हमारे दैनंदिन जीवन में धार्मिक अनुष्ठानों को लेकर पानी से जुड़े तरह तरह के कर्मकांड प्रचलित हैं। इन कर्मकांडों की शुरुआत किन कारणों से हुई होगी और क्यों उन्हें प्रचारित किया गया होगा इसका ठीक ठीक इतिहास तो अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन तत्कालीन समाज ने यदि कुछ परंपराएं डाली थीं, तो उनकी उपयोगिता या तार्किकता पर भी विचार किया जाना जरूरी है। ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वज नासमझ थे और उनके द्वारा शुरू की गई बातों को हम निरा पोंगापंथ या अंधविश्वास मानकर बिना सोचे समझे खारिज कर दें। यह सही है कि समय के प्रवाह के साथ ऐसे कई कर्मकांड विकृति का शिकार होकर सड़ गल गए हैं, लेकिन यदि हम उनके आरंभ किए जाने के कारणों और उस स्थिति का गंभीरता से आकलन करें तो वे हमें आधुनिक संदर्भों में भी नई दिशा दे सकते हैं। गहराई से पता लगाने पर हम पाएंगे कि उनके पीछे जो मंशा थी वह आज भी प्रासंगिक है, भले ही उस मंशा को पूरी करने के तौर तरीके आज प्रासंगिक न रहे हों।
जैसे एक परंपरा थी नदियों में सिक्के डालने की। यह परंपरा किसी न किसी रूप में आज भी चली आ रही है। जहां तक मुझे याद है, घर के बुजुर्ग लोग नदियों के पास से गुजरते हुए उनमें सिक्के डाला करते थे। बच्चों के हाथ से भी माता पिता नदी में सिक्के डलवाते और नदी को प्रणाम करने की हिदायत देते। लेकिन जो बात ध्यान देने वाली है वो यह कि उस समय आग्रह इस बात पर होता था कि नदी में यथासंभव तांबे का सिक्का डाला जाए। अब यदि हम इसके वैज्ञानिक कारणों को देखें तो हो सकता है कि यह परंपरा इसलिए शुरू की गई हो ताकि नदियों का पानी शुद्ध रह सके। आज भी हमारे घरों में तांबे का पानी पीने के पंरपरा है। चिकित्सा विज्ञान भी तांबे के पात्र में रखे पानी के सेवन को स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद मानता है। यानी महत्व सिक्का डालने का नहीं था। महत्व इस बात का था कि नदी के पानी में ऐसी चीजें डाली जाएं जो उसके पानी को शुद्ध रखने में सहायक हों। अब नदी तो नदी है। उसे शुद्ध करने के लिए तो कोई आरओ नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए शायद हमारे पूर्वजों ने तो नदी के पानी को शुद्ध रखने के इरादे से ऐसे कुछ उपाय खोजे होंगे। ऐसे ही उपायों में राख को प्रवाहित करने का तरीका भी शामिल रहा होगा। लेकिन बाद में तांबे के सिक्के या राख के बहाने हर किस्म का कूड़ा कर्कट नदी में डाला जाने लगा। नदियों के बाद ठहरे हुए जलस्रोतों की बारी आई। कचरा डलते डलते हजारों जल संरचनाएं पहले सड़े हुए पानी का सबब बनीं और बाद में पानी की जगह पूरी तरह कूड़े ने ले ली और वे जल संरचनाएं ही नष्ट हो गईं।
चूंकि मूक जल स्रोत न तो शिकायत कर सकते हैं नही चीत्कार इसलिए वे धीरे धीरे हमारी इन हरकतों का शिकार होकर मरते गए। आज ऐसे जलस्रोतों की मौत या उनकी कब्रगाहों ने हमारे लिए मौत का सरंजाम जुटा दिया है।
अमृत कलश छलकने की बात को एक बार अलग भी रख दें, तो 12 साल बाद होने वाले कुंभ या सिंहस्थ जैसे आयोजन नदियों के किनारे संभवत: इसीलिए किए जाते होंगे, ताकि लोग आकर उस जलस्रोत की स्थिति को देखें, जो उनके जीवन के लिए अनिवार्य है। 12 साल में ही सही, यह एक अवसर माना जा सकता है हमारी सदानीरा नदियों के साथ हो रहे अत्याचार से रूबरू होने का। इसलिए यह आवश्यक है कि हम कुंभ जैसे आयोजनों में स्नान करके या केवल एक डुबकी लगाकर, स्वयं के पाप धुल जाने की संतुष्टि लेकर ही न विदा हो जाएं। कुछ देर रुक कर, पानी के पास ठहर कर सोचें कि आज यह जो जलधारा या जलस्रोत हमें दिख रहा है, कल वह रहेगा या नहीं।
यह समय आंख व नाक बंद करके डुबकी लगाने से ज्यादा आंखें खोलकर उन इलाकों की स्थिति को देखने का है, जहां बूंद-बूंद पानी के लिए हजारों जिंदगियां संघर्ष कर रही हैं। यह समय उस दुर्गंध को महसूस करने का है जो हमारे कूड़े करकट से पट गए जलस्रोतों से उठ रही है। देवताओं को जल का अर्घ्य देने का अर्थ पानी के एक लोटे को किसी संरचना पर खाली भर कर देना नहीं है, वरन यह समझना है कि जल या पानी का महत्व उन मूर्तियों से भी ऊपर है। आप किसी भी धर्म की उपासना पद्धति या उससे जुड़ा कर्मकांड उठा लीजिए, कोई भी जल के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं है। तो जब देवताओं को भी अपने सिर पर जल का वरदहस्त चाहिए, तो हम मनुष्य क्या उसके बिना जीवित रह सकते हैं? जल, वायु जैसे प्रकृति के अलग अलग अवयवों को हमने ईश्वरीय स्थान इसीलिए दिया है क्योंकि ये हमारे जीवन के लिए अनिवार्य हैं। ये हैं तो ही जीवन है। इसीलिए किसी मूर्त-अमूर्त की पूजा अर्चना से पहले इन तत्वों को महत्व दिया गया है।