हमारे माथे पर पहले ही काले टीके क्‍या कम थे?

यह करीब 25 साल पुरानी बात होगी। उस समय मध्‍यप्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था। मैं समाचार एजेंसी यूएनआई के लिए भोपाल में काम करता था और समाचारों के समन्‍वय आदि का काम भी देखता था। उन दिनों छत्‍तीसगढ़ अंचल में बस्‍तर क्षेत्र पूरा एक ही जिला हुआ करता था। वहां वरिष्‍ठ पत्रकार किरीट दोषी वर्षों तक यूएनआई के प्रतिनिधि रहे।

किरीट दोषी के बाद हम लोगों ने एक युवा पत्रकार एस. करीमुद्दीन को वहां अपना प्रतिनिधि बनाया। करीमुद्दीन समाचार लेखन के मामले में उतने पारंगत नहीं थे, लेकिन उनकी एक खासियत उन्‍हें बाकी लोगों से अलग करती थी और वह थी उनके व्‍यापक संपर्क। बस्‍तर में कहीं कोई जरा सी भी हलचल हो, करीमुद्दीन के पास सबसे पहले सूचना आती थी और यही कारण था कि उनके माध्‍यम से यूएनआई बस्‍तर के समाचारों में सबसे आगे रहती थी।

एक बार करीमुद्दीन भोपाल आए। बातचीत के दौरान मैंने उन्‍हें अच्‍छे और तत्‍काल कवरेज के लिए बधाई दी। इस पर उन्‍होंने कहा कि हम तो बहुत छोटी जगह काम करते हैं सर, असली खबरें तो आप लोगों के पास रहती हैं, आप चाहो तो सरकार हिला दो, हम कितनी ही अच्‍छी खबरें भेज दें हमारी कौन सुनता है… कौन हमें पहचानता है…

उस समय मैंने उन्‍हें टोकते हुए कहा था, नहीं भाई, असली खबरें तो आप ही लोगों के पास होती हैं। हम लोग तो यहां राजधानी में कुछ इधर की सुनकर, कुछ उधर की सुनकर खबरें बना लेते हैं, लेकिन जमीन से जुड़ी खबरें, समाज से जुड़ी खबरें, सरकार के कामकाज की असलियत से जुड़ी वास्‍तविक खबरें तो आप लोग ही दे सकते हो…

लेकिन करीमुद्दीन मुझसे सहमत नजर नहीं आए, उनका कहना था कि असली ताकत को राजधानी में काम करने वाले पत्रकार के पास ही होती है… तब मैंने उन्‍हें उदाहरण दिया था कि हम चाहें तो भी सरकार को हिला नहीं सकते, लेकिन बस्‍तर से आई  आपकी एक खबर भी सरकार को हिला सकती है। चूंकि आदिवासी भोपाल में नहीं बस्‍तर में रहते हैं इसलिए उनकी खबर तो बस्‍तर से ही आएगी ना…

मैंने कहा- आप खबर देते हो बस्‍तर में उल्‍टी दस्‍त से आदिवासी की मौत हो गई, भूख से लोग मर गए… और यहां सरकारें ऐसी खबरों से हिल जाती हैं। भोपाल में कौन आदिवासी रहते हैं या राजधानी में कौन भूख से मरता है जो ऐसी खबरों से सरकारें हिल जाएंगी… लेकिन आप जिस समाज के बीच रहते हो वहां ये सारी बातें, सारी तकलीफें मौजूद हैं, इसलिए सरकारों को आपकी खबरों पर, दिखावे के लिए ही सही, सोचना भी पड़ता है और चिंता भी करनी पड़ती है…

मुझे पता नहीं करीमुद्दीन उस समय मेरी बातों से कितना सहमत हुए होंगे, लेकिन आज उस संवाद की याद इसलिए आई क्‍योंकि 25 साल बाद एक ऐसा वाकया हुआ है जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्‍या वाकई मैंने उस समय जो कहा था वो हकीकत थी? मैंने उदाहरण दिया था कि राजधानी में भूख से कौन मरता है जो यहां भूख से मौत की खबर बनेगी…?

पर आज मेरा यह कथन गलत साबित हुआ है। होना तो यह चाहिए था कि जो बात करीब ढाई दशक पहले नामुमकिन लगती थी, बीते सालों में देश में हुई तरक्‍की के चलते उसकी संभावना तक खत्‍म हो जाती। लेकिन अफसोस कि आज हमें यह खबर सुनने को मिल रही है कि देश की राजधानी दिल्‍ली में तीन बच्चियों ने भूख के कारण दम तोड़ दिया…

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भूख और कुपोषण से पीड़ित, दस साल से कम उम्र की इन बच्चियों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहती है कि बच्चियों के पेट में अन्न का एक दाना नहीं था। लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल के चिकित्सा निदेशक डॉक्टर अमित सक्सेना ने आठ वर्षीय मानसी, पाँच वर्षीय पारो और दो वर्षीय सूखो के भूख से मरने की पुष्टि की है।

बच्चियों का पिता रिक्शा चलाता है। उनकी मां की मानसिक हालत कमज़ोर बताई गई है। यह परिवार दिल्ली के मंडावली इलाक़े की एक झुग्गी में किराए पर रहता था। लेकिन किराया न चुका पाने की वजह से उन्हें वहां से निकाल दिया गया था। परिवार के मुखिया का रिक्शा दो सप्ताह पहले चोरी हो गया था इस कारण उसके पास कोई काम नहीं बचा था। पैसे की तंगी के चलते घर में खाना नहीं बन पा रहा था।

जैसे ही भूख से मौत की खबर आई, मॉब लिंचिंग में व्‍यस्‍त राजनीति और मीडिया को नया मुद्दा मिल गया और लोग उस बस्‍ती की तरफ दौड़ पड़े जहां मानवता को शर्मसार करने वाली यह घटना हुई थी। बच्चियों के घर दिल्‍ली प्रदेश भाजपा अध्‍यक्ष मनोज तिवारी भी पहुंचे तो प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष ललित माकन भी।

विपक्षी दलों के नेताओं ने घटना का ठीकरा केजरीवाल सरकार के माथे फोड़ते हुए आरोप लगाया कि आम आदमी सरकार राशन के वितरण को लेकर एलजी से झगड़े में उलझी है और इधर बच्‍चे भूख से मर रहे हैं। जबकि ‘आप’ का कहना है कि घर-घर अनाज की योजना लागू नहीं करने दोगे तो यही होगा।

हालांकि दिल्‍ली के उप मुख्‍यमंत्री मनीष सिसोदिया ने सधी हुई प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि बच्चियां गरीबी, भुखमरी या किसी भी बीमारी से मरी हों लेकिन यह हमारे सिस्‍टम की बहुत बड़ी असफलता है। मामले की मजिस्‍टीरियल जांच के आदेश देते हुए सिसोदिया ने बताया कि योजना विभाग को दिल्ली के हर घर में रहने वाले बच्‍चों की पूरी जानकारी जुटाने को कहा गया है। इसमें उनकी स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी जानकारी भी शामिल है।

जिस तरह यह मामला उठा है, हो सकता है इस पर आरोप प्रत्‍यारोप की राजनीति और बयानबाजी कुछ दिन जारी रहे। इस घटना को आने वाले हर चुनाव में राजनीतिक रूप से भुनाने के लिए इस्‍तेमाल भी किया जाए। लेकिन न तो ऐसे मसलों का हल नरेंद्र मोदी को गाली देने से निकलेगा और न केजरीवाल को। हल तो उस सिस्‍टम को सुधार कर ही निकाला जा सकता है जो तमाम सरकारी योजनाओं के क्रियान्‍वयन के लिए जिम्‍मेदार और जवाबदेह है।

कई बार समझ ही नहीं आता कि हम आगे जा रहे हैं या पीछे की ओर दौड़ रहे हैं… तीन चार माह की बच्चियों से दुष्‍कर्म, सड़क चलते लोगों की पीट पीटकर हत्‍या जैसी घटनाएं क्‍या कम थीं जो देश की राजधानी में भूख से मौत की यह घटना एक और काला टीका लगा गई…?!

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