हम दवाओं और इलाज विधियों पर बात क्‍यों नहीं करते

पत्रकारिता का बुनियादी सिद्धांत है कि आपको किसी भी सूचना या खबर के हर पक्ष को जानने की कोशिश करनी चाहिए। यह बात अलग है कि आजकल केवल एकपक्षीय होकर खबरें लिखने या विचार व्‍यक्‍त करने का चलन ज्‍यादा हो चला है। इस चलन का दुष्‍परिणाम यह हुआ है कि सूचनाओं अथवा विचारों का सही या गलत वाला पक्ष ही ज्‍यादा सामने आता है बराबरी से दोनों चीजें नहीं।

मैं सेहत से जुड़े मुद्दों पर लिखता रहा हूं और यह मेरी रुचि का भी विषय है। इसीलिए पिछले दिनों जब यह खबर आई कि सरकार ने मशहूर दर्दनिवारक वोवेरॉन के इंजेक्‍शन को बैन कर दिया है तो मन में सहज ही सवाल उठा था कि जब इस इंजेक्‍शन में सेहत को नुकसान पहुंचाने वाला इतना खतरनाक तत्‍व था तो इतने सालों से यह मरीजों को दिया क्‍यों जाता रहा?

दरअसल वोवेरॉन पर यह प्रतिबंध भारतीय दवा नियंत्रक (डीसीजीआई) ने केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय की सिफारिश पर लगाया है। इसके तहत अब वोवेरॉन इंजेक्‍शन का उत्‍पादन और बिक्री नहीं की जा सकेगी। इस दवा में ट्रांसक्युटोल तत्व है जो पूरी दुनिया में प्रतिबंधित है। इस तत्‍व के गंभीर दुष्परिणाम मरीजों की किडनी पर देखे जाते हैं।

मंगलवार को जब मैं अपने एक परिचित को भोपाल के ही एक अत्‍याधुनिक हड्डी रोग एवं ट्रॉमा अस्‍पताल में दिखाने पहुंचा तो वहां उनकी जांच आदि के बाद कुछ और बातें भी चल पड़ीं। मेरे परिचित के घुटने में चोट थी और उनके दर्द की स्थिति को लेकर बात करते समय मैंने यूं ही हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉक्‍टर से पूछ लिया कि मशहूर दर्द निवारक वोवेरॉन को तो सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया है।

इतना सुनते ही उन्‍होंने कहा कि यह विवाद तो लंबे समय से चल रहा था। दरअसल वोवेरॉन का इंजेक्‍शन बैन किया गया है जिसमें खतरनाक तत्‍व पाया गया। लेकिन प्रचार ऐसे हो रहा है मानो इसके मूल रसायन डाइक्‍लोफेनेक को प्रतिबंधित किया गया है। जबकि डाइक्‍लोफेनेक तो कई दर्द निवारक गोलियों और इंजेक्‍शन आदि में आज भी इस्‍तेमाल हो रहा है।

वैसे डाइक्‍लोफेनेक के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि यह नाम इसके मूल रसायनिक तत्‍व डाईक्‍लोरेनिलिनो फिनाइलएसिटिक एसिड से लिया गया है। इसे पहली बार 1973 में अल्‍फ्रेड सॉलमन और रुडोल्‍फ फिस्‍टर ने संश्‍लेषित किया था। तत्‍कालीन फार्मा कंपनी सीबा-गायगी ने इसे वोल्‍टारेन के नाम से प्रस्‍तुत किया था। यानी यह दर्दनिवारक पिछले करीब 45 सालों से दुनिया में प्रचलन में है।

लेकिन मूल बात यह नहीं कि यह दवा कब से चल रही है और इसके रसायनिक तत्‍व कौनसे हैं। जिस बात पर मैं आपका ध्‍यान दिलाना चाहता हूं वह बात अब सुनिये… हमें हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉक्‍टर ने हैरानी वाली बात यह बताई कि इस इंजेक्‍शन को बैन करने की खबर हमें मीडिया से ही मिली। देश के सरकारी मेडिकल सिस्‍टम में ऐसा कोई मैकेनिज्‍म नहीं है जो प्रैक्टिस करने वाले डॉक्‍टरों को सीधे यह सूचना देकर उन्‍हें ऐसे किसी फैसले से अवगत कराए।

उन्‍होंने कहा कि हम लोग तो राजधानी जैसी जगह पर हैं और मीडिया के संपर्क में रहते हैं तो ऐसे किसी फैसले की जानकारी हो जाती है, लेकिन क्‍या किसी भी दवा के बारे में होने वाले ऐसे फैसलों को आधिकारिक रूप से सीधे डॉक्‍टरों तक पहुंचाने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं होनी चाहिए? यही हाल कोई भी नई दवा बाजार में आने के मामले में भी है। उसका पता भी दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों (एमआर) से चलता है।

और जब दवा कंपनियों की बात निकली तो मैंने पूछ लिया कि वो तो डॉक्‍टरों को कई सारे प्रलोभन देकर अपनी दवा बिकवाने में रुचि रखती हैं। इस पर भी उनका जवाब सुनने लायक था। उन्‍होंने कहा, दवा कंपनियां डॉक्‍टरों पर खर्च करती हैं इससे इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि इस मामले पर बवाल मचने के बाद इस पर काफी कुछ लगाम लगी है।

लेकिन, दवा कंपनियां एक और काम जो करती हैं उस पर किसी का ज्‍यादा ध्‍यान नहीं जाता। दरअसल डॉक्‍टरों के पास रोजमर्रा की व्‍यस्‍तता के चलते दवाओं, इलाज विधियों और अत्‍याधुनिक उपकरणों के इस्‍तेमाल आदि के बारे में जानने व सीखने का समय नहीं रहता। यह काम वे समय समय पर आयोजित होने वाले वर्कशॉप, सेमिनार आदि में भाग लेकर ही कर पाते हैं।

डॉक्‍टर का कहना था कि ऐसे आयोजनों में काफी खर्च होता है, औसतन एक आयोजन पर कम से कम 50 से 60 हजार रुपए। यदि कोई डॉक्‍टर साल में चार कान्‍फ्रेंस भी अटेंड करे तो उसे ढाई से तीन लाख रुपए खर्च करने होंगे। इतनी बड़ी राशि अपने पास से कौन खर्च करना चाहेगा। ऐसे में कंपनियां इन आयोजनों को प्रायोजित करके डॉक्‍टरों को आपस में संवाद करने, एक दूसरे के अनुभव जानने और नई दवा एवं तकनीक को समझने का मंच प्रदान करने में सहायक होती हैं।

एम्‍स जैसी संस्‍थाओं के डॉक्‍टरों के ऐसे देशी-विदेशी प्रशिक्षणों आदि के लिए सरकार विशेष राशि उपलब्‍ध कराती है। लेकिन प्राइवेट सेक्‍टर के डॉक्‍टरों के लिए ऐसा कुछ नहीं होता। होना तो यह चाहिए कि सरकार का स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय अपने स्‍तर पर ऐसे आयोजन करे और उसमें सरकारी और निजी दोनों क्षेत्र के डॉक्‍टरों की भागीदारी संभव बनाई जाए।

डॉक्‍टर का सुझाव था कि सरकार एक एप बनाकर देश भर के डॉक्‍टरों को क्‍यों नहीं जोड़ सकती। उस एप के जरिये डॉक्‍टरों को दवाओं से लेकर अत्‍याधुनिक तकनीक की जानकारी भी दी जाए और प्रतिबंधित दवाओं से लेकर मेडिकल पेशे से जुड़े कानून कायदों की भी।

वरना एक वोवेरॉन प्रतिबंधित करने से क्‍या हो जाएगा। आज भी देश के कई हिस्‍सों में लिनेजोलिड जैसी अतिसंवेदनशील एंटी बैक्‍टीरियल दवा गांवों तक में प्राथमिक उपचार के लिए धड़ल्‍ले से इस्‍तेमाल हो रही है, जबकि इसके बारे में स्‍पष्‍ट निर्देश हैं कि इसे तीसरे स्‍तर के उपचार में ही इस्‍तेमाल किया जाना है।

मुझे लगता है यूं ही हो गई इस बात से जो बिंदु सामने आए हैं, उन पर बात जरूर होनी चाहिए… हमारे जो पाठक डॉक्‍टर हैं, उन्‍हें इस विषय को आगे बढ़ाना चाहिए। एंटीबॉयोटिक और दर्द निवारक दवाओं के इस्‍तेमाल को लेकर मरीजों को ही नहीं डॉक्‍टरों को भी एजुकेट करने की जरूरत है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here