विशेष टिप्पणी–

मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने एक बार फिर राजनीतिक परिपक्वता दिखाई है। केन्द्र के आश्वासन परउन्होंने मध्यप्रदेश के किसानों की समस्या को लेकर राज्य के सांसदों के साथ संसदभवन परिसर में गांधी प्रतिमा के सामने धरना देने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया है।दरअसल राज्य में गेहूं की खरीद चरम पर है और किसान लगातार अपनी फसल लेकर मंडियोंमें आ रहे हैं। लेकिन मंडियों में खरीदे जाने वाले गेहूं के लिए पर्याप्त मात्रामें बारदाना उपलब्ध नहीं है। जबकि राज्य सरकार पर्र्याप्त मात्रा में बारदानामुहैया कराने के लिए केन्द्र की एजेंसी के पास ५६५ करोड़ स्र्पए महीनों पहले जमाकरवा चुकी है। इसके बावजूद राज्य को तरसा तरसा कर बारदाना दिया जा रहा है। शिवराजका यह कथन बिलकुल उचित है कि किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री का यह काम नहीं है किवह बारदाने जैसी मांग को लेकर बार बार दिल्ली के चक्कर लगाए, लेकिन केंद्र के असहयोगात्मक स्र्ख के चलतेमध्यप्रदेश को ऐसा करना पड़ रहा है। वह भी तब जबकि बारदाने की मांग और उसके लिएपर्याप्त राशि भी जमा करवाई जा चुकी हो।

दरअसल इस मामलेमें राज्य का किसान राजनीतिक का शिकार हो रहा है। उसने सरकारी योजनाओं और सुविधाओंका भरपूर उपयोग करते हुए पिछले साल भी अच्छी फसल दी थी और इस बार भी उसकी मेहनत केबेहतर नतीजे खेतों में देखने को मिले हैं। पिछले साल जहां करीब ५० लाख टन गेहूं काउपार्जन किया गया था वहीं इस बार यह आंकड़ा ८० लाख टन पहुंचने की उम्मीद है।मध्यप्रदेश में गेहूं के उत्पादन की बढ़ती रफ्तार ने पंजाब और हरियाणा जैसे गेहूंके गढ़ कहे जाने वाले राज्यों के माथे पर भी चिंता की लकीरें खींच दी हैं।मध्यप्रदेश के साथ एक प्लस पाइंट यह भी है कि यहां का गेहूं पंजाब और हरियाणा कीतुलना में बहुत बेहतर क्वालिटी का है। यानी राज्य सरकार ने खेती को लाभ का धंधाबनाने का जो संकल्प लिया है, किसान उसमेंभरपूर योगदान कर रहे हैं। ऐसे में यदि प्रदेश किसान के पसीने से उपजा मेहनत कादाना दाना बरदाने को मोहताज हो जाए तो इससे बड़ी विडंबना क्या होगी।

शिवराज का यह कथनउचित ही है कि प्रदेश मे मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभा रही कांग्रेस को इसमामले में पहल करनी चाहिए, क्योंकि केंद्रमें उसके नेतृत्व वाली सरकार है। होना तो यह चाहिए कि किसानों की मेहनत को सलामकरते हुए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर यह प्रयास करें कि उनकी समस्या कैसेदूर की जा सकती है। लेकिन हो उलटा रहा है। बारदाने की मांग को लेकर केंद्रीयमंत्री के पास जाने वाले मुख्यमंत्री से कहा जा रहा है कि उनकी मांग संबंधितमंत्रालय को भेज दी जाएगी। यानी रवैया टरकाने वाला है। एक तरफ किसान मंडियों केबाहर कतार लगा कर खड़े हैं और दूसरी तरफ राजनीतिक तंत्र फाइल फाइल खेल रहा है।प्रदेश कांग्रेस के नेता राज्य सरकार को कोस रहे हैं और राज्य सरकार केंद्र कादरवाजा खटखटा रही है।

पिछले दिनोंदिल्ली से लौटने के बाद शिवराज ने चेतावनी दी थी कि यदि राज्य को ३० अप्रैल तकपर्याप्त मात्रा में बारदाना नहीं मिला तो वे राज्य के सांसदों के साथ संसद भवनपरिसर में गांधी प्रतिमा के सामने एक दिन के धरने पर बैठेंगे। प्रदेश की समस्याओंको लेकर केंद्र से दो-दो हाथ करने का शिवराज का यह पहला मौका नहीं है। पहले भीराज्य के साथ भेदभाव की शिकायत करते हुए उन्होंने केंद्र के खिलाफ एक दिन के उपवासका ऐलान कर डाला था। वह मामला भी किसानों से ही जुड़ा था। ऐन मौके पर प्रधानमंत्रीके हस्तक्षेप के चलते किसान पुत्र मुख्यमंत्री ने अपना फैसला टाल दिया था। इस बारभी उन्होंने केंद्र की जबान पर फिर भरोसा किया है।

लेकिन किसी भीराज्य के साथ ऐसी नौबत ही क्यों आनी चाहिए। दरअसल यह भी हास्यास्पद है कि राज्यसरकार तो केंद्र के द्वारा घोषित समर्थन मूल्य पर अपनी ओर से कुछ और अतिरिक्त बोनस देकर किसानों से उनकी उपज खरीदती है और उधरकेंद्र की एजेंसियां मदमस्त हाथी की तरह व्यवहार करते हुए राज्यों की समस्या पर तबतक कोई ध्यान नहीं देतीं जब तक की पानी सिर के ऊपर से न गुजरने की नौबत आ जाए। यहभी समझ से परे है कि एफसीआई यानी भारतीय खाद्य निगम खाद्यान्न की खरीद तो राज्योंके माध्यम से करता है, लेकिन उन्हें पर्याप्त सहयोग नहीं करता। हर चीजको सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के माहौल में यह बात बेतुकी लगती है कि बारदानेका कंट्रोल केंद्र सरकार की एजेंसियों के हाथ में है। राज्य सरकारों को अपनी खरीदके लिए बारदाना जुटाने के लिए केंद्र का मुंह देखना पड़ता है। शिवराज का यह कथनगंभीर विचार की मांग करता है कि हमने केंद्र से अनुरोध किया है कि या तो हमेंपर्याप्त बारदाना मुहैया कराएं या फिर हमें प्लास्टिक के बैग या इस्तेमाल किए हुएबारदाने को फिर से उपयोग में लाने की इजाजत दें। तो क्या राज्य सरकारें केंद्र केसामने इतनी दयनीय हैं कि उन्हें अपनी समस्या के विकल्प के लिए भी केंद्र की एजेंसियोंका मुंह ताकना पड़े? और वो भी इस बात के लिए कि क्या राज्य सरकारइस्तेमाल किए हुए बारदाने का फिर से उपयोग कर सकती है या नहीं।

दरअसल इस पूरेनियंत्रण में भ्रष्टाचार की बू आती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि बारदाने के गोरखधंधेमें हर साल करोड़ों अरबों के वारे न्यारे होते हों और इसी कारण केंद्र की एजेंसियोंमें बैठे लोग अपनी वो मलाई न छोड़ना चाहते हों। मामला फिलहाल राज्य के किसानों केलिए समुचित मात्रा में बारदाना मुहैया कराने का है, लेकिन राजनीति और आरोपप्रत्यारोप के बीच इस बात की भी पड़ताल जरूरी है कि आखिर ऐसा क्या है जिसके चलतेकेंद्र सरकार या उसकी एजेंसियां बारदाने को अपने नियंत्रण में रखना चाहती हैं।यहां तक कि राज्य सरकारों को निजी क्षेत्र से बरदाना लेने की छूट भी नहीं है। कहींवो बारदाना किसानों के लिए नहीं वरन भ्रष्ट तंत्र के द्वारा जुटाए गए नोटों कोभरने में तो नहीं खप रहा?

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