ऐसा लगता है कि बिहार पर कोई ग्रहण लगा हुआ है। जब जब भी इस राज्य के हालात सुधरने की खबरें आती है तो लगता है चलो देश में जिस विकास की बात हो रही है उसका कुछ न कुछ लाभ तो लोगों को मिल रहा है। अपेक्षानुरूप न सही लेकिन यदि स्थितियां थोड़ी बहुत भी सुधरती हैं तो वे आश्वस्त करती हैं कि आगे चीजें और ज्यादा ठीक होंगी।
पर बिहार के साथ पता नहीं क्या है कि जब भी उसके दो कदम आगे बढ़ने की खबर आती है,उसके साथ-साथ आठ दस कदम पीछे चले जाने की खबरें भी नत्थी होकर चली आती हैं। बिहार के कई मित्र बताते हैं कि ऐसा नहीं कि बिहार में कुछ नहीं हो रहा, वहां कई चीजें बदली हैं, आज ‘सुशासन बाबू’ का जो तमगा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है, उन्हीं नीतीश कुमार को बिहार से जुड़े लोग ही इस बात का श्रेय देते हैं कि उन्होंने हालात को बदलने की कोशिश जरूर की है।
जब बिहार के लोग खुद इस तरह का दावा करते हों या इस तरह की बात करते हों तो उनकी उम्मीदों को बरकरार रखा जाना चाहिए। हो सकता है बिहार बदल रहा हो, पर शायद बिहार की किस्मत नहीं बदल रही। रह रहकर कोई न कोई बात ऐसी हो जाती है कि यह प्रदेश फिर से ‘बदनाम’ राज्यों की सूची में डल जाता है। एक दाग धोने की कोशिश होती है तो दूसरा या तीसरा दाग शायद इंतजार कर रहा होता है कि उसका नंबर कब आएगा…
निश्चित रूप से मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार के चलते हुई बच्चों की मौत का मामला बिहार के माथे पर बहुत बड़ा दाग लगा गया है। यह दाग इतना बड़ा और गहरा है कि कई सालों तक यह बिहार और उसके राजनैतिक नेतृत्व का पीछा नहीं छोड़ने वाला। जिस तरह चारा घोटाला और मुजफ्फरपुर जिले का रेप व हत्याकांड बिहार के माथे पर चस्पा है, चमकी बुखार की मौतें भी बरसों इस राज्य की दुर्दशा की कहानी कहती रहेंगी।
कहते हैं, मुसीबत जब भी आती है, अकेले नहीं आती, अपने साथ कई और सखी सहेलियों को लेकर आती है। बिहार के साथ इस बार भी यही हुआ है। चमकी बुखार से पीडि़त बच्चों के इलाज को लेकर पहले से ही सुर्खियों में बने हुए मुजफ्फरपुर के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (एसकेएमसीएच) में नर कंकाल मिलने की खबर ने नया विवाद खड़ा कर दिया है।
खबरें आई हैं कि इस अस्पताल के पीछे करीब 100 मानव कंकाल मिले हैं। इन खबरों से पहले ही चमकी बुखार की दहशत में चल रहे लोगों में राज्य की चिकित्सा व्यवस्था को लेकर नई दहशत पैदा हो गई है। बताया जा रहा है कि ये उन मृत लोगों के कंकाल है जिनका न तो दाह संस्कार किया गया और न ही उन्हें दफनाया गया।
मामला तूल पकड़ने पर प्रशासन ने पूरे मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। अस्पताल के जांच दल ने शनिवार को पुलिस के साथ उस जगह का मुआयना किया। अस्पताल के पीछे मौजूद जंगल में एक या दो जले हुए शव मिले हैं। साथ ही 100 कंकालों के अवशेष या तो जमीन पर पड़े मिले या बोरियों में भरे हुए।
एसकेएमसीएच के अधीक्षक एसके शाही का कहना है कि पोस्टमार्टम हाउस, कॉलेज प्रिंसिपल के अधिकार क्षेत्र में आता है। कायदे से शवों का विधिवत अंतिम संस्कार कराना चाहिए न कि उन्हें यूं ही फेंक दिया जाना चाहिए। नियमानुसार, जब अस्पताल को कोई शव मिलता है, तो पुलिस को सूचना देकर एक रिपोर्ट फाइल करनी होती है। 72 घंटे बाद तक शव को पोस्टमॉर्टम रूम में ही रखना होता है। इस दौरान अगर मृतक का कोई परिजन शव की पहचान के लिए नहीं आता है तो पोस्टमॉर्टम विभाग की ड्यूटी है कि वह मतृक का दाह संस्कार करे या उसे दफनाए।
मानव कंकाल और जले हुए शव बरामद होने के मामले में राज्य सरकार की ओर से भी सफाई आई है। मंत्री अशोक चौधरी ने कहा कि कई बार जिन शवों का कोई दावेदार नहीं होता, उन्हेंजलाने के लिए राज्य सरकार पोस्टमॉर्टम विभाग को 2 हजार रुपये देती है। कई बार पोस्टमॉर्टम विभाग शवों को जलाता नहीं है। उन्होंने मीडिया पर मामले को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करने का भी आरोप लगाया।
मुजफ्फरपुर के कलेक्टर आलोक रंजन घोष के मुताबिक अस्पताल प्रशासन की ओर से सभी कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के बाद इन शवों का निस्तारण किया गया था। इस बीच इन कंकालों को लेकर यह भी कहा जाने लगा है कि इनमें चमकी बुखार से मारे गए बच्चों के शव भी हैं। हालांकि घोष ने इस तरह की रिपोर्ट्स को खारिज किया है।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि कलेक्टर आलोक रंजन घोष के हवाले से यह भी छपा है कि’इस अस्पताल के पीछे अज्ञात शवों को फेंकने की प्रक्रिया काफी समय से चल रही है। शवदाह गृह अस्पताल के बिलकुल पास में ही है इसलिए अकसर कन्फ्यूजन हो जाता है। अब प्रशासन ने तत्काल प्रभाव से शवदाह गृह को वहां से शिफ्ट करने का फैसला किया है।‘
इस पूरे प्रसंग में कौन सही है और कौन गलत यह कहना मुश्किल है। हो सकता है सरकार और प्रशासन का कथन पूरी तरह सही हो, लेकिन जब शासन प्रशासन की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है तो फिर सच पर भी सवाल खड़े होने लगते हैं। कौन भूल सकता है कि यह वही मुजफ्फरपुर है जहां बालिकागृह में बच्चियों के साथ दुष्कर्म कर, उनकी हत्या के बाद उन्हें वहीं गाड़ दिया गया था।
यह विडंबना ही है कि बिहार को राजनैतिक रूप से बहुत ही जागरूक, सक्रिय और संवेदनशील राज्य माना जाता है, लेकिन उसके बावजूद वहां से इस तरह की खबरें लगातार आती रहती हैं। तो क्या यह माना जाए कि बिहार के लोगों की सक्रियता सिर्फ राजनीतिक स्तर पर या राजनीतिक खेमेबाजी तक ही सीमित है, इस तरह के सामाजिक या विकास संबंधी विषयों पर नहीं।
यह कोई उलाहना नहीं है, लेकिन सोचने वाली बात तो है ही कि यदि आरक्षण समाप्त करने या उसके साथ छेड़छाड़ करने जैसी किसी बात की अफवाह भर उड़ जाए तो पूरा बिहार आंदोलित हो उठता है, राजनीतिक दल भी जमीन आसमान एक कर देते हैं, पर ऐसे मामलों पर बिहार में वैसा जनदबाव या आंदोलन क्यों दिखाई नहीं देता?