राकेश अचल
सत्याग्रही किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच वार्ता का एक और दौर बेनतीजा समाप्त हो गया। ये शायद ग्यारहवां दौर था, अब सरकार ने साफ कर दिया है कि किसानों को इससे ज्यादा नहीं दिया जा सकता। सरकार का ये कथन हताशा का प्रतीक है। बातचीत की निरंतर नाकामी से जाहिर है कि सचमुच अब किसानों के लिए उसके पास कुछ बचा नहीं है। बातचीत की नाकामी को अब किसान संगठनों की हठधर्मी कहा जाए या सरकार की, बताने की जरूरत नहीं है।
किसान संगठन दो महीने पहले से अपनी मांगों को लेकर स्पष्ट थे, लेकिन सरकार लगातार वार्ता के नाम पर किसान संगठनों को उलझाने में लगी रही। जो काम सरकार को करना था उसके लिए सुप्रीम कोर्ट को बीच में घसीटा गया लेकिन सरकार की ये कोशिश भी नाकाम रही। अब सरकार ने अपने दोनों हाथ खड़े कर दिए हैं ये कहते हुए कि कोई तो है जो किसानों के आंदोलन को लंबा खींच कर राजनीति कर रहा है या किसानों के कन्धों पर रखकर बंदूक चला रहा है।
किसानों के आंदोलन को लेकर सरकार अपनी तरह से सोचती है और दीगर राजनीतिक दल अपनी तरह से। समाज इस आंदोलन को लेकर अलग तरिके से सोचता है और मीडिया अलग तरीके से। अधिकांश की राय ये है कि सरकार को कृषि क़ानून वापस ले लेना चाहिए, लेकिन कुछ तो मजबूरियां रही होंगी जो सरकार इस बात के लिए राजी नहीं है। क्या विवादासपाद कृषि कानून वापस लेने से देश और दुनिया में सरकार और प्रधानमंत्री जी की साख को बट्टा लग जाएगा? क्या ऐसा करने से देश में निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में सरकारी पार्टी को नुकसान उठाना पडेगा? क्या सरकार के पीछे खड़े पूंजीपति सरकार से नाराज हो जायेंगे?
ये ऐसे तमाम सवाल हैं जो वार्ता की नाकामी से जुड़े हैं। अब जब सरकार किसानों को ही नहीं मना पा रही है तो देश को इन तमाम सवालों के उत्तर कैसे दे सकती है। किसानों के लिए बनाये गए कानून सरकार को पसंद हैं, लेकिन किसानों को नहीं, फिर भी उन्हें थोपने की जिद की जा रही है। जाहिर है कि सरकार मजबूर है। जाहिर है कि क़ानून वापस लेने से, कुछ ऐसी ताकतें जरूर हैं जो सरकार का नुकसान कर सकती हैं, इसीलिए सरकार दो महीने से किसानों को उलझाए है।मामले को सुलझाने में सरकार की दिलचस्पी सीमित है।
अब सवाल ये है कि क्या किसान आंदोलन अनंतकाल तक चलने वाला है? क्या इससे देश में टकराव और अविश्वास का माहौल और गहरा नहीं होगा? क्या इससे ये धारणा और मजबूत नहीं होगी कि भारत अब कृषि प्रधान देश नहीं रहा, पूंजी प्रधान देश हो गया है? इन तमाम सवालों के जवाब खोजना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। कृषि क़ानून वापस लेने से कोई पहाड़ तो टूटने वाला है नहीं। सरकार के पास अभी काम करने के लिए काफी समय है। आने वाले दिनों में सरकार किसानों के कल्याण के लिए मौजूदा विवादित कानूनों से भी अधिक प्रभावी और पारदर्शी कानून ला सकती है, लेकिन शायद सरकार अब कोई जोखिम लेना नहीं चाहती। सरकार का अपना विश्वास डिगा हुआ है।
हैरानी की बात ये है कि सरकार की ओर से जो वार्ताकार हैं वे अब अपनी भाषा बदल रहे हैं। एक कृषि मंत्री के रूप में नरेंद्रसिंह तोमर के पास इस नाकामी को स्वीकारने के अलावा अब कोई विकल्प बचा नहीं है। नैतिकता तो ये कहती है कि इतने लम्बे किसान सत्याग्रह के बाद मंत्री जी खुद अपने घर चले जाते लेकिन अब राजनीति में नैतिकता का कोई तकाजा बचा नहीं है, इसलिए कृषि मंत्री से कोई अपेक्षा करना बेमानी होगी।
प्रधानमंत्री जी का रुख साफ़ है वे किसानों से बातचीत के लिए रत्ती भर तैयार नहीं हैं। उनके भीतर किसानों के इस गांधीवादी सत्याग्रह के तिरस्कार का भाव प्रबल है। वे मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि किसान परेशान हैं। उन्हें किसानों के कन्धों पर विरोधियों की बंदूकें रखी दिखाई दे रहें हैं। किसान आंदोलन के प्रति सरकार का व्यवहार हठधर्मी के साथ ही गांधीवाद के प्रति उसके पूर्वाग्रह का भी प्रतीक बनता जा रहा है।
किसानों ने दो महीने तक अपने आंदोलन को अनुशासित रखकर ये प्रमाणित कर दिया है कि उनका रास्ता टकराव का नहीं गांधीवाद का है। टकराव के हालत तो सरकार की ओर से बनाये जा रहे हैं। जो सरकार दो माह में किसानों के आंदोलन का समापन नहीं करा सकती वो आखिर सरकार में बने रहने का दावा कैसे कर सकती है। सरकार के पास जो जनादेश है उसमें किसानों का भी हिस्सा है, अब जब किसान अगर सरकार के किसी फैसले से असहमत हैं तो उसे विरोध न मानकर जरूरत क्यों नहीं माना जा रहा।
देश का दुर्भाग्य है कि एक तरफ हम अपना 72 वां गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारियां कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश के किसान दिल्ली के बाहर ट्रेक्टर ट्रालियों की रैली कर देश की सोई हुई सरकार को झकझोर कर जगाने का प्रयास कर रहे होंगे। किसानों को देश की सत्ता नहीं चाहिए, वे केवल अपने से जुड़े क़ानून वापस लेने की मांग कर रहे हैं और उनकी ये बात नहीं मानी जा रही है। क्योंकि सत्ता में बैठे लोगों को लगता है कि यदि उन्होंने किसानों की बात मान ली तो वे हार जायेंगे। ये गलत आशंका है। मसला हार या जीत का है ही नहीं। मसला प्रतिष्ठा का भी नहीं है। मसला खेतों-खलिहानों का है, और उसे इसी बिना पर सुलझाया जाना चाहिए।
किसान सत्याग्रह को लेकर यदि आज कोई दूसरा भी सत्ता में होता तो शायद रास्ता निकाल लेता, किसानों को दो महीने तक रास्ते पर रखने की गलती नहीं करता, लेकिन कुछ चीजें बदली नहीं जा सकतीं। अब देखना होगा कि किसान खाली हाथ अपने घर जाते हैं या पुलिस की लाठी-गोली खाकर। क्योंकि सरकार तो उन्हें कुछ देने से रही। कृषि प्रधान देश में किसानों के भाग्य में शायद यही सब लिखा हुआ है कि वे एक तरफ अन्नदाता बने रहेंगे और दूसरी तरफ उनकी कोई सुनवाई भी नहीं होगी। अच्छा होता कि देश की कमान चाय बेचने का अनुभव रखने वाले पंत प्रधान के बजाय किसी किसान के हाथ में होती। हालाँकि चाय भी एक कृषि उत्पाद है लेकिन उसे पैदा करना और पका कर बेचना एकदम अलग काम है।