बिहार बोर्ड मेरिट घोटाले के बाद बिहार विश्वविद्यालय परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। आरंभिक जाँच में सबूत मिले हैं कि अयोग्य छात्रों की कापियां बदल कर उन्हें टॉपर बना दिया गया।
भारत में शायद ही कोई सरकारी विभाग है, जो भ्रष्टाचार से अछूता हो बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि, यह सम्पूर्ण कार्य प्रणाली में शामिल हो कर सिस्टम का हिस्सा बन चुका है। किन्तु हमारे बच्चे जो कि इस देश का भविष्य हैं और इस देश की नींव हैं, क्या शिक्षा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार से हमारे बच्चों और देश दोनों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं हो रहा? हाल ही में विविध एजेंसियों द्वारा जारी रिपोर्ट में इस तथ्य का खुलासा हुआ है कि विश्व के पहले दो सौ चुनिंदा शिक्षण संस्थानों की सूची में किसी भी भारतीय शिक्षण संस्थान का नाम शामिल नहीं है। एसोचैम के राष्ट्रीय महासचिव डी.एस. रावत शिक्षण संस्थानों की निम्न गुणवत्ता और मूलभूत ढाँचे की कमी को इसका जिम्मेदार मानते हैं। इससे पहले नेशनल एम्प्लायबिलिटि रिपोर्ट में बताया गया था कि देश के 80% इंजीनियरिंग स्नातक रोजगार देने के काबिल नहीं हैं। जो राष्ट्र स्वयं को विश्व गुरु कहलाने की ओर अग्रसर हो, क्या यह उसके लिए बेहद संवेदनशील एवं शर्म का विषय नहीं है? जो बौद्धिक विरासत हमारे मनीषी हमें दे कर गए हैं हम उसे आगे ले जाने के बजाय आज इस दयनीय स्थिति में ले आए कि दसवीं में टाप करने वाले विद्यार्थी, उस विषय का नाम तक नहीं बता पाते जिसमें उन्होंने टाप किया है!
शायद हमारा शिक्षा का उद्देश्य बदल गया है- शिक्षा आज धनार्जन का साधन बन चुकी है और किसी व्यापारी से नैतिकता की अपेक्षा शायद सबसे बड़ी भूल होती है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य “मैन मेकिंग एन्ड कैरेक्टर बिल्डिंग” अर्थात् व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण होता है। हमारे शास्त्रों में भी विद्या का एक निश्चित उद्देश्य बताया गया है- “सा विद्या या विमुक्तये’’ अर्थात् विद्या वो है जो मुक्ति के द्वार खोले, स्वयं से साक्षात्कार कराए, ऐसा शिक्षित युवा जब समाज का हिस्सा बनता था तो सामाजिक समृद्धि का विकास होता था, किंतु आज जो शिक्षा हमारे द्वारा परोसी जा रही है वह केवल नम्बर लाकर नौकरी पाने तक सीमित है तथा उसका अन्तिम लक्ष्य भौतिक समृद्धि प्राप्त करना है। ऐसी शिक्षा के बारे में गांवों में एक कहावत प्रचलित है-“थोर पढ़े तो हर छूटै, ढेर पढ़े तो घर छूटै”!
आज हमारे विश्वविद्यालयों से हर साल लगभग तीन मिलियन ग्रैजुएट तथा पोस्ट ग्रैजुएट छात्र निकलते हैं, सात मिलियन दसवीं या बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ कर रोजगार की तलाश में भटकते हैं। इस प्रकार हर साल दस मिलियन शिक्षित युवा हमारे समाज का हिस्सा बनते हैं लेकिन इनमें से कितने नौकरी पाने में सफल हो पाते हैं? एक सत्य यह भी है कि देश में आज कुशल एवं प्रतिभाशाली युवाओं का अभाव है। बड़ी से बड़ी कम्पनियाँ आज योग्य एवं प्रशिक्षित युवाओं की तलाश में भटक रही हैं। आज की शिक्षा की देन, देश में मौजूद इस भ्रामक स्थिति के बारे में क्या कहिए कि, एक तरफ समाज में बेरोजगार शिक्षित युवाओं का सैलाब है और दूसरी तरफ प्रतिभा का अभाव है! इसका उत्तर एक शब्द में सीमित है- योग्य /काबिल/निपुण/प्रतिभा सम्पन्न शिक्षित ऐसा युवा जो कि स्वयं उद्यमी हो, न की नौकरी के लिए भटकते युवा। जिस देश ने चाणक्य, आर्यभट्ट, रामानुजम, टैगोर, जगदीश चन्द्र बोस जैसी प्रतिभाएं दीं आज उस देश के युवा को हम किस ओर ले जा रहे हैं कि 15-18 साल की शिक्षा के बाद भी वह कोई सामान्य कार्य करने के लायक भी नहीं होता। एक औसत इंसान को सफल कैसे बनाया जाए हम इस पर ध्यान नहीं देते, उसे शिक्षित तो करते नहीं, परीक्षा अवश्य लेते रहते हैं। हम साक्षर होने और शिक्षित होने के फर्क को भूल चुके हैं।
गाँधी जी कहते थे- “अक्षर ज्ञान न तो शिक्षा का अंतिम लक्ष्य है और न ही उसका आरंभ” किन्तु आज की शिक्षा केवल रटकर नम्बर लाने तक सीमित है। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि हमारे बच्चे 90% से भी अधिक नम्बर लाने के बावजूद मनपसंद कालेज अथवा सब्जेक्ट में एडमिशन नहीं प्राप्त कर पाते!
हमारी शिक्षा नीति याद करने पर ज़ोर देती है, जो जितने अच्छे से रटकर परीक्षा में लिख दे, वही टाप करता है। पढ़ाई केवल नम्बरों के लिए होती है, परीक्षाओं के बाद ज्ञान भुला दिया जाता है, क्योंकि वह रटा रटाया होता है, समझा हुआ नहीं। मौलिक एवं रचनात्मक प्रतिभा पर पारम्परिक रूप से रटने वाली प्रतिभा हावी रहती है। क्या यह हमारी शिक्षा नीति की बुनियादी खामी नहीं है? हमारा देश विश्व के सर्वाधिक इंजीनियर उत्पन्न करता है जो देश विदेश की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कॉल सेन्टरों पर कार्यरत हैं और यही वो जगह है जहाँ हमारी इंजीनियरिंग समाप्त हो जाती है।
इन सभी बातों का एक ही समाधान है- शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो स्वावलंबी युवा उत्पन्न करे, न कि रोजगार की तलाश में भटकते युवा। शिक्षित युवा उद्यमी,आविष्कारक, विचारक, लेखक, कलाकार, चित्रकार बनकर निकलें न कि मैकेनाइज़ड रोबोट जिन्हें रटने अथवा याद करने के अलावा और कुछ नहीं आता। किन्तु दुर्भाग्यवश आज हर बच्चा और उसके माता पिता उसी रैट रेस(चूहा दौड़) में हिस्सा लेते हैं जिसमें समझने से ज्यादा रटने पर जोर दिया जाता है। बच्चों पर टीचर और माता पिता ही नहीं पूरे समाज का दबाव होता है, अधिक से अधिक नम्बर लाने के लिए।
हम यह भूलते जा रहे हैं कि शिक्षा का उद्देश्य नम्बर न होकर ज्ञान होना चाहिए। किताबी ज्ञान की अपेक्षा व्यवहारिक ज्ञान और प्रयोगों पर बल दिया जाना चाहिए। शिक्षा को बालक के बौद्धिक विकास तक सीमित करने की अपेक्षा उसके शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास पर भी ध्यान देना चाहिए।
याद है हमारी पुरानी गुरुकुल परम्परा जिसमें बालक का सर्वांगीण विकास किया जाता था। गुरु शिष्य की शिक्षा पूर्ण होने के बाद गुरु दक्षिणा लिया करते थे। शिक्षा देना एक आर्य कार्य है, अफसोस की बात है कि आज यह कार्य उन लोगों के हाथ में है, जो इसे बिना जोखिम, कम दबाव एवं अच्छी तनख्वाह वाला सुरक्षित पेशा समझते हैं। इस बात को एक शिक्षक द्वारा अपने शिष्यों से कहे गए इस कथन से समझा जा सकता हैं कि- ‘’देखो बच्चो तुम लोग अगर नहीं पढ़ोगे तो, नुकसान तुम्हारा ही होगा, क्योंकि मुझे तो महीने के आखिर में अपनी तनख्वाह मिल ही जाएगी।” ऐसा नहीं है कि सभी शिक्षक ऐसे हैं लेकिन फिर भी देश में ऐसे हजारों शिक्षक रोज हमारे बच्चों की कलात्मकता एवं मौलिकता का गला घोंट देते हैं। ऐसे लोगों को शिक्षा के कार्य से मुक्त करके उन लोगों को इस कार्य को सौंपना चाहिए जो कि देश के भविष्य के निर्माण में अपना योगदान देकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को तत्पर हों। अगर भारत को विश्व गुरु बनना है तो, शिक्षा के क्षेत्र में उद्यमी हों, रचनात्मकता से भरे अपने अपने क्षेत्र के लीडर हों, न कि तनख्वाह पर रखे हुए कर्मचारी।