मध्यप्रदेश में कम छात्र संख्या वाले प्राइमरी और मिडिल स्कूलों को खत्म कर उन्हें हाईस्कूल या हायर सेकण्डरी स्कूलों में मिला देने की ‘समेकित स्कूल’ योजना पर बात करते हुए कल मैंने कहा था कि नवाचार से मेरा कोई विरोध नहीं है, लेकिन प्रश्न यही है कि ऐसी योजना पर अमल से पहले आपने सारा आगा पीछा ठीक से सोच लिया है ना?
लेकिन आज मैं शिक्षा से ही जुड़े जिस मुद्दे पर बात करने जा रहा हूं उसे देखकर तो लगता है कि आगा पीछा सोचना तो सरकारों या सरकारी तंत्र ने सीखा ही नहीं है। यह मामला सीबीएसई की 12 वीं कक्षा के नतीजों को लेकर पैदा हुए ताजा विवाद का है। एक तरफ परीक्षा देने वाले छात्र बेसब्री से रिजल्ट आने की आस लगाए बैठे हैं और दूसरी तरफ उनके भविष्य की गेंद सीबीएसई, मानव संसाधन मंत्रालय,हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर इधर से उधर उछाली जा रही है।
इस विवाद की जड़ सीबीएसई की मॉडरेशन पॉलिसी है। इसके तहत छात्रों को मुश्किल सवालों के लिए ग्रेस मार्क्स दिए जाते रहे है। पेपर में कोई सवाल गलत होता है तब भी छात्रों को इसका लाभ दिया जाता है। सीबीएसई के अलावा भी कई राज्यों के परीक्षा बोर्ड इसी नीति को आधार बनाकर छात्रों को ग्रेस मार्क्स देते रहे हैं।
इस पॉलिसी का मैकेनिज्म यूं समझिए… सीबीएसई हर साल प्रश्न पत्र के तीन सेट डिजाइन करवाता है। इनमें एक सेट सबसे मुश्किल होता है। मुश्किल प्रश्नों को लेकर सीबीएसई के पास हर साल ढेरों शिकायतें आती हैं। इनके निपटारे के लिए बनी रिव्यू कमेटी को यदि लगता है कि वास्तव में प्रश्न पत्र बहुत कठिन था तो छात्रों को ग्रेस मार्क्स दिए जाते हैं।
इस नीति को लेकर विवाद होता रहा है। आरोप यह लगता है कि कई बोर्ड अपने छात्रों को बेहतर नंबर देने के लिए इस नीति का दुरुपयोग करते हैं। दूसरी तरफ प्रतिभावान और मेहनती छात्र इसके कारण खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। क्योंकि ये मेधावी छात्र तो उन कठिन सवालों को हल कर लेते हैं पर बाकी छात्र नहीं कर पाते। और जब ऐसे ‘कठिन सवाल’ पर नंबर देने की बात आती है तो पॉलिसी के तहत वे छात्र भी उतने ही नंबर पा जाते हैं जिन्होंने वह सवाल हल ही नहीं किया होता है।
ऐसी विसंगतियों को दूर करने के लिए गत 24 अप्रैल को मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित एक महत्वपूर्ण बैठक में सीबीएसई और 32 राज्यों के परीक्षा बोर्ड्स ने मॉडरेशन पॉलिसी को खत्म करने का फैसला किया था। इसके बाद सीबीएसई ने यह पॉलिसी खत्म कर दी। इसे खत्म करने के पीछे दिल्ली यूनिवर्सिटी की हाई कट-ऑफ को भी एक कारण बताया गया था। माना गया कि मॉडरेशन पॉलिसी से छात्रों को 15 प्रतिशत तक ज्यादा अंक मिल जाते हैं।
लेकिन जैसे ही सीबीएसई ने मॉडरेशन पॉलिसी खत्म करने का ऐलान किया, एक अभिभावक ने इसके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी। वहां तर्क दिया गया कि यह नीति इस साल की परीक्षा के बाद बदली गई है। ऐसा करना छात्रों के साथ अन्याय है। कोर्ट ने मंगलवार को सीबीएसई को निर्देश दिया कि वह इस साल अपना फैसला लागू न करे। क्योंकि यह वैसा ही है जैसे खेल शुरू होने के बाद खेल के नियम बदल दिए जाएं। अब ताजा स्थिति यह है कि सीबीएसई ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कही है।
यह पूरा मामला शिक्षा को लेकर सरकार और शिक्षा तंत्र की अदूरदर्शी सोच का नमूना है। मॉडरेशन पॉलिसी को लेकर विसंगतियां रही होंगी, यह भी माना जा सकता है कि कई बोर्ड इसका दुरुपयोग भी कर रहे होंगे। लेकिन कोर्ट की यह टिप्पणी गले उतरने वाली है कि खेल शुरू होने के बाद उसके नियम कैसे बदले जा सकते हैं। यदि सीबीएसई को लग रहा था कि मॉडरेशन पॉलिसी गलत है और इस पर पुनर्विचार होना चाहिए तो इसकी प्रक्रिया परीक्षाएं शुरू होने से पहले ही पूरी कर ली जानी चाहिए थीं। उस समय बोर्ड सोता क्यों रहा?
परीक्षा हो चुकने के बाद, अब तक प्रचलित नियमों को अचानक बदल देने से विवाद तो खड़ा होगा ही। यदि सीबीएसई पहले यह काम कर लेती और छात्रों को साफ बता दिया जाता कि इस साल से उन्हें कोई ग्रेस मार्क्स आदि नहीं मिलेंगे तो उनकी मानसिकता भी वैसी ही बनती। मेधावी और प्रतिभावान छात्रों की बात छोड़ दें,लेकिन कई छात्र ऐसे होते हैं जो परीक्षा में पेपर देने के बाद आने वाले नंबरों को लेकर खुद का हिसाब लगाते हैं। यदि उन्हें लगता है वे कुछ नंबरों से पिछड़ जाएंगे तो ग्रेस मार्क्स की अब तक प्रचलित व्यवस्था उन्हें यह भरोसा दिलाए रखती थी कि‘डूबते को तिनके के सहारे’ की तरह ये ग्रेस मार्क्स उनका भविष्य बरबाद होने से बचा लेंगे।
लेकिन परीक्षा हो जाने के बाद यह फैसला लेकर बोर्ड ने ऐसे सारे ‘कमजोर’ छात्रों पर मानसिक दबाव और तनाव बढ़ा दिया है। परीक्षा और बेहतर नंबरों के तनाव के चलते पूरे देश में छात्रों की आत्महत्याओं का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। परीक्षा परिणाम आने का समय छात्रों को तनाव देने का नहीं बल्कि उन्हें तनाव से दूर रखने का है। ताजा विवाद में फैसला चाहे सीबीएसई के पक्ष में हो या विरोध में,लेकिन जितने दिन यह लटका रहेगा, छात्रों के मानसिक तनाव का स्तर चरम पर रहेगा। यह स्थिति किसी भी सूरत में ठीक नहीं कही जा सकती।
एक ओर तो सरकारें छात्रों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए उपाय सुझाने के उपक्रम करती है और दूसरी तरफ सरकारी तंत्र तनाव बढ़ाने के धत्कर्म में लगा रहता है। बच्चों का भविष्य और जीवन संकट में डालने वाली ये हरकतें तत्काल बंद होनी चाहिए। समय पर आपकी नींद नहीं खुलती तो अलार्म लगा लिया करें…