भाषा को फार्मूला बनाएंगे तो फिर गालियां ही निकलेंगी

भाषा इन दिनों बहुत चर्चा में है। फिर प्रसंग चाहे 10वीं और 12वीं की परीक्षा का हो या पांच साल में होने वाली चुनावी परीक्षा का। भाषा कहीं बच्‍चों को सौ में से सौ अंक दिलवा रही है तो कहीं नेताओं को दिन में तारे दिखवा रही है। राजनीति की भाषा पर तो बहुत बात हो चुकी, आज बात बच्‍चों की परीक्षा वाली भाषा पर।

खबरें कहती हैं कि इस बार बच्‍चों ने कई विषयों में शत प्रतिशत अंक हासिल किए और ऐसे विषयों में भाषा भी शामिल है। बाकी विषयों की बात तो मैं नहीं करता पर भाषा में सौ में से सौ अंक देने वाली परीक्षा और मूल्‍यांकन प्रक्रिया पर जरूर बात करना चाहूंगा। दरअसल भाषा का ताल्‍लुक किसी तकनीक या फार्मूले से नहीं बल्कि अभिव्‍यक्ति की क्षमता के साथ-साथ आपकी भावनाओं और संवेदनाओं से है।

यदि आप भाषा को हां या ना की तराजू में तौलने लगेंगे या उसका परीक्षण अथवा आकलन/मूल्‍यांकन करने लगेंगे तो न तो भाषा का सौंदर्य और लालित्‍य बचेगा और न ही उसमें निहित भाव संप्रेषण की ताकत। यदि भाषा को भी हमने 1+1=2 के गणितीय फार्मूले में बांध दिया तो तय मानिए कि फिर वह दिल की नहीं दिमाग की वस्‍तु हो गई। मेरे पास काफी पहले एक वाट्सएप संदेश आया था जो कहता था- डर उन लोगों से नहीं लगता जो दिमाग को दिल की तरह इस्‍तेमाल करते हैं बल्कि उन लोगों से लगता है जो दिल को दिमाग की तरह इस्‍तेमाल करते हैं।

भाषा यदि फार्मूला ही है तो फिर बताइए कि आप तुलसी या सूर को, कबीर या दादू को, गालिब या मीर को, जायसी या खुसरो को किस फार्मूले के तहत मूल्‍यांकित करेंगे। फिर भी यदि हम परीक्षा प्रणाली का ढांचा तैयार करने वाली मशीनी जिद पर आ ही जाएं तो भी यह सवाल तो बना ही रहेगा कि क्‍या किसी खांचे या फार्मूले में रखकर किसी कवि या शायर को मूल्‍यांकित किया जा सकता है?

किसी भी दोहे या शेर पर निकलने वाली आह या वाह का क्‍या कोई पैमाना हो सकता है? क्‍या कोई ऐसा पैमाना बना सकता है कि फलां टाइप का शेर या दोहा होगा तो उसे पढ़ने या सुनने वाले सभी लोगों के मुंह से वाह निकलेगी और फलां टाइप का होगा तो सभी के मुंह से आह। भाषा तो मन की अतल गहराइयों के तारों को झनझनाने वाला ऐसा माध्‍यम है जिससे कब क्‍या धुन निकलेगी किसी को नहीं पता। साहिर लुधियानवी ने लिखा था- जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है, जो साज पे गुजरी है वो किस दिल को पता है..

भाषा दरअसल साज पर सजने और साज से गुजरने वाला अहसास है। अहसास पर आप न तो कोई होलोग्राम लगाकर उसके खरेपन की गारंटी दे सकते हैं न ही कोई रसीदी टिकट चिपका कर उसकी पक्‍की पावती ले सकते हैं। यह भुगतान लेने और देने का मामला नहीं बल्कि संवेदनाओं और भावनाओं को भीतर तक भुगतने का मामला है।

बच्‍चों में एक तो वैसे ही भाषा के प्रति अब वैसा आग्रह नहीं रहा है। सोशल मीडिया और संचार के टूल्‍स उन्‍हें भाषा और भाव दोनों से अलग करते जा रहे हैं और अलग यदि न भी कर रहे हों तो भाषा के मामले में भी उन्‍हें मैकेनिकल बनाते जा रहे हैं। अब वे लिखते नहीं बस अपनी उंगलियां या अंगूठा चलाते भर हैं और संप्रेषण की सुविधा के लिहाज से जरूरत पड़ने पर गूगल से उसे ट्रांसलेट कर देते हैं। यह भी नहीं देखते कि वह अनुवाद कैसा हुआ है।

मुझे इस बात से कोई गुरेज नहीं कि किसी बच्‍चे या बच्‍ची को भाषा में भी सौ में से सौ अंक मिले। मैं ऐसे बच्‍चों की मेहनत या परीक्षा में उनके प्रदर्शन पर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूं, लेकिन मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि भाषा का मूल्‍यांकन कोई तकनीकी या गणितीय मामला नहीं है। यदि हम इस तरह का मूल्‍यांकन कर रहे हैं तो हमें उसके तरीके पर पुनर्विचार करना चाहिए क्‍योंकि यह बच्‍चों की अभिव्‍यक्ति की क्षमता को बहुत गंभीर रूप से प्रभावित करेगा।

आप अगर भाषा को भी वस्‍तुनिष्‍ठ तरीके से पूछने और मूल्‍यांकित करने लगेंगे तो यह संचार और अभिव्‍यक्ति के सबसे बड़े और सबसे असरकारी माध्‍यम के साथ अन्‍याय होगा, और एक तरह से उसे खत्‍म करने की साजिश भी। भाषा का मूल्‍यांकन वस्‍तुनिष्‍ठ नहीं बल्कि भावनिष्‍ठ तरीके से ही हो सकता है।

गुरुवार को ही मैंने एक अखबार में पढ़ा कि अमेरिका में एक टीचर ने बच्‍चों से अपनी मनपसंद फिल्‍म की समीक्षा करते हुए निबंध लिखने को कहा। एक बच्‍ची ने हॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्‍म ‘फाइट क्‍लब’ पर सिर्फ 19 शब्‍दों में उत्‍तर लिख दिया। टीचर को उत्‍तर इतना पसंद आया कि उसने छात्रा को सौ में से सौ अंक और ‘ए’ ग्रेड दिया।

अब आप इस मूल्‍यांकन की व्‍याख्‍या या विश्‍लेषण कैसे करेंगे? दरअसल उस बच्‍ची ने जो लिखा वह उस फिल्‍म के बारे में उसकी समझ और भाव के आधार पर लिखा और मूल्‍यांकन करने वाली टीचर ने भी बच्‍ची की समझ और भाव को उसी रूप में ग्रहण किया। यानी पूरे प्रसंग में बच्‍ची और टीचर की भावभूमि कमोबेश एक स्‍तर पर आई होगी। लेकिन ऐसा हर बच्‍चे के साथ तो नहीं हो सकता ना।

हो सकता है उस विषय पर कोई दूसरा बच्‍चा किसी दूसरे ढंग से 190 या 1900 शब्‍दों में लिखता और वह भी टीचर को उतना ही रुचता जितना पहले वाले बच्‍चे का लिखा रुचा था और उसे भी उतने ही अंक और वैसी ही ग्रेड मिल जाती। ऐसे में हम किसे पैमाना मानेंगे? दरअसल चाहे साहित्‍य का मामला हो या कला का, यह विशुद्धत: भाव के स्‍तर पर आपके तार जुड़ने से ताल्‍लुक रखता है।

एक प्रश्‍न यह भी है कि भाषा का मूल्‍यांकन करने वाला व्‍यक्ति कौन है? यदि स्‍वयं उसे भाषा या भाव की समझ नहीं है या फिर उसकी खुद की भाषा या संवेदना का स्‍तर वह नहीं है तो वह अच्‍छे से अच्‍छे लिखे को भी न तो ठीक से ग्रहण कर पाएगा और न ही उसका आकलन कर पाएगा। ऐसे में बेहतर होगा हम बच्‍चों को भाषा के मामले में समृद्ध और संवेदनशील बनाने का जतन करें न कि भाषा को फार्मूले में बदलने का। भाषा जब फार्मूले में बदलती है तो उसका क्‍या हश्र होता है, यह इन दिनों हम चुनावी भाषणों में देख ही रहे हैं… क्‍या हम समाज में ऐसी ही भाषा चाहते हैं?

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