अजय बोकिल
गुजरात के मशहूर तीर्थ स्थल पावागढ़ में गधा मालिकों की हड़ताल गधों के हक में है या उनके खिलाफ है, तय करना मुश्किल है। कारण जिला प्रशासन ने गधों पर लादे जाने वाले सामान के वजन की लिमिट बांध दी है। गधा मालिक चाहते हैं कि लिमिट हटाई जाए, क्योंकि कम वजन लादने से गधों की सेहत भले सुधरे, गधा मालिकों की सेहत जरूर खतरे में पड़ जाएगी। उतना ही माल लाने के लिए ज्यादा चक्कर लगेंगे और इसके लिए ज्यादा कीमत चुकानी होगी। इससे कारोबार पर विपरीत असर पड़ेगा। प्रशासन का कहना है कि वह केवल गधा मालिकों की सुविधा के लिए गधों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ होते नहीं देख सकता। बहरहाल गधा मालिकों की हड़ताल से इस हिल स्टेशन पर माल की आपूर्ति ठप हो गई है। हड़ताल लंबी चली तो मुश्किलें और बढ़ेंगी।
पावागढ़ गुजरात के पंचमहाल जिले में पड़ता है और अपने महाकाली मंदिर और जैन मंदिरों के लिए जाना जाता है। यह करीब डेढ़ हजार फुट की ऊंचाई पर बसा एक हिल स्टेशन भी है। यहां हर साल लाखों की तादाद में श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। इसलिए इतनी ऊंचाई पर पर्यटन और धार्मिक कारोबार भी खूब चलता है। इस ऊंचाई पर जरूरी सामान लाने ले जाने का काम परंपरागत रूप से गधों से ही होता आया है। सालों से चली आ रही इस व्यवस्था में व्यवधान तब पैदा हुआ, जब प्रशासन ने गधों के लिए भी पशु निर्दयता निवारण कानून सख्ती से लागू कर दिया। इसके तहत अब एक गधे पर 50 किलो वजन ही लादा जा सकेगा।
इन पहाड़ों पर माछी गांव तक रास्ता है। लेकिन इससे आगे रास्ता खराब होने से ऊंचाई पर गधे ही सबसे भरोसेमंद मालवाहक साबित होते रहे हैं। गधा मालिकों का कहना है कि अगर हम 50 किलो वजन ही ले जाते हैं तो जो भाड़ा हमे मिलता है, वह पर्याप्त नहीं है। इसे बढ़ाया जाए। अगर निर्धारित मात्रा से ज्यादा सामान लादें तो हमारे खिलाफ मामला दर्ज हो जाएगा। उनका यह भी तर्क है कि सामान क्या और कितना ले जाया जाए, यह भेजने वाले व्यक्ति की जरूरत पर निर्भर है।
वजन की लिमिट बांधने से गैस सिलेंडर, दूध, फल, नारियल, खाद्यान्न आदि वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित होगी। जबकि प्रशासन का कहना है कि गधा मालिक ज्यादा पैसा कमाने के चक्कर में एक ही गधे पर मनमाना वजन लादते हैं। क्योंकि वो गधे को गधा ही मानते हैं। ऐसे में गधों की सेहत गिरती जा रही है। गधा परिश्रमी प्राणी होता है। हाड़ तोड़ मेहनत से नहीं मुकरता। लेकिन उसके साथ इतनी निर्दयता भी ठीक नहीं है। जिले के एक डिप्टी कलेक्टर ए.के.गौतम का तर्क है कि पिछले दिनों तमाम गधों की फिटनेस जांच करवाई गई थी, जिसमें 11 गधे अनफिट पाए गए। इसका मुख्य कारण यही है कि गधों से गधों की तरह ही काम लिया जा रहा है।
गुजरात में गधों का महत्व शुरू से रहा है। अगर तादाद की बात करें तो पूरे देश के कुल गधों का दस फीसदी केवल गुजरात में पाया जाता है। 2012 की पशुगणना के हिसाब से गधों की आबादी के मामले में गुजरात देश में नंबर तीन पर है। हालांकि ये आंकड़े गुजरात मॉडल को सूट नहीं करते। लेकिन अच्छी बात यह है कि गुजरात में पशुधन लगातार बढ़ रहा है, जिनमें गधे भी शामिल हैं। खास बात यह कि देश में जंगली गधे भी गुजरात के कच्छ में ही पाए जाते हैं। इन्हें गुजराती में घुडखुर कहते हैं। यहां जगंली गधों का अभयारण्य भी है।
राज्य के गधे किसी न किसी कारण चर्चा में रहते हैं। पिछले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गुजरात के गधों को लेकर तीखा सियासी तंज किया था, जिसका जवाब प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर दिया था कि मैं गधों से भी प्रेरणा लेता हूं। क्योंकि गधा एक मूक और परिश्रमी प्राणी है, 12 से 18 घंटे तक मेहनत करता है। पीएम की बातों को यूपी की जनता ने गंभीरता से लिया और राज्य में भाजपा बंपर मेजारिटी से जीती।
गुजरात और खासकर पावागढ़ के गधे नकारात्मक कारणों से भी चर्चा में रहे हैं। पावागढ़ महाकाली मंदिर में 2007 में भगदड़ में 11 श्रद्धालुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इस हादसे की जांच करने वाले आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि हादसा मंदिर तक जाने वाले संकरे रास्ते के कारण हुआ। क्योंकि इसी रास्ते से गधे भी सामान लेकर ऊपर तक जाते हैं। इसी कारण भगदड़ भी मची।
बात सिर्फ पावागढ़ की करें तो यहां रोजाना 335 गधे मैदानी इलाके से जरूरत का सामान ऊपर तक पहुंचाते हैं। पावागढ़ में करीब 250 दुकानें हैं। गधे इनकी जिंदगी का अहम हिस्सा हैं। उधर प्रशासन गधों को गधाहम्माली से बचाने के लिए ऊपर तक केबल कार डलवा रहा है। यह काम पूरा होने के बाद मशीनी तरीके से सामान हिल टॉप तक भेजा जा सकेगा। तब गधों की जरूरत भी नहीं रह जाएगी। शायद इसीलिए पावागढ़ में गधों के साथ बेरहमी बरतने से रोकने वाला कानून अभी से सख्ती के साथ लागू किया जा रहा है।
अब सवाल यह है कि अगर केबल कार डल गई तो गधों का क्या होगा? उन्हें कौन और क्यों पालेगा? अभी तो प्रश्न केवल उनकी सेहत और उनसे गधा हम्माली करवाने का है। जब मशीन खुद गधा बन जाएगी तो असली गधे कहां जाएंगे? क्या करेंगे? इसकी चिंता किसी को नहीं है। गधा मालिकों की चिंता केवल कमाई है तो प्रशासन की चिंता नई तकनीक के जरिए पर्यटन और माल की तेजी से आवाजाही को बढ़ावा देना है।
यहां गधों की सेहत की चिंता केवल एक बहाना है। उन पर लदा वजन कानूनी दबाव में घट भी जाएगा, लेकिन कल को उनपर फाके की नौबत भी आ सकती है। वैसे भी असली गधों की आधुनिक जीवन शैली में कोई खास अहमियत नहीं रह गई है। वो केवल इंसानों में गधेपन का प्रतीक और तुलनात्मक पैमाना भर रह गए हैं। ऐसा लगता है कि पावागढ़ के गधे केवल मेहनत की घास खाना जानते हैं। वे कच्छ के जंगली गधों की रईसी भी एफोर्ड नहीं कर सकते, जिनका विज्ञापन बिग बी जैसे स्टार लोग करते हैं।
पावागढ़ के गधों की जिंदगी उनके मालिकों की कमाई पर निर्भर है, इसीलिए उन्होंने कम वजन ढोने को लेकर न तो कोई ट्रेड यूनियनी मांग की और न ही ज्यादा बोझ ले जाने की कोई शिकायत की। मालिकों की हड़ताल के बीच शायद वे अभी भी ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं कि सरकारी पशु दया कानून गधों को बचाने के लिए है या फिर उन्हें सभ्यता की दौड़ में भी गधा साबित करने के लिए है?
(सुबह सवेरे से साभार)