23 अप्रैल को मेरे मित्र, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता राकेश दीवान ने अपनी फेसबुक वॉल पर एक पोस्ट डाली। उन्होंने लिखा- ‘’श्रीलाल शुक्ल की किताब ‘रागदरबारी‘ की पचासवीं वर्षगांठ पर ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन‘ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में मुख्य वक्ता लीलाधर मंडलोई ने कहा कि यह विचारहीन उपन्यास मनोरंजन भर कर सकता है। उनके अनुसार पूरे उपन्यास में सत्ता-प्रतिष्ठान पर कोई सवाल नहीं उठाए गए हैं। पता नहीं कैसे, मंडलोई की इस स्थापना के बावजूद, अनेक संस्करणों, लाखों प्रतियों से लदी-फंदी ‘रागदरबारी‘ अपनी पचासवीं वर्षगांठ मना रही है।‘’
राकेश दीवान की इस पोस्ट पर जाहिर है कई लोगों की प्रतिक्रिया आनी थी और वह आई भी। उन सारी प्रतिक्रियाओं को जानने के लिए आप राकेश भाई की फेसबुक वॉल पर जा सकते हैं। ‘राग दरबारी’ चूंकि मेरा भी प्रिय उपन्यास है और मैं इसी कॉलम में कई बार उसके अंशों को उद्धृत कर चुका हूं इसलिए मुझे लगा कि राकेश भाई के द्वारा सामने लाई गई इस टिप्पणी पर मुझे भी कुछ कहना है।
कुछ भी कहने से पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहूंगा कि मैं स्वयं उस कार्यक्रम में उपस्थित नहीं था और लीलाधर मंडलोई ने जो कहा मैं प्रत्यक्ष उसका गवाह नहीं हूं। मुझे यह भी नहीं पता कि उन्होंने अपनी बात किन संदर्भों में कही और अपनी बात के समर्थन में क्या तर्क दिए। लेकिन चूंकि राकेश भाई इन मामलों में बहुत संजीदा व्यक्ति हैं, इसलिए मानकर चला जाना चाहिए कि उन्होंने लीलाधर मंडलोई के वक्तव्य के निचोड़ या उसके केंद्रीय तत्व को ही सबके साथ शेयर किया होगा।
मेरी पहली जिज्ञासा तो यही है कि क्या ‘विचार’ आज हमारा मनोरंजन नहीं कर रहे और क्या ‘मनोरंजन’ से विचार पैदा नहीं हो सकता? दरअसल श्रीलाल शुक्ल की यह ‘मनोरंजक’ कृति, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाषा में कहें तो, विचार का ही ‘साधारणीकरण’ है। हो सकता है वेद में विचार हो, लेकिन जिस दलित की बात मंडलोई करते हैं, वह वेद के जरिये नहीं बल्कि कबीर या रैदास के दोहों के जरिये विचार को जानता है। तो श्रीलाल शुक्ल यदि किसी विचार को लोकरंजन के कैनवास पर रचते हैं तो उसे विचार शून्य अथवा विचार रहित कहना अपने आप में विचारशून्यता है।
और विचार उपजता कहां से है, उन्हीं साधारण घटनाओं और परिस्थितियों से जिनका उल्लेख श्रीलाल शुक्ल ने राग दरबारी में किया है। याद रखें उन्होंने अपने उपन्यास का नाम ‘गंजहा कथा’ न रखते हुए ‘राग दरबारी’ रखा है। इस किताब का शीर्षक ही बताता है कि उनकी संपूर्ण रचना उस दरबारी या सत्ता प्रतिष्ठान वाली संस्कृति के खिलाफ है, उसकी बखिया उधेड़ने वाली है। वह उसी सीमांत व्यक्ति के आसपास घट रहे सच को दिखाती है जिसकी अपेक्षा ‘दलितोल्लेख’ के अभाव का उलाहना देते हुए मंडलोई कर रहे हैं।
और सत्ता प्रतिष्ठान पर सवाल कैसे उठाए जाते हैं? कोई लेखक सवाल कैसे उठाता है? हरिशंकर परसाई ‘इंस्पेक्टर मातादीन’ के जरिये सवाल उठाते हैं तो शरद जोशी ‘जीप पर सवार इल्लियों’ के जरिये। यह अपने अपने माध्यम को चुनने और रचना का स्वरूप अपने हिसाब से गढ़ने का मामला है।
चंद्रकांत देवताले ने लिखा- जिस तरह गिरते-पड़ते, लड़ते-झगड़ते/ छिप कर बीड़ी-फूंकते, गालियां बकते/ बड़े होते हैं बच्चे/ बड़ा हुआ मैं भी/ एक गांव ने मुझे जन्म दिया/ और एक धक्के ने/ शहर में फ़ेंक दिया/ और शहर ने मुझे कविताओं में उछालकर/ कहीं का नहीं रखा…
अब कोई यदि यह पूछे कि इसमें विचार कहां है और इसमें उन्होंने सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध कहां किया है तो यह देवताले के समग्र कृतित्व को ही खारिज करने जैसा है। क्या आप दुष्यंत से पूछ सकते हैं कि वे कोहरे का जिक्र करके किसे निशाना बना रहे हैं? जब वे कहते हैं कि ‘मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है’ तो वे भी सत्ता प्रतिष्ठान पर ही तो चोट कर रहे होते हैं।
सवाल तो यह भी है कि क्या सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध किये बिना कोई रचना रचना नहीं हो सकती। इस लिहाज से तो हमें हिन्दी साहित्य से पूरे छायावाद को ही खारिज कर देना होगा…
दरअसल जो बात श्रीलाल शुक्ल ने आज से 50 साल पहले कही थी, सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध की उससे बेहतर मिसाल मिलना मुश्किल है। स्वप्न लोक में विचरती सत्ता को जब तक शिवपालगंज और उसके गंजहे नहीं दिखाए जाएंगे वह लंदन, पेरिस, न्यूयार्क, बीजिंग, टोक्यो से नीचे उतरेगी ही नहीं। इस लिहाज से राग दरबारी हमारे समय और समाज का जीता जागता दस्तावेज है। ऐसा जीवंत दस्तावेज जिसके हिज्जे 50 साल बाद भी पुराने नहीं पड़े हैं…
राकेश भाई की वॉल पर ही राग दरबारी को लेकर एक और बात उठी। किसी रचना के प्रति ‘भक्तिभाव’ की… तो यह उसी रचना के साथ होता है जो समाज और लोक को व्यापक रूप से प्रभावित करे, उसके मन के नजदीक हो, (वही साधारणीकरण वाली बात) । तमाम आलोचनाओं के बावजूद तुलसी आज तक क्यों खारिज नहीं हुए, उन्होंने भी तो रामकथा ही लिखी। वह भी तो एक तरह से एक दरबारी घराने की ही कथा है। ‘राम दरबार’ और ‘राग दरबार’ में सिर्फ एक अक्षर का ही तो फर्क है। यदि किसी रचना के साथ पाठकों का ‘भक्तिभाव’ पैदा हो जाए, भले ही मनोरंजन के लिए ही सही, तो क्या इतने भर से हम उसे ‘विचारविहीन’ कह देंगे।
दरअसल श्रीलाल शुक्ल ने ‘राग दरबारी’ की नहीं वास्तविक अर्थों में दरबार के राग की ही बात की है। और कैसे नहीं है राग दरबारी में सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध? क्या आज हमारे समाज में वैद्यजी मौजूद नहीं हैं? क्या लंगड़ और शनीचरा हमें अपने आसपास घूमते दिखाई नहीं देते? क्या आज भी युवाओं में रंगनाथ नजर नहीं आता? और इनमें से किसी भी पात्र को श्रीलाल शुक्ल ने ऐसा महिमामंडित नहीं किया है जिससे लगे कि वे समाज में ऐसे चरित्रों और उनके साथ घटने वाली घटनाओं अथवा परिस्थितियों को आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित कर रहे हों।
तमाम भव्यता के बावजूद वैद्यजी का चरित्र एक कस्बे के उस घाघ, तिकड़मी और धूर्त नेता का ही है जो बड़प्पन का आवरण ओढ़े हर तरह की टुच्चाई और रंगदारी करता नजर आता है। क्या वैद्यजी सत्ता प्रतिष्ठान में बैठने वाली जमात का प्रतिनिधित्व नहीं करते। पूरे उपन्यास में अपनी तमाम भव्यताओं के बावजूद वैद्यजी का चरित्र पाठक में अपने प्रति कोई आदर्श भावना या भक्तिभाव नहीं जगाता वरन जुगुप्सा ही पैदा करता है।
सरकारी जीप से चपरासीनुमा अफसर और अफसरनुमा चपरासी के उतरने की बात कहना क्या नौकरशाही पर प्रहार नहीं है? यह कहना कि हमारी शिक्षा प्रणाली सड़क पर पड़ी कुतिया है जिसे कोई भी लात मारकर चल देता है, क्या सत्ता प्रतिष्ठान की रीति नीतियों पर चोट नहीं है? लंगड़ का पूरा चरित्र जिस तरह तहसील से एक नकल पाने के लिए जूझता दिखाया गया है क्या वह गवर्नेंस की परतें उघाड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है? दरअसल शिवपालगंज भारत का ही प्रतीक है। वहां जो सत्ताएं हैं वे किस तरह बेखौफ होकर अपमूल्यों के आधार पर समाज के मूल्यों को नष्ट कर रही हैं, राग दरबारी की कथा यही बताती है।