गिरीश उपाध्याय
2020 ने पूरे साल मानवता को भले कितने ही कष्ट दिए हों लेकिन जाते जाते वह उम्मीदों के अंकुर भी उगाकर गया है। फिर चाहे बात कोविड-19 का टीका आने की हो या फिर देश में चल रहे किसान आंदोलन के खत्म होने का मामला। सरकार और समाज दोनों में उथल-पुथल मचा देने वाली इन दोनों घटनाओं को लेकर नया साल 2021 हमारे लिए अच्छी शुरुआत होने के संकेत दे रहा है।
36 दिन से चल रहे किसान आंदोलन को लेकर वाकई बहुत उलझनें पैदा हो गई थीं। न्यूनतम समर्थन मूल्य की बुनियादी मांग से शुरू हुआ यह आंदोलन, सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए लाए गए तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग तक पहुंचकर अड़ गया था। सरकार के लिए यह बहुत बड़ी परीक्षा की घड़ी थी, लेकिन 29 दिसंबर को सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच हुई बातचीत से बर्फ पिघलने के संकेत मिले हैं और उम्मीद की जा सकती है कि 4 जनवरी को होने वाले चर्चा के अगले दौर में दोनों ही पक्ष मिलकर इस मसले को सुलझा लेंगे।
हालांकि जिस समय मैं यह कॉलम लिख रहा हूं उस समय तक किसानों ने नए कानूनों को रद्द करने की मांग वापस लेने का कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिया है, लेकिन उन्होंने अपनी मांगों की जो सूची सरकार को सौंपी थी, उनमें से दो मुद्दों पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण व बिजली सबसिडी पर सहमति बन जाने के संकेत मिले हैं। संभवत: इसी सिरे को पकड़कर बातचीत अब आगे बढ़ेगी और कुछ तुम झुको, कुछ हम झुकें की मुद्रा अपनाते हुए दोनों पक्ष किसी ऐसे समझौते पर पहुंच सकेंगे जिसमें दोनों का ही सम्मान और दोनों की ही नाक-साख बची रहे।
एक महीने से भी अधिक के इस आंदोलन ने सरकार और आंदोलनकर्ता दोनों को कई सबक भी दिए हैं, जिन्हें भविष्य में नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। पहला सबक तो सरकार के लिए है कि वह किसी भी बात को हलके में न ले। पानी सिर से गुजर जाने के बाद यदि आप चेतते हैं तो मामला सुलझाने में मुश्किलें आएंगी ही। मैंने पहले भी लिखा था कि यदि सरकार शुरुआत में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग पर ठीक से अपना रिस्पांस दे देती और उसे मान लेती तो संभवत: बात न तो इतनी बिगड़ती और न ही इतनी दूर तलक जाती।
आंदोलनकारियों के लिए सबक ये है कि वे अपनी मांगों का दायरा हमेशा लचीला रखें। ‘यस या नो’ की जिद लेकर न तो कोई आंदोलन देर तक चलाया जा सकता है और न ही इस तरह से अपनी मांगों को मनवाया जा सकता है। मांगों में इतनी गुंजाइश तो हमेशा रहनी चाहिए कि दोनों पक्ष दो-चार कदम पीछे हटने या दो-चार कदम आगे बढ़ने में कोई कठिनाई महसूस न करें। कृषि बिलों को सिरे से खारिज कर उन्हें वापस लेने की मांग अव्यावहारिक थी, खासतौर से उस समय जब सरकार ने यह संकेत दे दिए थे कि वो इनमें किसानों की भावना के अनुरूप संशोधन पर बात करने और उस पर अमल करने को तैयार है।
आशा की जानी चाहिए कि नए साल में होने वाली सरकार और किसानों की बातचीत में जल्दी ही सारे मसलों का हल निकल आएगा और आंदोलन समाप्त होने की सूरत बनेगी। मानवीय दृष्टि से भी, कड़ाके की ठंड में किसानों का यूं सड़क पर बैठे रहना किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। आंदोलन के दौरान कई किसान अपनी जान गंवा चुके हैं, वो भी नहीं होने देना चाहिए था। किसान अपनी खेती किसानी में लौटें और सरकार जनता की भलाई के काम में जुटे यह जितनी जल्दी हो जाए उतना अच्छा है।
इस आंदोलन में एक बात वैसे बहुत अच्छी रही है कि उकसाने और भड़काने वाली तमाम हरकतों के बावजूद दोनों ही पक्षों ने अपना आपा नहीं खोया और सारी आशंकाओं को दरकिनार करते हुए न तो आंदोनकारियों ने इसे हिंसक होने दिया और न सरकार ने बलप्रयोग से किसानों को कुचलने की गलती की।
लोकतंत्र में लाख मतभेद हों, लेकिन समस्या का हल अंतत: बातचीत से ही निकलता है। बातचीत के दरवाजे कभी बंद नहीं होना चाहिए। जो लोग आंदोलन कर रहे थे, उन पर तमाम तरह के आरोप लगाए गए हों, लेकिन यह नहीं भूला जा सकता कि आखिरकार वे देश के ही नागरिक हैं और अपनी चुनी हुई सरकार के सामने अपनी समस्या और मांग रख रहे थे। कोई भी सरकार अपने ही लोगों की और वो भी खासतौर से खेती किसानी से जुड़े लोगों की मांगों को नजरअंदाज नहीं कर सकती।
लेकिन आंदोलन खत्म हो जाने के बाद भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि खेती किसानी से जुड़े मसलों का हल निकल गया है। दरअसल इस अवसर का लाभ उठाकर देश में खेती और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था के तमाम पहलुओं पर गंभीर विचार शुरू किया जाना चाहिए। टुकड़ों टुकड़ों में किसानों को फौरी राहत देने के बजाय स्थायी और ठोस उपायों के लिए कोई ऐसा मैकेनिज्म तैयार किया जाना चाहिए, जिससे देश के अन्नदाताओं को इस तरह सड़क पर उतरने की नौबत फिर न आए।