सरकारें किसे देखें: कोरोना को, मयखानो को या खजाने को?

अजय बोकिल

जहां देश में लॉक डाउन तीसरी बार फिर बढ़ गया है, वहीं सरकारों पर बढ़ते दबाव के बीच अब शराब दुकानें खोलने का फैसला ले लिया गया है। हाल में राजस्थान के एक विधायक ने राज्य के मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने प्रदेश में दारू की दुकानें तत्काल खोलने का आग्रह करते हुए तर्क दिया था कि जब अल्कोहल युक्त सेनिटाइजर से हाथ साफ हो सकते हैं तब दारू के दो घूंट हलक के नीचे उतरते ही गला भी साफ हो जाएगा। विधायक की नजर में कोरोना और खजाने का यही इलाज है।

इसके पहले महाराष्ट्र में मनसे नेता राज ठाकरे ने प्रदेश के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को ‘नेक’ सलाह दी थी कि शराब दुकानें बंद होने से पीने वालों को तो दिक्कत हो ही रही है, राज्य का भारी राजस्व नुकसान भी रहा है। हालांकि इसके लिए ठाकरे की काफी आलोचना हुई। लेकिन देश के अधिकांश राज्य जल्द से जल्द शराब को लॉक डाउन से बाहर निकालना चाहते रहे हैं, क्योंकि उनके पास भी कमाई का यही मुख्य् जरिया बचा है। लॉक डाउन पेट्रोल-डीजल की कमाई पहले ही हजम कर चुका है।

जाहिर है कि जब लॉक डाउन में तकरीबन हर इंसान परेशान है, तब शाम को गला तर कर कुछ लमहों के लिए दुनिया को भुला देने वालों के लिए तो और मुश्किल खड़ी हो गई थी। क्योंकि सरकार ने गम भुलाने का यह रास्ता भी बंद कर दिया था। माना जा रहा था कि लॉक डाउन में मयखानों का खुलना सोशल डिस्टेंसिंग के मकसद को ही खत्म कर देगा।

जबकि पीने वालों को मलाल इस बात का था कि बिन मांगे इफरात में मिला यह खाली वक्त भी मानों ‘खाली’ ही चला जा रहा है। बेवड़े अपना यह दर्द किससे साझा करें? अलबत्ता लॉक डाउन से इतना फायदा जरूर हुआ कि शराब के कारण जिन घरों में आए दिन झगड़े हुआ करते थे, वहां तगड़ा युद्ध विराम रहा। आंखें इस बात पर लगी रहीं कि यह कब, कैसे और कौन तोड़ता है।

राजस्थान में सांगोद क्षेत्र से विधायक भरतसिंह कुंदनपुर द्वारा ‘जनहित’ में लिखी यह चिट्ठी इसलिए भी चर्चा में थी, क्योंकि वे उस कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसका विश्वास गांधी और उनके विचारों में हैं। कोई कुछ समझे, लेकिन भरतसिंह की चिट्ठी में कुछ अहम बातें थीं। मसलन उन्होंने कहा कि लॉक डाउन में इसी तरह दारू की दुकानें भी ‘लॉक’ रही तो प्रदेश में अवैध शराब का धंधा और परवान चढ़ेगा (वैसे भी गरजू लोग अपना इंतजाम किसी तरह कर ही ले रहे थे)।

भरतसिंह ने कहा कि बिना शराब के राज्य की अर्थव्यवस्था की कमर टूट गई है। दूसरी तरफ राज्यभर में धड़ल्ले से अवैध शराब बनाई और बेची जा रही है। उन्होंने यह भी कहा कि जब शराब (अल्कोहलयुक्त सेनिटाइजर) से हाथ धोने से कोरोना वायरस साफ हो सकता है तो शराब पीने से गले से कोरोना वायरस भी साफ हो जाएगा। विधायक का यह भी दावा था कि लॉक डाउन की वजह से बाजार में इस दर्द-ए-दिल की दवा की मांग बहुत बढ़ गई है। शराब न मिलने से डेली पीने वालों की ‘सेहत’ को भी खतरा पैदा हो रहा है।

हालांकि तब तक राजस्थान सरकार ने इस मांग पर कोई फैसला नहीं लिया था, उल्टे उसने एक्साइज ड्यूटी 10 फीसदी बढ़ाकर शराब और महंगी कर दी। अपनी बात पर ट्रोल होने के बाद भरतसिंह ने सफाई दी कि उन्होंने तो यह बात ‘व्यंग्य’ में कही थी। इससे पहले हनुमानगढ़ जिले के भादरा क्षेत्र से विधायक बलवान सिंह पुनिया ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर ऐसी ही मांग की थी। पुनिया का कहना था कि शराब न मिलने से उसके लतियल खुदकुशी कर रहे हैं।

इसके पूर्व महाराष्ट्र में मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को चिट्ठी‍ लिखकर राज्य में शराब दुकानें खोलने की इजाजत देने की मांग की थी। उन्होंने कहा था कि इसका अर्थ शराबियों की जरूरत पूरा करना नहीं है, बल्कि कोरोना की मुश्किल घड़ी में राज्य सरकार का खाली खजाना भरना है। हाल में दिवंगत हुए एक अभिनेता और कॉमेडी एक्टर सुनील ग्रोवर ने भी शराब के हक में ट्वीट किए थे।

गौरतलब है कि देश भर में लॉक डाउन के चलते केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों में दारू की दुकानें, अहाते आदि बंद कर दिए थे। लॉक डाउन 2.0 में भी केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने कुछ आवश्यक वस्तुओं के सामान की दुकाने खोलने की इजाजत दी, जिनमें शराब शामिल नहीं थी। जिससे शराबियों के दिन का खुमार और रात का चैन छिन गया था। वो समझ नहीं पा रहे कि कोरोना की उनसे क्या ‘दुश्मनी’ है।

शराबियों की बेचैनी का आलम यह था कि कर्नाटक के गडग में शराब ठेके खुलने की अफवाह भर से दुकानों के आगे उम्मीद भरे सुराप्रेमियों की अनुशासित लाइनें लग गईं थीं। हालांकि काफी देर तक दुकानों के शटर जब न उठे तो उन सभी को ‘निराश’ लौटना पड़ा। कइयों को लगा कि सरकार उनके बारे में कुछ क्यों नहीं सोच रही है। ‘सूखे’ दिनों की यह सजा कब तक चलेगी?

लेकिन अब सरकार को ऐसे लोगों पर भी ‘रहम’ आ गया है। यूं मजाक, नैतिक और सामाजिक सवालों से हटकर यह हकीकत है कि आज देश के अधिकांश राज्यों में आय का एक बड़ा साधन शराब ही है। डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वयस्कों में शराब की खपत 8.8 फीसदी की दर से बढ़ रही है। लिहाजा वर्ष 2022 तक भारतवासी साल में 16.8 अरब लीटर शराब गटक सकते हैं। आलम यह है कि लोग खुशी और गम दोनों में शराब पी रहे हैं।

वर्ष 2018-19 में देश को 1.4 लाख करोड़ रुपये की आय तमाम शराबों की बिक्री से हुई थी। ऐसे में कोरोना के कारण आर्थिक कंगाली से जूझ रहे राज्यों को लग रहा है कि शराब ठेके चालू हों तो उनकी जेबें भी भर सकें। क्योंकि जीएसटी आने के बाद उनके पास आय के केवल दो ही साधन बचे हैं। एक गाडि़यों का ईंधन और दूसरा शराबियों का ‘ईंधन।’ लॉक डाउन 3.0 में दोनों तरह की ‘गाडि़यां’ चल पड़ेंगीं।

शराब के हक में विधायक का एक स्वच्छता तर्क यह है कि जब बाजार में मिलने वाले सेनिटाइजर में भी जब अल्कोहल होता है तो गला तर करने वाले अल्कोहल पर पाबंदियां क्यों? जबकि हकीकत यह है कि हैंड सेनिटाइजर में कुछ हानिकारक कीटाणु मारने की क्षमता तो होती है, लेकिन यह हानिकारक रसायनों को बेअसर नहीं कर पाते। जिन सेनिटाइजर्स में अल्कोहल कम होता है, वो ज्यादा प्रभावी नहीं होते।

कई डॉक्‍टर तो सेनिटाइजर की जगह साबुन से हाथ धोने की सलाह देते हैं। वैसे भी अल्कोहल शरीर के लिए घातक ही है। दुनिया में हर साल 30 लाख लोग केवल शराबखोरी से मरते हैं।

लेकिन पीने वाले इन आंकड़ों की फिकर नहीं करते। क्योंकि जाना तो सभी को है तो पीकर ही क्यों न जी लिया जाए। सरकार को डर यह था कि अगर सार्वजनिक शराबखोरी को इजाजत दे दी तो सोशल डिस्टेंसिंग का क्या होगा? क्योंकि शराब तो वैसे भी अकेले पीने की चीज नहीं है। शेयरिंग में इसका नशा और चढ़ता है और पीने के बाद इंसान कोरोना तो क्या उसके बाप से भी नहीं डरता।

सरकारों के सामने दुविधा यही थी कि वो अपने रीते खजानों को देखें या फिर जनता की स्वास्थ रक्षा के तकाजों को देखें। अरबों का राजस्व घाटा उठाकर भी अगर कोरोना की टांग तोड़ सके तो यह नुकसान भी सहन कर लेंगे। लेकिन लगता है कि सरकारें इस दुविधा से बाहर निकल आई हैं। उन्हें भी पैसा चाहिए। अलबत्ता इस फैसले से उन घरों में उदासी है, जो शराब के कारण हुई बर्बादी के बाद कोरोना काल में फिर से बसने लगे थे।

(लेखक की फेसबुक वॉल से)

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