26 मई को देश के करीब-करीब सारे अखबार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीन साल पूरे होने पर सरकार की उपलब्धियों के गुणगान से भरे पड़े थे। ज्यादातर खबरों की ध्वनि यह थी कि इन तीन सालों में देश में बहुत कुछ बदला है और दुनिया भारत की ओर बड़ी उम्मीद से देख रही है।
लेकिन उम्मीद जगाने वाली ऐसी ढेर सारी ‘गर्व भरी’ खबरों के बीच, ज्यादातर अखबारों में, अंदर के पन्नों पर कहीं कोने में पड़ी एक खबर पूरे भारत को मुंह चिढ़ाते हुए शर्मिंदा कर रही थी। खबर यह थी कि देश की सबसे अत्याधुनिक और सर्वसुविधायुक्त ट्रेन ‘तेजस’ की पहली ही यात्रा के दौरान यात्री हेडफोन चुरा ले गए, उन्होंने सीटों पर लगे एलईडी स्क्रीन खुरच डाले और कुछ ने तो ये स्क्रीन तक उखाड़कर ले जाने की कोशिश भी की। ट्रेन जब गंतव्य पर पहुंची तो डिब्बों में चारों तरफ कचरा फैला हुआ था और टॉयलेट भी गंदे पड़े थे।
आगे बात करने से पहले यह जान लें कि यह ‘तेजस’ ट्रेन है क्या…? दरअसल भारतीय रेलवे ने कुछ जगह प्रायोगिक तौर पर तेज गति वाली, अत्याधुनिक ट्रेनें चलाने का फैसला किया है। इनके डिब्बे विशेष तौर पर तैयार किए गए हैं जिनमें हर सीट पर एलईडी स्क्रीन लगा है। लोकेशन जानने के लिए जीपीएस सिस्टम मौजूद है। डिब्बों में चाय और कॉफी की मशीनें लगी हैं। संगीत आदि सुनने के लिए विमानों की तरह ही हेडफोन की व्यवस्था है। इसके अलावा भी पूरी तरह से एसी इस ट्रेन को कई और सुविधाओं से लैस किया गया है।
रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने, मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से गोवा के करमाली तक की 550 किमी की दूरी साढ़े आठ घंटे में तय करने वाली यह ट्रेन 22 मई को हरी झंडी दिखाकर रवाना की थी। गंतव्य पर पहुंचने के बाद जब रेलवे स्टाफ ने डिब्बों की चैकिंग की तो वे हैरान रह गए। बेहतर क्वालिटी के कई हेडफोन सीटों से गायब थे और कई एलईडी स्क्रीन पर खरोंचे पड़ी हुई थीं।
‘तेजस’ का जिस तरह से निर्माण किया गया है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह ‘सामान्य’ ट्रेन नहीं है। मुंबई से करमाली तक इसका साधारण चेयर कार का किराया 1190 रुपए और एक्जीक्यूटिव क्लास का किराया प्रति यात्री 2590 रुपए है। खान पान की सुविधा के लिए यात्रियों को अलग से भुगतान करना होता है। यानी इस ट्रेन में वही व्यक्ति यात्रा कर सकता है जिसकी जेब में महंगा टिकट खरीदने के पैसे हों।
लेकिन ‘तेजस’ के पहले ही सफर में इन्हीं कथित ‘धनवानों’ ने अपने चरित्र का जो घटियापन दिखाया है वह शर्मसार कर देने वाला है। हम अकसर सरकारों या व्यवस्था बनाने वालों को इस बात के लिए दोष देते हैं कि पैसा देने के बावजूद हमें ठीक से सुविधाएं नहीं मिलतीं। लेकिन जब सुविधाएं मिलती हैं, तब हमारा असली टुच्चापन भी सामने आ जाता है। हजार या ढाई हजार रुपए से भी अधिक का टिकट खरीदने वालों की इस ‘चोट्टी मानसिकता’ के सामने न तो कोई सरकार कुछ कर सकती है और न ही कोई ‘मोदी’ इसे सुधार सकता है।
मोदी सरकार ने आने के बाद स्वच्छता को सबसे बड़े अभियान के रूप में चलाने की कोशिश की है। ठीक है कि उसमें दिखावा और ढकोसला भी बहुत हुआ है,लेकिन क्या ट्रेन के डिब्बों की साफ सफाई अकेले रेलवे की ही जिम्मेदारी है? क्या यात्रियों का कर्तव्य नहीं कि वे डिब्बों और उनके टॉयलेट्स को साफ रखने में सहयोग करें?
मुझे याद है एक रेल बजट के बाद प्रतिक्रिया के दौरान कुछ लोगों ने शिकायत की थी कि टॉयलेट में रखे जाने वाले मग्गे की चेन छोटी होती है, उसे थोड़ा लंबा किया जाए। इसी संदर्भ में मैंने लिखा था कि जबलपुर रेल मंडल ने पिछले साल विभिन्न ट्रेनों के 450 डिब्बों के शौचालयों में स्टील के 1800 मग लगाए। इनमें से 11 सौ से अधिक मग चोरी हो गए। और यह ‘बेशकीमती’ सामान सिर्फ जनरल या स्लीपर कोच से ही नहीं, बल्कि एसी कोच के टॉयलेट से भी चुराया गया।
एसी कोच में यात्रा करते समय मेरी कई बार अटेंडर्स से इस बात को लेकर बहस हुई है कि वे बेडरोल के साथ दिया जाने वाला तौलिया पैकेट में क्यों नहीं रखते। ज्यादातर अटेंडर्स का बड़े दुखी मन से जवाब होता है कि क्या करें साहब, लोग तौलिया अपने साथ रखकर ले जाते हैं और उसका पैसा हमारे वेतन में से काट लिया जाता है। और यह बात हकीकत है। कई बार मैंने देखा है कि ट्रेन में दिए जाने वाले तौलियों का जूता पोंछने के साथ साथ छोटे बच्चों की लघु और दीर्घशंकाओं के निवारण तक के लिए उपयोग किया जाता है और बाद में वे फेंक दिए जाते हैं।
आप में से कई लोगों को याद होगा कि रेल के डिब्बों में पहले लिखा होता था- सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है इसकी हिफाजत करें। लेकिन लोग उसका अर्थ यह लिया करते थे कि जब संपत्ति अपनी ही है तो उसे डिब्बे से उठाकर या उखाड़कर अपने घर भी ले जाया जा सकता है। वह भाव न सिर्फ बदस्तूर कायम है बल्कि उस पर इसी ‘अपनत्व‘ भाव से अमल भी किया जा रहा है।
सरकार के तीन साल पर बहुत से मामलों में व्यवस्था को गाली देने और कोसने वाले मिल जाएंगे, लेकिन हम कभी अपने गिरेबान में भी तो झांक कर देखें कि हम क्या कर रहे हैं?