प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रविवार को अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करके चीन उड़ गए लेकिन अपने पीछे वे एनडीए कुनबे की जिस कलह को छोड़ गए हैं उसकी गूंज पूरा अनुष्ठान खत्म हो जाने के बावजूद अब तक खत्म नहीं हुई है।
सबसे ज्यादा हल्ला इस बात पर मच रहा है कि इस विस्तार में मोदी ने पूर्व नौकरशाहों तक को जगह दी, लेकिन जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना जैसे अपने सहयोगी दलों की ओर देखा तक नहीं। छोटे मोटे करीब तीन दर्जन दलों के संयुक्त परिवार एनडीए में इन दोनों ही दलों की मुखरता सबसे ज्यादा सामने आ रही है या लाई जा रही है।
इस बात को रिजर्व में रखते हुए कि मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व के हो हल्ले में मीडिया का खेल कितना है और असली खेल कितना, कुछ तर्कों पर बात होना जरूरी है। पहली बात तो यह कि प्रतिनिधित्व के मामले में शिवसेना और जदयू को एक ही तराजू पर रखकर नहीं देखा जा सकता। हिन्दुत्व के विचार के लिहाज से देखें तो शिवसेना भाजपा के ज्यादा निकट है। जबकि जदयू मूल रूप से समाजवादी विचारधारा के लोगों का जमावड़ा है।
राजनीतिक परिस्थितियों ने नीतीश या उनकी जदयू को भले ही भाजपा के साथ नए समीकरण बिठाने पर मजबूर कर दिया हो लेकिन वैचारिक दृष्टि से दोनों दलों में कोई साम्य नहीं है। यह एक ऐसा बेमेल विवाह है जो कितने दिन चलेगा कहा नहीं जा सकता।
अब पहले शिवसेना को न पूछने का कारण जान लें। पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र में भाजपा की ताकत लगातार बढ़ रही है और इससे शिवसेना वहां खुद के लिए खतरा महसूस कर रही है। नगरीय चुनावों में भी भाजपा शिवसेना पर भारी पड़ी थी। अपने राजनीतिक अस्तित्व पर आया खतरा भांपते हुए शिवसेना इस दुविधा में झूल रही है कि वह भाजपा से संबंध रखे या नहीं।
यही कारण है कि शिवसेना लंबे समय से किसी न किसी बहाने भाजपा की आलोचना का अवसर खोजती रहती है। चीन की तरह उसने भी कई बार भाजपा को गीदड़ भभकियां दी हैं। लेकिन भाजपा ऐसी बातों की अनदेखी करते हुए ‘हाथी की चाल’ वाले मुहावरे की तरह आगे बढ़ रही है। उसने अपना सारा ध्यान जमीनी पकड़ मजबूत करने के साथ ही शिवसेना के विकल्प पर भी लगा रखा है। भाजपा की पूरी तैयारी है कि यदि शिवसेना गठबंधन से अलग होकर अपना समर्थन वापस लेती है तो उसके असर से कैसे निपटा जाए। इसीलिए भाजपा ने एनसीपी से अपनी पींगें बढ़ाने की हरकत खत्म नहीं की है।
वैसे शिवसेना को भी नहीं भूलना चाहिए कि यह पुराने संबंधों का तकाजा और लिहाज ही है कि भाजपा शिवसेना की तमाम ऊलजलूल हरकतों को सहन कर रही है। वरना जिस दिन पंगा बढ़ा उसके बाद कभी भी आप शिवसेना के दो फाड़ होने की खबर सुन सकते हैं। उद्धव ठाकरे के मन में असली खुटका ही यही है और शायद यही कारण है कि वे चाहे जितना बड़बोलापन दिखाते हों, लेकिन कर कुछ नहीं पाते, सिर्फ कसमसाकर रह जाते हैं।
अब जदयू पर आ जाइए। सबसे पहली बात तो यह कि आज भले ही जो भी स्थिति निर्मित हुई हो, लेकिन यह कैसे भूला जा सकता है कि पिछला लोकसभा चुनाव हो या फिर बिहार विधानसभा का चुनाव, जदयू और भाजपा ने उसे एक दूसरे के खिलाफ लड़ा है। लालू फैक्टर का पेंच नहीं आया होता तो नीतीश ने भाजपा के साथ जाने जैसा आत्मघाती कदम कभी नहीं उठाया होता। भले ही वे एक समय एनडीए के सहयोगी रहे थे, लेकिन वह जमाना अटलबिहारी वाजपेयी के ‘उदार युग’ का था, जबकि यह जमाना मोदी और अमित शाह का है। इनकी राजनीति में उदारता के लिए कोई स्थान नहीं है।
वर्तमान भाजपा नेतृत्व नौ नकद न तेरह उधार वाले सिद्धांत में विश्वास रखता है। और फिर लंबी लड़ाई के बाद नीतीश और उनकी जदयू को भाजपा अथवा एनडीए के साथ आए दिन ही कितने हुए हैं। जुम्मे जुम्मे सात दिन पहले गठजोड़ करने के साथ ही कोई मंत्रिमंडल में जगह पाने का सपना पाल ले तो उससे ज्यादा नासमझ कोई नहीं होगा। मेरा मानना है कि और कोई समझे या न समझे, लेकिन नीतीश तो इस समीकरण की नजाकत को जरूर समझते होंगे।
हां, भाजपा यदि जदयू के किसी व्यक्ति को अपने से मंत्रिमंडल में ले लेती तो यह उसकी अतिरिक्त उदारता होती। लेकिन जैसाकि मैं पहले ही कह चुका हूं,आज भाजपा जिन हाथों में हैं वे अपनी चीज दूसरों को थमाने या दूसरे से बांटने के बजाय उलटे यह कहने में विश्वास रखते हैं कि ‘ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर…’ जब वर्तमान सरकार बनाने या एनडीए को मजबूत करने में जदयू का अब तक कोई हाथ रहा ही नहीं है तो न जदयू का हक बनता है कि वह मंत्रिमंडल में भागीदारी की उम्मीद पाले और न ही भाजपा पर यह आयद है कि वह ऐसा करे।
शायद यही कारण है कि तमाम अटकलबाजियों या मीडिया के बवाल के बाद जेडीयू नेताओं को सफाई देने आगे आना पड़ा। सोमवार को नीतीश कुमार ने खुद कहा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने को लेकर कोई बात ही नहीं हुई थी। बेवजह जेडीयू का नाम लिया जा रहा है। ‘’जेडीयू से संबंधित जो भी बात होगी उसे मैं खुद ही सबको बता दूंगा। ये बातें सूत्रों के हवाले से मीडिया में चलीं। मैं भी जानना चाहता हूं कि वह सूत्र कौन है?’’
इसी तरह शिवसेना की प्रतिक्रिया भी नाटकीयता से भरी रही। उसने सिर्फ इतना कहा कि नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के बाद भी उसमें प्रयोग जारी है। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय में कहा गया कि लोग अब भी ‘अच्छे दिन’ का इंतजार कर रहे हैं।
असलियत तो यह है कि भाजपा ने भारत की राजनीति पर जो पकड़ बना ली है, उसमें बाकी दलों के पास अपने लिए ‘सूत्र’ खोजने या ‘अच्छे दिन’ का इंतजार करने के अलावा कुछ बचा ही नहीं है।