दुम सिर्फ कुत्ते की ही नहीं होती, सरकार, समाज, शासन, प्रशासन की भी होती है। और जिस तरह कुत्ते की डेढ़ी दुम को लाख कोशिशों के बावजूद सीधा नहीं किया जा सकता उसी तरह सरकार और समाज की दुम को भी आप किसी भी अनुशासन की भोंगली में रखकर सीधा नहीं कर सकते। जब तक भोंगली रहेगी वह दुम के सीधा होने का भ्रम जरूर पैदा करती रहेगी लेकिन जैसे ही आपने उसे निकाला दुम की पोजीशन ‘जैसी थी’ वाली हो जाएगी।
दुम और भोंगली का जिक्र आज इसलिए करना पड़ा क्योंकि पिछले दिनों गणेश चतुर्थी उत्सव के दौरान प्रतिमा विसर्जन के समय भोपाल में हुए बहुत बड़े हादसे के बाद बहुत हायतौबा मची थी। शासन प्रशासन की तरफ से कहा गया था कि अब प्रतिमाओं की स्थापना और उनके विसर्जन आदि की प्रक्रिया पर नए सिरे से विचार होगा और ऐसे तमाम उपाय किए जाएंगे कि इस तरह के हादसे दुबारा न हों।
इन उपायों में जलाशयों में विसर्जन के दौरान बरती जाने वाली सावधानियों के अलावा एक बड़ा मुद्दा प्रतिमाओं की ऊंचाई और आकार प्रकार का भी था। मूर्ति की ऊंचाई कितनी हो, इसको लेकर जब बात उठी तो मामला 6 फीट से लेकर 10 फीट तक के विवाद में उलझ गया। प्रशासन की ओर से मूर्ति 6 फीट से अधिक नहीं होने की बात कही गई लेकिन उसी दौरान सरकारी अमले में से ही किसी ने सवाल उठा दिया कि नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तो 10 फीट तक की ऊंचाई की अनुमति दे रखी है। इसमें से किसे माना जाए?
जब प्रशासन मूर्तियों की ऊंचाई और विसर्जन प्रक्रिया में उलझा तो धर्म की राजनीति करने वाले ठेकेदारों को भी मौका मिला और वे तुरंत अपनी दुकान चलाने के लिए यह कहते हुए धर्म का झंडा (या डंडा) लेकर खड़े हो गए कि यह हिन्दू धर्म के मामले में हस्तक्षेप है और इसे सहन नहीं किया जाएगा। अपनी बात को टेका लगाने के लिए यह तर्क भी दे दिया गया कि चूंकि ज्यादातर मूर्तिकार मूर्तियों को अंतिम रूप दे चुके हैं, इसलिए अब उनके आकार प्रकार में बदलाव का फैसला किए जाने से उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ेगा।
मामला बढ़ा तो सरकार की ओर से इस पर चर्चा के लिए बैठक रखी गई। भोपाल के प्रभारी मंत्री डॉ. गोविंदसिंह की अध्यक्षता में हुई यह बैठक पहले तो स्थान को लेकर विवाद में उलझ गई। बाद में जैसे तैसे बैठक का माहौल बना तो भोपाल की सांसद प्रज्ञासिंह ने कहा कि हिंदुओं के त्योहारों को लेकर जो एडवायजरी जारी की गई है हम उसका विरोध करते हैं। प्रज्ञा के विरोध जताने के बाद बैठक में भाग लेने उनके साथ आए भाजपा नेता बैठक का बहिष्कार कर बाहर आ गए।
बाहर आकर प्रज्ञासिंह ने कहा कि- ‘’कांग्रेस सरकार हिंदुओं के त्योहारों में हस्तक्षेप करती है। यह हिंदू तय करेगा कि मूर्ति की ऊंचाई क्या होना चाहिए। प्रशासन ने मूर्तियों और झांकियों के लिए जो एडवायजरी जारी की है हम उसका विरोध करते हैं। प्रशासन कौन होता है मूर्तियों की ऊंचाई तय करने वाला?’’
चूंकि इन दिनों धर्म ने देश के तमाम दलों और नेताओं की नस दाब रखी है, लिहाजा मूर्तियों के आकार प्रकार और विसर्जन आदि को लेकर जैसे ही धर्म बीच में आया, सरकार के हाथ पैर फूले और तुरंत सफाई दी गई कि मूर्तियों की ऊंचाई कितनी हो, इसे लेकर हमने न तो कोई फैसला किया है और न ही इस बारे में किसी कार्रवाई के दिशा निर्देश दिए गए हैं।
भोपाल के प्रभारी मंत्री डॉ. गोविंदसिंह ने भाजपा जनप्रतिनिधियों के रवैये पर आपत्ति जताते हुए कहा कि वे नाराज होकर बैठक का बहिष्कार करते हों तो करें। हम तो उनसे बात करना चाहते थे। जो मूर्तियां बन चुकी हैं उन्हें नहीं हटाया जा रहा है। मूर्ति की ऊंचाई 10 फीट हो तो भी कोई दिक्कत नहीं है। सवाल विसर्जन का है जिसके दौरान दुर्घटना की आशंका बनी रहती है।
अब पहले तो यह बात समझ से परे है कि मूर्तियों की ऊंचाई और उनके आकार प्रकार का हिंदू धर्म से क्या लेना देना है। कौनसी किताब में लिखा है कि मूर्ति यदि 12 फीट की हुई तो ही हिंदू धर्म सुरक्षित या जिंदा रहेगा और यदि आकार 11 फीट 11 इंच भी हुआ तो धर्म मटियामेट हो जाएगा। क्या देवता के प्रति श्रद्धाभाव मूर्ति के आकार प्रकार से तय होता है या देवता अथवा धर्म में आस्था से। हमारे यहां तो कंकर में भी शंकर की अवधारणा है, तो फिर ये मूर्ति की ऊंचाई का फच्चर फंसाने का क्या तुक है।
और जो लोग मूर्ति का आकार छोटा करने या उसे सुरक्षित रूप से विसर्जन कर सकने लायक बनाए जाने की पहल का विरोध कर रहे हैं, क्या उन्होंने चंद रोज पहले खटलापुरा घाट पर गणेश प्रतिमा विसर्जन के दौरान हुई 11 जवान मौतों को इतनी जल्दी भुला दिया है? क्या ये धर्म के ठेकेदार ऐसी ही और बलि चढ़वाना चाहते हैं? और शासन प्रशासन को आखिर क्या हो गया है जो वह कायदे की बात पर भी दृढ़ता से कायम रहने के बजाय ऐसे कुतर्कों के सामने समर्पण कर देता है।
जिस समय दुर्गा मूर्तियों के आकार प्रकार को लेकर विवाद चल रहा है, मैं अपने आसपास देख रहा हूं कि दशहरे के लिए रावण बनना शुरू हो गए हैं। सड़कों पर लेटे ऐसे अधिकांश रावणों की ऊंचाई 20-25 फीट से कम नहीं होगी। वैसे भी हर साल इस बात की होड़ लगती है कि कौनसे मोहल्ले का रावण सबसे ऊंचा होगा और इस चक्कर में 70, 80,90 फीट या उससे भी अधिक ऊंचाई के रावण बनाए जा रहे हैं।
अब यदि ऊंचाई से ही महत्व तय होना है, तो क्या यह मान लिया जाए कि धर्म की दुहाई देते हुए, देव प्रतिमाओं की ऊंचाई कम रखने को हिंदू धर्म का अपमान या उसमें हस्तक्षेप मानने वाले, रावण को दुर्गा या गणेश से ज्यादा महत्व देते हैं। क्योंकि यदि महत्व, सम्मान, श्रद्धा या आस्था प्रतिमा की ऊंचाई से ही तय होनी है, तो फिर रावण का पुतला तो दैव प्रतिमाओं से कई गुना अधिक ऊंचा बनाया जा रहा है। मतलब आपकी नजर में देव नहीं दानव ज्यादा सम्मान और श्रद्धा के पात्र हैं और शायद उनकी ऊंचाई से हिंदू धर्म और मजबूत हो रहा होगा।
समझ में यह भी नहीं आता कि हिंदुओं को आखिर क्या हो गया है। वे क्यों इस तरह की सिरफिरी बातों के बहकावे में आते हैं। क्यों खुद को मनुष्य या सच्चे अर्थों में धर्म के प्रति आस्थावान साबित करने के बजाय, भेड़ समूह साबित करने पर तुले रहते हैं। क्या खुद हिंदू समाज को ही ऐसे मामलों में धर्म के ठेकेदारों को अलग थलग कर समझदारी नहीं दिखानी चाहिए?