर नहीं जाता कि वह उसके साथ क्या करने वाला है, पैकरा खुद कहते हैं कि ऐसी घटनाएं सब लोग धोखे से करते हैं यानी कि बलात्कार का शिकार होने वाली महिलाओं के साथ ऐसी वारदातें उन्हें धोखें में रखकर की जाती हैं, छग के गृह मंत्री ने इसी वाक्य में ऐसी घटनाओं की निंदा भी की है और सरकार की ओर से ऐसे मामलों में कार्रवाई किए जाने का दावा भी किया है।
यहां हमें यह भी देखना होगा कि कई बार मीडिया की ओर से भी बातों को सनसनीखेज बनाने के लिए वाक्य का अपने हिसाब से अर्थ निकाल लिया जाता है। पैकरा के ही बयान को लें तो उन्होंने कहा है- ‘’इस तरह की जो घटनाएं हैं ये तो धोखे से करते हैं लोग’’ अब यहां कहने का आशय संभवत: यह है कि जो व्यक्ति वारदात का शिकार हो रहा है उसके साथ धोखा या छल करके उस वारदात को अंजाम दिया जाता है। ‘धोखा देकर वारदात करना’ और ‘धोखे में वारदात हो जाना’ दो अलग अलग बातें हैं। यदि पैकरा के वाक्य का यह अर्थ लगा लिया जाए कि वे बलात्कारियों के पक्ष में बोलते हुए कह रहे हैं कि आरोपी से धोखे में ऐसा हो जाता है तो ऐसा निष्कर्ष निकालना मूलत: गलत होगा। क्योंकि इससे ऐसा लगेगा कि मंत्री आरोपियों को मासूम ठहरा रहा है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि वे अगले ही वाक्य में ऐसी घटनाओं को निंदनीय बताते हुए उस पर कार्रवाई करने की बात भी कह रहे हैं।
निश्चित ही बलात्कार जैसा अपराध सामाजिक रूप से निकृष्टतम एवं जघन्यतम अपराध है और इसके आरोपियों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाना चाहिए। दिल्ली के निर्भया कांड के बाद देश भर में उठी बहस और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई व्यवस्थाओं एवं सरकार द्वारा बनाए गए कानून ने ऐसे अपराधियों से सख्ती से निपटने के लिए माकूल जमीन तैयार की है, लेकिन यह अपराध जितना गंभीर है उतना ही संवेदनशील भी है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के मामलों को रिपोर्ट करने या उन पर कोई भी टीका टिप्पणी करने के तौर तरीकों को लेकर गाइडलाइन भी दे रखी है। ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग करते समय और उन पर कुछ भी कहने से पहले इस संवेदनशीलता को हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए।
दरअसल मीडिया का तो काम ही सवाल पूछना और जवाबदेही से जनता को अवगत कराना है। वह तो सवाल पूछेगा ही क्योंकि यह उसका अधिकार है। लेकिन आपको क्या जवाब देना है, या देना भी है कि नहीं देना है, यह आपको सोचना पड़ेगा। यदि आप उस मामले की संवेदनशीलता और अपनी जिम्मेदारी को देखते हुए कोई सार्थक बात नहीं कर सकते तो बेहतर होगा कि चुप रहें। अपनी जीभ पर ततैया बैठाकर बाद में इस बात पर हायतौबा मचाने का कोई अर्थ नहीं कि ततैया ने आपकी जीभ पर काट लिया। जरूरी नहीं कि हर बात का जवाब दिया ही जाए, जवाब देने की कला के साथ ही जबान पर लगाम रखने की कला भी नेताओं और अफसरों को सीखनी होगी। क्या बोलना है, कितना बोलना है, किसको बोलना है, कहां बोलना है जैसे बहुत सारे प्रश्न हैं जिन पर विचार करने के बाद जुबान खोली जाए तो बेहतर होगा। याद रखें… यदि आप गलत समय पर सही बात भी बोलेंगे तो हो सकता है कि वह पत्थर की तरह पलटकर आपके ही सिर पर आ लगे। लड़का हो या लड़की, शायद ही कोई परिवार या माता पिता ऐसे हों कि जो अपने बच्चों से यह न कहते हों कि देर रात सुनसान जगहों पर नहीं जाना चाहिए, कोई भी वारदात हो सकती है। यह एक सामान्य सीख है जो हर परिवार में बच्चों को दी जाती है, लेकिन मुझे याद है कि जब दिल्ली में निर्भया कांड के समय कुछ लोगों ने इस तरह की बात उठाई थी तो ऐसे लोगों का मुंह बंद करने के लिए सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक त्वरित उत्तेजना से भरे बैठे हजारों ने हाथ में पत्थर उठा लिए थे। नेक सलाह देने वालों को गुनहगारों का हमदर्द या एक तरह से खुद गुनाहगार ही साबित करते हुए पूछा जाने लगा था कि आप लड़कियों की आजादी पर बंदिश लगाने वाले होते कौन हैं? सवाल किसी की आजादी पर बंदिश लगाने का नहीं, उसे अपराध से बचाने का है लेकिन दुर्भाग्य है कि ऐसी नेक सलाहें भी कई बार आपको ‘अपराधी’ बना देती हैं।