कुछ तो राजनीतिक तौर पर संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने की कोशिश हो रही है और कुछ ऐसी ही कोशिशें सोशल मीडिया पर की जा रही हैं। सोशल मीडिया पर लोकतंत्र को भीड़ तंत्र में बदला जा रहा है। अब वहां से फतवे जारी होते हैं और देखते ही देखते लोग नोच लिए जाते हैं।
आपको याद होगा कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर फैली ऐसी ही अफवाहों के कारण बेंगलुरू और दक्षिण भारत के कई प्रमुख शहरों से नार्थ ईस्ट के युवाओं को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था। नार्थ ईस्ट के लोगों के साथ मारपीट और उन्हें शहर छोड़कर चले जाने की धमकियों के कारण ऐसा आतंक फैला था कि बेंगलुरू का कॉस्मोपोलिटन नेचर ही बदल गया था।
चिंताजनक बात यह है कि अब पुलिस या अदालतें किसी को आरोपी या दोषी नहीं बतातीं, उससे पहले ही यह काम सोशल मीडिया के ट्रोलर्स या वहां पनप रही अराजक भीड़ कर डालती है। यह भीड़ पुलिस भी है और अदालत भी… और अब तो बिना किसी अपराध के मौत की सजा देकर यह जल्लाद का काम भी अंजाम दे रही है।
यकीन न आए तो जरा पिछले कुछ दिनों के ये उदाहरण देख लीजिए-
एक जुलाई को महाराष्ट्र के धुले में भीड़ ने सिर्फ इस अफवाह पर पांच लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी कि वे बच्चा चोर थे। यह अफवाह वॉट्सएप से ही फैली थी। इसी दिन असम के सोनपुर जिले में गांव वालों ने मानसिक रूप से कमजोर एक महिला को खंभे से बांध कर पीटा। उस पर भी बच्चा चोर होने का संदेह जताया गया था।
इसके पहले 28-29 जून को त्रिपुरा में भीड़ के हमले के तीन मामले सामने आए। इन सभी के पीछे सोशल मीडिया पर चल रही बच्चा चोर घूमने की अफवाह प्रमुख वजह थी। 26 जून को गुजरात के अहमदाबाद में करीब 30 लोगों की भीड़ ने बच्चा चोर होने के संदेह में 40 साल की एक महिला की पीट-पीट कर हत्या कर दी।
22 जून को छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले में भीड़ ने बच्चा चोर होने के संदेह में एक व्यक्ति की हत्या की तो 19 जून को यूपी के हापुड़ जिले में गोहत्या में लिप्त होने के शक पर एक व्यक्ति को मार डाला गया। 13 जून को पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में बच्चा चोरी के संदेह में एक व्यक्ति को खंभे से बांध कर इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गई।
8 जून को असम के ही कार्बी आनलांग जिले में करीब 70 लोगों की भीड़ ने दो लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी। इसी दिन महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में भीड़ ने दो लोगों को मार दिया। पुलिस के अनुसार, ये हत्याएं वॉट्सएप पर फैली अफवाह की वजह से हुईं।
28 मई को आंध्र प्रदेश के पुराने हैदराबाद में करीब 500 लोगों की भीड़ ने सिर्फ बच्चा चोर होने की अफवाह पर एक किन्नर की पीट-पीट कर हत्या कर दी। 25 मई को बेंगलुरू में बच्चा चोर होने के शक में एक व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई।
24 मई को तेलंगाना के निजामाबाद और यदाद्रि जिले में दो अलग-अलग घटनाओं में दो लोगों को इसी तरह मार दिया गया, जबकि 10-11 मई को तमिलनाडु में 24 घंटे के भीतर लिंचिंग के दो मामले सामने आए। इससे पहले गोहत्या मुद्दे पर भी देश ऐसी ही हिंसा का दौर झेल चुका है।
अब सवाल उठने लगा है कि क्या सोशल मीडिया सीरियल किलर बन गया है। क्योंकि पिछले दो महीनों में देश में उग्र भीड़ ने पीट पीट कर 16 लोगों की जान ले ली। आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 20 करोड़ लोग वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। अब आप अंदाज लगाइये कि यदि यह संख्या किसी मुहिम पर उतर आए तो क्या क्या नहीं कर सकती।
मंदसौर जैसी घटनाएं जब भी होती हैं एक मांग उठती है, अपराधियों को चौराहे पर फांसी दी जाए या फिर उन्हें भीड़ के हवाले कर दिया जाए। लेकिन क्या ऐसा किया जा सकता है,क्या ऐसा किया जाना संभव होगा? निश्चित रूप से ऐसे जघन्य अपराधों के दोषियों के लिए मौत की सजा ही सबसे उपयुक्त है लेकिन मौत देने का अधिकार यदि भीड़ को दे दिया गया तो उसके क्या परिणाम होंगे क्या इस पर कभी सोचा गया?
कुछ दिन पहले महिलाओं को छेड़ने वालों के खिलाफ चलाई जा रही पुलिस की मुहिम के तहत आरोपियों की सार्वजनिक रूप से पिटाई के दृश्य काफी प्रचलन में थे। हमारे एक सुधी पाठक ने उन दृश्यों को लेकर एक सवाल उठाया कि क्या पुलिस की मौजूदगी में लोगों का इस तरह कानून हाथ में लेकर दोषियों को सजा देना उचित है?
मैं जानता हूं कि उन सुधी पाठक द्वारा उठाए गए इस सवाल के खरीदार आज के समय में ज्यादा नहीं होंगे। उन्मादी सोशल मीडिया पर तो शायद कतई नहीं। लेकिन यह सवाल खारिज करने योग्य भी नहीं है। जिस पुलिस पर लोगों की हिफाजत की जिम्मेदारी है, जिस पर अभियोजन के जरिये सजा दिलवाने की जिम्मेदारी है वह अपनी मौजूदगी में संविधान और कानून सम्मत न्याय के बजाय भीड़ से न्याय करवाने लगे तो यह उन्मादी प्रवृत्ति तो बढ़ेगी ही…
हमें याद रखना होगा कि राजनीति में ऐसी मनमानी का सिरा जहां तानाशाही तक जाता है वहीं समाज में ऐसे उन्माद का नतीजा खालिस अराजकता की ओर… आपस में या फिर भीड़ द्वारा इस तरह मामले निपटाए जाने लगे तो चारों तरफ खून के अलावा कुछ नजर नहीं आएगा… क्या हम ऐसा रक्तरंजित माहौल चाहते हैं?