भोपाल, अगस्त 2014/ मध्यप्रदेश की एक पहचान यहाँ निवासरत जन-जातियों और उनकी विविधवर्णी रंगारंग कला एवं संस्कृति से भी है। प्रदेश सरकार जहाँ एक ओर आदिवासियों के विकास के लिये अनेक योजनाओं एवं कार्यक्रमों को क्रियान्वित कर रही है, वहीं उनकी कला एवं संस्कृति को सहेजने के लिये भी यहाँ अनेक कदम उठाये जा रहे हैं। इसी दिशा में आदिम-जाति अनुसंधान एवं विकास संस्था (टी.आर.आई.) द्वारा आदिम-जाति गीतों की स्वर-लिपियाँ तैयार करने का अनूठा कार्य किया गया है। अभी तक लगभग 150 धुनों की स्वर-लिपियाँ तैयार कर ली गई हैं। इन्हें शीघ्र ही पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जायेगा।
विगत दिनों टी.आर.आई. द्वारा ‘आदि-राग” नाम से दो-दिवसीय कार्यशाला का आयोजन कर उसके निष्कर्ष के रूप में आदिवासियों द्वारा प्रचलित गीतों की स्वर-लिपियाँ तैयार करवाई गई हैं। पाँच संगीतज्ञ ने जन-जातीय कलाकारों की मदद से बैगानी, मवासी, गोंडी, कोरकू और भीली गीतों की पारम्परिक धुनों के आधार पर स्वर-लिपियाँ तैयार की। संगीतज्ञ दुर्गेश पाण्डे, दीप्ति गेडाम परमार, डॉ. रूपाली जैन पाण्डे, डॉ. रवि पण्डोले और डॉ. अश्विना रांगड़ेकर द्वारा तैयार की गई स्वर-लिपियों के आधार पर जन-जातीय गीत उनकी पारम्परिक धुनों में प्रस्तुत किये गये। शास्त्रीय संगीत गायकों द्वारा गाये गये जन-जातीय गीतों को जन-जातीय कलाकारों ने सुना और स्वर-लिपियों के आधार पर उनकी सही गायकी की पुष्टि की। इस तरह जन-जातीय गीतों की स्वर-लिपि के पुस्तकाकार लेने पर जन-जातीय गीतों की यह धुने संरक्षित और सुरक्षित रहेंगी।
टी.आर.आई. सहायक अनुसंधान अधिकारी लक्ष्मीनारायण पयोधि ने बताया कि संस्था द्वारा तैयार की जा रही स्वर-लिपि पुस्तक जन-जातीय गीतों के संरक्षण की दिशा में एक कारगर और सार्थक प्रयास किया गया है। जन-जातीय कलाकार मंगला गरवाल झाबुआ, प्रेमसिंह उइके मण्डला, सुखनंदन आहके और चैतूबाई राजभोपा जन-जातीय गीतों को स्वर-लिपि तैयार करने में सहयोगी रहे।