लोकसभा चुनाव परिणाम आ जाने के बाद से भाजपा और एनडीए के दल जहां सरकार बनाने की तैयारियों में व्यस्त हो गए हैं वहीं भाजपा और खास तौर से नरेंद्र मोदी के खिलाफ बढ़चढ़कर ताल ठोकने वाले विपक्षी दलों में एक तरह से सन्नाटा पसरा है। थोड़ी बहुत हलचल कांग्रेस में दिखाई दे रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि बाकी दल भारी सदमे में हैं।
हालांकि सुना है ममता दीदी ने भी बंगाल के नतीजों के बाद मुख्यमंत्री पद छोड़ने की मंशा जताई है। उन्होंने पार्टी की मीटिंग के बाद मीडिया से कहा कि मैं अब मुख्यमंत्री के रूप में काम करना नहीं चाहती। केंद्रीय शक्तियां हमारे खिलाफ काम कर रही हैं। पूरे देश में आपातकाल जैसी स्थिति पैदा कर दी गई है। समाज को हिंदू मुस्लिम में बांट दिया गया है। हमने चुनाव आयोग से कई बार शिकायत की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई।
और कांग्रेस में क्या हो रहा है? ऐसा लगता है कि वहां सभी लोग पद छोड़ने की होड़ में लगे हैं। चारों तरफ से इस्तीफा देने की जैसे बाढ़ सी आ गई है। हैरानी की बात यह है कि हार की ‘जिम्मेदारी’ लेने के नाम पर इस्तीफा दिया जा रहा है, पर आने वाले समय में कांग्रेस को जिंदा रखने या जिताने की ‘जिम्मेदारी’ लेने को कोई आगे नहीं आ रहा।
लगता है कि चुनाव के बाद इस्तीफे को या तो अपना रक्षा कवच मान लिया गया है या खाल बचाने का जरिया। हार गए तो तत्काल इस्तीफे की पेशकश कर दो ताकि पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर के लोगों को यह कहने का मौका न मिले कि इतनी बड़ी हार के बाद भी क्या हुआ? कोई यह मांग भी न उठा सके कि हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए फलां व्यक्ति को इस्तीफा देना चाहिए।
पहले ही इस्तीफा दे देने से इस तरह की बातें करने या मांग उठाने वालों के मुंह अपने आप बंद हो जाते हैं। क्योंकि हार के बाद आप ज्यादा से ज्यादा किसी से इस्तीफे की मांग कर सकते हैं, उसकी जान तो नहीं ले सकते। कोई यह नहीं कहता कि इस पराजय की जिम्मेदारी लेते हुए आपको जान दे देनी चाहिए। सबको पता होता है कि पहले ही इस्तीफा पटक देने से माहौल की गरमी खत्म हो जाती है।
नेता बड़ा हो तो वह इस बात को लेकर निश्चिंत रहता है कि वह इस्तीफा देने की बात कर भले ही रहा हो लेकिन पार्टी उसे स्वीकार नहीं करेगी। थोड़ी देर तक या थोड़े दिनों तक मान मनौवल का सिलसिला चलता है और बाद में नेता अपना इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी हो जाता है और पार्टी के बाकी लोग नेता की राजी में अपनी राजी का जयकारा लगाते हुए राजी-खुशी अपने अपने घरों को लौट जाते हैं।
ऐसे मौकों पर मीडिया में आने वाली खबरों का पैटर्न भी लगभग एक जैसा होता है। ऐसी खबरों में मुझे सबसे ज्यादा हैरानी इस वाक्य पर होती है कि ‘‘फलां नेता ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की है।‘’ अब इस्तीफा दे दिया यह बात तो समझ में आती है लेकिन इस्तीफे की पेशकश का क्या मतलब हुआ भाई? आप तय कर लें कि इस्तीफा देना चाहते हैं या नहीं। देना है तो दे दें, या फिर देने से इनकार कर दें। पर खबरें यह छपवाई जाती हैं कि साहब ने इस्तीफा देने की पेशकश की है।
यह पेशकश किसको की है, किसके सामने की है, किस रूप में की है इसका कोई खुलासा नहीं होता। बस इतनी बात सामने आती है कि पेशकश हुई। फिर खबर आती है कि पार्टी ने उस पेशकश को नामंजूर कर दिया। हवा की बात हवा में ही खतम हो जाती है। यदि आप दस्तावेजों में कुछ ढूंढने जाएं तो हो सकता है आपको कागज की एक चिंदी भी न मिले।
दरअसल नेता अपने कार्यकर्ताओं को और खासतौर से अपनी ही पार्टी में अपने विरोधियों को इस तरह की पेशकश के जरिये यह संदेश दे देना चाहता है कि ज्यादा सपने पालने की जरूरत नहीं है। वह अपने तख्तापलट का मंसूबा पाले विरोधियों का फुग्गा पहले ही फोड़ देना चाहता है। …मैंने जिम्मेदारी ले ली है ना और जिम्मेदारी के साथ ही इस्तीफे की पेशकश भी कर दी है ना, तो मामला खत्म समझो…
और मामला खत्म हो भी जाता है। कुछ दिनों की गहमागहमी के बाद पार्टी फिर पुराने ढर्रे पर लौट आती है। इस्तीफे की पेशकश करने वाला नेता बदस्तूर अपना रुतबा एंजाय करता रहता है और पार्टी के ‘समर्पित’ कार्यकर्ता अगले चुनाव का इंतजार करते हुए, अपने नेता के एक बार फिर ‘जिम्मेदारी’ महसूस करने और पिछली बार जैसी ही ‘पेशकश’ का इंतजार करने लगते हैं।
लेकिन भारतीय राजनीति का यह मोड़ हार की जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा देने या इस्तीफे की पेशकश करने का नहीं, बल्कि फिर से खड़े होकर, पार्टी को जिताने की जिम्मेदारी लेने का है। समय जिम्मेदारी से बचने का नहीं जिम्मेदारी निभाने का है। भाजपा या मोदी को कोसने का नहीं बल्कि खुद को चुनाव में जीतने लायक बनाने का है।
भाजपा ने 2014 के बाद भले ही देश को कांग्रेस मुक्त करने का नारा दिया हो लेकिन मैं मानता हूं कि खुद भाजपा या मोदी की भी इच्छा यह नहीं होगी कि मैदान में सिर्फ वे अकेले ही बचें। अब तक देश ने मोदी को जितना समझा है उसमें एक बात तो तय है कि उन्हें लड़ने, संघर्ष करने में मजा आता है। सवाल सिर्फ इतना है कि उनके सामने खड़े होने वाले या उनसे मुकाबला करने वाले को भी क्या इस राजनीतिक युद्ध में उतना ही मजा आता है?
मोदी इस राजनीतिक मैराथन में वैसा विजेता कभी नहीं बनना चाहेंगे कि एक ही व्यक्ति दौड़े और वही विजेता घोषित हो। मुद्दा यह है कि आप इस दौड़ को ‘एकल मैराथन’ होने से कितना बचा पाते हैं। कितने दम खम से दौड़ने की तैयारी करते हैं, कितने दम खम से दौड़ पाते हैं… याद रखिये, विकल्प दौड़ से अलग हो जाना नहीं, बल्कि ट्रैक पर उतरने, दौड़ने और दम लगाकर जीतने की कोशिश करने का है, क्या आप उस कोशिश से भी पीछे हट रहे हैं???