भारत की न्यायपालिका को लेकर भले ही कितनी तरह की बातें की जाती हों, मुकदमों की लगातार बढ़ती संख्या और सालों साल चलने वाली सुनवाई को लेकर न्याय ढांचे को कितना ही कोसा जाता हो, महत्वपूर्ण मामलों में आने वाले फैसलों पर कितने ही तर्क वितर्क होते हों, लेकिन इन सबके बावजूद एक बात तो माननी पड़ेगी कि तमाम विसंगतियों, विरोधाभासों और काम के बढ़ते बोझ के बीच भी न्याय तंत्र में बैठे लोग कई मामलों में जो संवेदनशीलता दिखाते हैं वह काबिले तारीफ है।
इसी सप्ताह देश के सुप्रीम कोर्ट ने दो मामलों में जो रुख अपनाया, उसकी चर्चा भले ही उतनी नहीं हुई हो, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में कोर्ट के वे आब्जर्वेशन समाज में आवश्यक करेक्शन तो करते ही हैं, भविष्य के लिए यह आश्वस्ति भी जगाते हैं कि ‘सबकुछ खराब हो रहा है’ की धारणा वाले हमारे देश में कुछ तो ऐसा है, जहां सब कुछ खराब नहीं हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को दो अलग अलग मामलों में बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणियां की हैं। इनमें से एक टिप्पणी मीडिया के लिए सबक है तो दूसरी कठमुल्लावाद और कट्टरपंथ का झंडा लेकर चलने वाले उन लोगों के लिए है जो यह तक कहने से गुरेज नहीं कर रहे कि उनका बस चले तो तमाम बुद्धिजीवियों को वे गोली मार दें।
बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका आश्रय गृह में हुए बलात्कार कांड के कवरेज पर सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया को फटकार लगाते हुए कहा कि ये क्या तमाशा है… जिसे देखो वही पीडि़ताओं का इंटरव्यू लेने दौड़ रहा है, बच्चियों की चिंता किसी को नहीं है। ये सारे लोग उनसे मिल लेना चाहते हैं बस। लेकिन यह स्वीकार्य नहीं हो सकता।
कोर्ट ने इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में बच्चियों की तसवीर प्रकाशित और प्रसारित करने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। उसने कहा कि तसवीरों को धुंधला करके दिखाने पर भी पाबंदी रहेगी। आश्रय गृह में मीडिया और अन्य लोगों के जाने पर भी रोक लगा दी गई है।
सुप्रीम कोर्ट की जिस खंडपीठ ने इस मामले को स्वयं संज्ञान में लिया उसमें न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता शामिल हैं। न्यायमूर्ति लोकुर बाल संरक्षण के लिए खासतौर से जाने जाते हैं। वे दिल्ली हाईकोर्ट की किशोर न्याय समिति के अध्यक्ष रहे हैं और वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट की किशोर न्याय समिति के प्रमुख हैं।
अदालत ने केंद्र और बिहार सरकार को बालिका आश्रयगृह बलात्कार मामले में नोटिस जारी किया है। उसने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि मीडिया के लोगों ने बार बार जाकर कथित पीडि़ताओं का कई बार इंटरव्यू किया और उन्हें घटना को दोहराने के लिए बाध्य किया गया, उनसे वही सवाल कई बार पूछे गए…पीठ ने कहा कि क्या हम अपनी लड़कियों से इसी तरह पेश आते हैं?
न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा, ‘आप एक बच्चे से जिस तरह बात करते हैं, वह एक वयस्क के साथ बात करने से भिन्न होता है। मैंने कल एक क्लिप देखी। आप कथित बलात्कार की शिकार वयस्क से इस तरह बात नहीं करते। ऐसा करने के अलग तरीके होते हैं।… और सबसे बड़ी बात कि आपको पीडि़तों का इस तरह इंटरव्यू करना ही क्यों चाहिए…?
अब क्या बताएं लोकुर साहब, इन्हें इंटरव्यू क्यों चाहिए? इन्हें इंटरव्यू इसलिए चाहिए ताकि ये उन बच्चियों को खबर बनाकर बेच सकें। उन्हें खबर भी सूचना देने के लिए नहीं बल्कि बेचने के लिए ही चाहिए। उनके लिए खबर एक उत्पाद है जिसे वे बाजार में बेचने निकले हैं।
मेरा मानना है कि अकेले बिहार ही क्यों, ऐसी हर संवेदनशील घटना के कवरेज के स्पष्ट कायदे कानून होने चाहिए। दुष्कर्म की शिकार बच्चियों अथवा महिलाओं के तो पास तक फटकने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। अब यह बहस पुरानी हो चली है कि अदालत में बलात्कार के मामलों की सुनवाई के दौरान वकील बहुत असहज सवाल करते हैं। इससे पीडि़ता को बार-बार उसी मानसिक संत्रास से गुजरना पड़ता है। अब वकीलों का स्थान पत्रकारों ने ले लिया है।
दूसरा मामला मलयाली साहित्यकार एस. हरीश के उपन्यास ‘मीशा’ पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ा है। संबंधित याचिका में आरोप लगाया गया था कि मलयाली दैनिक मातृभूमि में श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रकाशित इस उपन्यास में मंदिर जाने वाली महिलाओं को अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया गया है। यह हिंदू महिलाओं का अपमान है।
याचिका की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.एम.खानविलकर और डी.वाई.चन्द्रचूड़ की पीठ ने की। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि “पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने की संस्कृति सीधे विचारों के प्रवाह को प्रभावित करती है, ऐसा तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि यह भारतीय दंड संहिता की धारा 292 का उल्लंघन न करती हो।”
न्यांयालय ने कहा कि उपन्यास के जिस अंश पर आपत्ति जताई गई है वह दो पात्रों के बीच संवाद है। उसे उपन्यास के कथानक के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने तो सीधा सवाल किया कि सिर्फ दो पैराग्राफ के कारण क्या पूरी किताब को खारिज किया जा सकता है?
हालांकि केरल में किताब को लेकर विवाद होने के बाद उसके लेखक एस. हरीश ने इसे वापस लेने का ऐलान कर दिया है। उनका कहना है कि वे उन लोगों का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं हैं जो किताब का विरोध कर रहे हैं। उनके पास सत्ता है और मैं खुद पर व मेरे परिवार पर होने वाले हमलों को झेलने में असमर्थ हूं।
बिहार और केरल दोनों ही राज्यों के इन मामलों में अदालतों का अंतिम निर्णय आना अभी बाकी है। लेकिन सुनवाई के दौरान ही शीर्ष अदालत ने जो टिप्पणियां की हैं वे यह तो साबित करती ही हैं कि सब कुछ खत्म हो जाने की आशंका के कुहांसे में उम्मीद की किरणें अभी खत्म नहीं हुई हैं।